'लोग उसे नहीं जानते जो आपके अन्दर है - लोग तो उसे जानते हैं जो दिखता है।'
बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर देती है ये बात। इसपर बहस करने वाले और लड़ने वाले इतने लोग खड़े हो जाते हैं कि हर कोई इसको फेल करने या कहने वाले को कोई ढंग का जवाब देने के लिये अपने - अपने शब्दों और ज्ञान के हथियार लेकर चले आते हैं। हर किसी के पास इतनी बातें और जवाब होती हैं कि जो इसे निस्तनाबूत कर सकती हैं। लेकिन जितनी भी बार ये युद्ध हुआ है। उस युद्ध में सभी से सिर्फ, "कारण" ही हाथ लगे हैं। 'इस बात का कोई मोल नहीं है' तो कोई कहता है 'ये बात बेमोल है।' स्कूल में पढ़ाया जाता था की अनमोल और बेमोल को समझो तो एक ही मायने बनाते हैं। जैसे - अजय और विजय के साथ है। एक जो कभी हार नहीं सकता और दूसरा जिसे कभी हराया नहीं जा सकता। यहाँ पर भी ये बात कुछ इसी तरह से अभी तक टिकी हुई है। एक जिसका कोई मोल ही नहीं है और दूसरा जिसका कोई मोल नहीं लगा सकता।
इसके साथ टक्कर लेने वाले कई डायलॉग है जो आसपास बहुत नज़र आते हैं। जैसे - "मैं आपकी रग़ - रग़ से वाकिफ हूँ।", “आप अन्दर से कुछ और हो और बाहर से कुछ और।" , "आप जैसे दिखते हो वैसे हो नहीं।"
किसी मे खाली अंदेशा महसूस होता है तो कोई दावे के साथ खुद को पेश करता है। मगर बात में इज़ाफा करने या बात को घटाने के अलावा क्या हो सकता है? वैसे ये खाली इस "बात" की ही बात नहीं हो रही। इसमें अनेकों लोग हैं, हम हैं, दोस्त हैं, हमारे टीचर हैं, वालदेन हैं, हमसफ़र हैं यहाँ तक की सरकार भी है। तो खाली हम बात से नहीं, खुद से बहस करने के लिये इस बात को उठा सकें तो ज़्यादा महत्वपूर्ण और लाभदायक बात हो सकती है।
अब इसका अहसास कैसे कर सकते हैं - कई बार हर किसी को पलट – पलट कर देखना होगा। उसे एक टक लगाये देखना होगा। उसको घण्टों सुनना होगा। उसके शब्दों को अपनी बनाई समाजिक और खुद की रची दुनिया से बाहर जाकर पढ़ना होगा। इससे ज़्यादा और हम क्या कर सकते हैं?
हाथ बढ़ाने से अगर चीज़ हासिल हो जाती तो कितना आसान हो जाता जीना! इस लाइन को गुज़रे हुए कई साल बीत गये हैं। वक़्त भाग गया है खुरदरी जमीन को छोड़कर। अपने ढंग और अपने अन्दाज बन गुजरे हैं यहाँ की हवाओ में। कैसे न कैसे लोग चीज़ों और अन्दाजों में घुस जाते हैं और बना ही लेते हैं कुछ सपने।
वैसे खुश रहने के लिये किसी को ज़्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ता। बस, रात नींद में नये सपने सजाओ, काम पर हुई बेज़्जती का मज़ाक बनाओ और रखलो अपनी जेब में खुशी की तमाम टिकटें। ये वे टिकटें हैं जिनको ब्लैक भी किया जा सकता है। इसके लिये तो लोग जैसे कतार में खड़े हैं बस, पहले हाथ बढ़ाने से डरते हैं। कहीं आसपास में कोई मुज़रिम करार कर देने वाला कर्मचारी न खड़ा हो और फिर न जाने क्या किमत लगाई है आपने इस ब्लैक में देने वाली टिकट की।
बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर देती है ये बात। इसपर बहस करने वाले और लड़ने वाले इतने लोग खड़े हो जाते हैं कि हर कोई इसको फेल करने या कहने वाले को कोई ढंग का जवाब देने के लिये अपने - अपने शब्दों और ज्ञान के हथियार लेकर चले आते हैं। हर किसी के पास इतनी बातें और जवाब होती हैं कि जो इसे निस्तनाबूत कर सकती हैं। लेकिन जितनी भी बार ये युद्ध हुआ है। उस युद्ध में सभी से सिर्फ, "कारण" ही हाथ लगे हैं। 'इस बात का कोई मोल नहीं है' तो कोई कहता है 'ये बात बेमोल है।' स्कूल में पढ़ाया जाता था की अनमोल और बेमोल को समझो तो एक ही मायने बनाते हैं। जैसे - अजय और विजय के साथ है। एक जो कभी हार नहीं सकता और दूसरा जिसे कभी हराया नहीं जा सकता। यहाँ पर भी ये बात कुछ इसी तरह से अभी तक टिकी हुई है। एक जिसका कोई मोल ही नहीं है और दूसरा जिसका कोई मोल नहीं लगा सकता।
इसके साथ टक्कर लेने वाले कई डायलॉग है जो आसपास बहुत नज़र आते हैं। जैसे - "मैं आपकी रग़ - रग़ से वाकिफ हूँ।", “आप अन्दर से कुछ और हो और बाहर से कुछ और।" , "आप जैसे दिखते हो वैसे हो नहीं।"
किसी मे खाली अंदेशा महसूस होता है तो कोई दावे के साथ खुद को पेश करता है। मगर बात में इज़ाफा करने या बात को घटाने के अलावा क्या हो सकता है? वैसे ये खाली इस "बात" की ही बात नहीं हो रही। इसमें अनेकों लोग हैं, हम हैं, दोस्त हैं, हमारे टीचर हैं, वालदेन हैं, हमसफ़र हैं यहाँ तक की सरकार भी है। तो खाली हम बात से नहीं, खुद से बहस करने के लिये इस बात को उठा सकें तो ज़्यादा महत्वपूर्ण और लाभदायक बात हो सकती है।
अब इसका अहसास कैसे कर सकते हैं - कई बार हर किसी को पलट – पलट कर देखना होगा। उसे एक टक लगाये देखना होगा। उसको घण्टों सुनना होगा। उसके शब्दों को अपनी बनाई समाजिक और खुद की रची दुनिया से बाहर जाकर पढ़ना होगा। इससे ज़्यादा और हम क्या कर सकते हैं?
हाथ बढ़ाने से अगर चीज़ हासिल हो जाती तो कितना आसान हो जाता जीना! इस लाइन को गुज़रे हुए कई साल बीत गये हैं। वक़्त भाग गया है खुरदरी जमीन को छोड़कर। अपने ढंग और अपने अन्दाज बन गुजरे हैं यहाँ की हवाओ में। कैसे न कैसे लोग चीज़ों और अन्दाजों में घुस जाते हैं और बना ही लेते हैं कुछ सपने।
वैसे खुश रहने के लिये किसी को ज़्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ता। बस, रात नींद में नये सपने सजाओ, काम पर हुई बेज़्जती का मज़ाक बनाओ और रखलो अपनी जेब में खुशी की तमाम टिकटें। ये वे टिकटें हैं जिनको ