Wednesday 19 December 2012

दक्षिणपुरी में एक महफिल


अनुभवी लोगों के संवाद के बाद में ये पहला दिन था।

यादें, सपने, आसपास, माहौल, फैसले, कारण, कामयाबी, सफ़र, शादी, परिवार, स्कूल, बचपन, जवानी, काम, पैसा, किराया, फिल्म, नाटक, टीवी, पर्दा, दिनचर्या, दिलचस्पी, हिदायतें, रविये, कल्पनाएं, लड़ाईयां, झगड़े, घटनायें, किताबें, डर, चेतावनियां, चोरियां, छतें, रातें, सरकारी लाइनें, काल्पनिक दीवारें, अपने मन मुताबिक बर्तन, अपनी पसंद के जूते और बेकर चीज़ों से औजार बनाना जो शायद उनके खेलने के काम में आये लेकिन लोगों से बातचीत करने के बाद में सभी एक बार फिर से किताब के अनेकों किरदारों के बारे में बोल रही थी।

वे किरदार जो कभी वे खुद ही थी। जीवन के अनेकों पल जो कहीं छिटक गये थे उन्हे पकड़कर लाना इतना आसान नहीं होता लेकिन याद रखने से ज्यादा मिठा सफ़र याद करने का होता है। जो यहां पर था।

दक्षिणपुरी की सारी दादियां जो अपने अनुभवों के किस्सों को इस तरह से सुनाती आई हैं कि वे उनके बारे में नहीं है वे तो वो किरदार हैं जो कहीं थे ही नहीं। फिल्म देखना, छुपना, निजी फैसले लेना सब किसी और पर डालकर सुनाना जीवन के याद करने के सफ़र को और मिठा बना देता है।

आज उसी सफ़र पर उतरने का दिन था।  

पिंकी 

तनहा सी लाइब्रेरी

कुछ कहने की कोशिश में उस दिन आधा वक्त गुज़ार दिया था लेकिन पता था कि सवाल निहत्थे ही लौट जाएंगे, इसलिए खामोश रही। पुरानी फटी जिल्द वाली किताबों के ढेर में से उठाकर एक उन्होंने मुझे भी दे दी, फिर रजिस्टर के पन्ने पर मेरा नाम लिखा और कहा, ‘दो हफ्ते बाद लौटा देना।’ उसके बाद वो उचकी हुई पलकें वापस चश्मे की तरफ़ झुक गई और सुस्त अलमारियों में रखी उन गुमसुम सी किताबों पर मेरी नज़र घूम गई, जो शीशे के उस पास से झाँकती हुई ऐसी लग रही थी मानो कार के बंद शीशों में कैद एक चेहरा, जो अपनी आवाज़ होते हुए भी बाहर वाले को सुनाई नहीं देता। अलमारी से नज़र फिसली तो हाथ में किताब को लिए मैं उस कमरे से बाहर चली आई जिसे स्कूल की लाइब्रेरी कहते हैं। बाहर चौखट में लगी जूतों की कतार में से अपने जूते पहचानने लगी। जूते पहनने के लिए झुकी तो वो मरियल सी किताब हाथ से छूटकर नीचे गिर गई। बस तभी उसके चेहरे पर नज़र पड़ी थी। किताब का नाम था ‘अंतरिक्श की सैर।’ काले बैकग्राउंड वाले उसके गत्ते पर पृथ्वी, चाँद और न जाने कितने ही उपग्रह बने हुए थे। उस वक्त आकाशगंगा में जाने का मन नहीं था। बस फिर क्या था क्लास में जाते ही उसे बस्ते की जेब के हवाले कर दिया।

दो हफ्ते तक मानो वो किताब उस जेब में एक नए अंतरिक्श की सैर करती रही और ठीक दो हफ्ते बाद अपने ठिकाने पर पहुँच गई यानी मैडम के पास, उनकी उसी अलमारी में। वो दिन था जब मैंने लाइब्रेरी का एक नया मतलब जाना था। एक ऐसी लाइब्रेरी जहां न तो पाठक अपने लिए किताबें चुनता है, न ही किताबें अपने पाठक चुनती हैं, लेकिन फिर भी कोई है जो इस लेन-देन को लाइब्रेरी की इस पहचान को कायम रखता है। वो याद, वो सवाल आज मन में फिर से ताज़ा हो गए थे क्योंकि संगीता मैडम हिंदी की कविताएँ ढूंढ़ने के लिए काफी बेताब थीं।

‘‘चलो लाइब्रेरी चलकर देखते हैं, शायद कुछ मिल जाए।’’ एक लम्बी गुफ्तगूं के बाद अपनी कुर्सी से उठते हुए उन्होंने कहा और कमरे से बाहर निकली। उनकी थकी हुई आँखों में शायद ही कोई दिलचस्पी थी लेकिन कदमों की तेज़ी देखकर लग रहा था कि वह ठान चुकी हैं, आज तो वहीं से कुछ खोज निकालेंगी। स्कूल के उस अंधेर गलियारे में, मैं उनके पीछे-पीछे चल दी थी। वो अपनी कश्मकश में खोई ज़बान पर कुछ कवियों के नाम दोहराती जा रही थीं। तभी पीछे मुड़कर बोली, ‘‘इस बार कॉम्पीटिशन में तुझे ही फर्स्ट आना है, ठीक है।’’ पता नहीं ये सवाल था या फरमान। पर मैं कहीं ओर थी इसलिए ‘हाँ’ में गर्दन हिला दी। ख्याल ज़ेहन में लगातार अपनी दौड़ लगा रहे थे। लाइब्रेरी को लेकर सालों पहले ही अपनी सोच में एक खाका बुन चुकी थी मैं, लेकिन फिर भी लग रहा था कि शीशे की अलमारियों से झाँकती वो किताबें आज तो खुद को रोक नहीं पाएंगी। आखिर प्रेमचंद, अज्ञेय और यशपाल कब तक अपनी रचनाओं को बोलने से रोकेंगे, हम तो बाहर से ही देख-देखकर हैरान हुए जाते थे।

अरे देख कितनी मोटी है, वो चुटकुलो वाली। उसमें जीवनी है, वो कविताओं से भरी। यूं तो मैडम रोज कहतीं कि किताबें तुम्हारी दोस्त हैं, उनमें ज्ञान का अथाह सागर है लेकिन लाइब्रेरी की किताबों के करीब जाते ही न जाने कहाँ से अनुशासन और सीमाएँ बीच में आ जाती हैं। छोड़ने, बिगाड़ने, उठाने-धरने और पलटने वाले हाथों से परे हमेशा एक तन्हाई में जीती है। वक्त-बेवक्त उनके करीब जाना उन्हें छेड़ना-उठाना वर्जित है, ऐसा स्कूल कहता है लेकिन आज शायद ये पाबंदी टूट जाए। आज तो उन्हें छेड़े बिना काम बनेगा ही नहीं। सोच अचानक थम गई जब आगे चलती हुई मैडम ने कहा, ‘‘बेटा तुम यहीं रूको, मैं लाइब्रेरी की चाबी लेकर आती हूँ!’’ अपना थैला व रजिस्टर मुझे थमा दिया। दरवाज़े पर एक बड़ा सा ताला था जिसे खोल अंदर जाने के लिए दिल बेकरार था। खिड़की से आती हवा के झोंके फर्श की बारीक धूल को उड़ा रहे थे और अंधेर भरी गैलरी में आती थोड़ी बहुत रोशनी के साथ धूल के वो कण खिड़की से आर-पार जा रहे थे मानो उनसे भी ये सन्नाटा बर्दाशत न हो रहा हो। तभी चाबी के गुच्छे में से लाइब्रेरी की चाबी ढूंढ़ते हुए मैडम आ गई और ध्यान से देखने पर एक गोल सिरे वाली छोटी चाबी निकालकर ताले में घुमाने लगी। ताला खट से खुल कर एक तरफ़ झुक गया। मैडम ने दरवाजा खोला और कहा, ‘‘आ जा ढूंढ़ते हैं।’’ दरवाज़ा खुलते ही एक सीलन भरी सोंधी सी खुशबू चारों तरफ़ फैल गई। ठीक वैसी जैसी रद्दी के ढेर में पड़े अखबारों से आती है। अलमारी के शीशों पर जमीं धूल की परत ने मानो खुद को हटाने का इशारा किया और कुर्ते की बाजू, कोहनी तक चढ़ाकर मैडम ने हथेली बचाते हुए उंगलियों की किनारी से दरवाजा खोल दिया। इस आवाज़ से जैसे अंदर कतार में लगी किताबें काँप उठी और थोड़ा सा हिलकर फिर एक-दूसरे पर झुक गई। मैडम ने उन्हें उलट-पुलट कर देखा और रखना शुरू कर दिया। मैं दूर खड़ी इस नज़ारें को देखती रही। दिल चाह रहा था काश मैडम मुझे भी इस काम में लगा लें। अपने चारों तरफ़ की इस दुनिया में न जाने क्यों आज सभी चीज़ें ताज़ातरीन लग रहीं थी।

अचानक मैडम पलटी और बोली, ‘‘अरे तू, ऐसे क्यों खड़ी है। चल मेरी मदद करवा! देख उन अलमारियों में कौन सी किताबें हैं। किसी में कविताएं मिले तो अलग रख लेना।’’ सुनकर मेरे स्थिर कदम अपनी जगह से हिले और मैं सामने अलमारी की तरफ़ दौड़ पड़ी। मेरे बेताबी मेरे मचलते हाथ साफ बयां कर रहे थे। मैंने तेजी से किताबें उठाना और देखना शुरू कर दिया। कुछ मोटी, कुछ पतली, कुछ छोटी, कुछ बड़ी हर तरह की किताबें एक साथ एक भीड़ में कंधे से कंधा मिलाए खड़ी थी। तभी एक मोटी, सफेद किताब पर नज़र पड़ी, नाम था - राश्ट्रीय गीत। अंदर बहुत सारी ओज रस और वीर रस वाली कविताएँ थीं, उन्हें उठाकर साइड में रख दिया। पीछे मैडम भी अपनी धुन में मस्त थी। चुन्नी को कुर्सी पर रख वो सारी अलमारियों के दरवाजे खोलते हुए बोली, ‘‘उफ... ये वीरा मैडम ने क्या कर रखा है! कितनी धूल है।’’ उनकी आवाज़ खरखराने लगी और फिर आँखें मलते हुए पीछे हट वो जोर-जोर से खाँसने लगीं। उसके बाद कुछ पलों के लिए लाइब्रेरी फिर से खामोश हो गई। सब कुछ अपनी रफ्तार से चल रहा था। लाइब्रेरी के साथ किताबों का इतना बड़ा खजाना है आज पहली बार महसूस हो रहा था वरना लाइब्रेरी का पीरियड बस जूते उतारने और उन्हें पहनकर वापस क्लास में आ जाने का समय लगता था। जो शायद क्लास की गिरफ्त से निकलने का एक अच्छा मौक़ा हुआ करता था। सोचते-सोचते हाथ अचानक रुक गए, जब दहलीज़ पर किसी के आने की आहट महसूस हुई। अचानक कोई पीछे से चिल्लाया, ‘ये क्या हो रहा है! कितने बोला अलमारी खोलने को!’’ सुनकर दिल धक सा रह गया। देखा तो पीछे लाइब्रेरी की मैडम वीरा बजाज खड़ी थी। उनकी चढ़ी हुई भौंहे, चेहरे पर गुस्सा था। मैं समझ नहीं पाई की क्या कहूं। सामने खड़ी संगीता मैडम की तरफ़ देखने लगी। वीरा मैडम मुझसे पलटकर संगीता मैडम की तरफ़ घूमी। मैडक के चेहरे पर फीकी सी मुस्कान थी। वीरा मैडम ने उन्हें देखा और कहा, ‘‘ये क्या संगीता, बच्चों को क्यों किताबें छेड़ने देती हो। इनका क्या भरोसा, कुछ गायब हो गया तो जवाब हमें देना पड़ता है। इन अल्फ़ाज़ों को सुनकर मेरी आवाज़ जैसे गायब हो गई, नज़रें फर्श के कालीन पर झुक गई और लगा जैसे अपना कहकर आज स्कूल ने फिर से ज़लील कर दिया है।

मैं अपने आपमें खोई कमरे से बाहर चली आई और क्लास की तरफ़ बढ़ने लगी। सवालों का वो कारवां फिर से अपने सफ़र पर चल पड़ा जो अपने जवाब आज तक नहीं ढूंढ़ पाया था। तभी पीछे से आती कांता मैडम की आवाज़ ने मेरे कदमों को रोक दिया। वो मुस्कुराती हुई मेरे करीब आई और पर्स में से नीली चाबी निकाल मेरे हाथ में थमाते हुए ‘‘लो बेटा मेरा सामान ऊपर स्टाफ रूम में मेरे लॉकर में रख आओ।’’ कहते हुए आगे बढ़ गई। मैं एक अजीब सी दुनिया में खोई वहीं खड़ी उन्हें देखती रही।

टीना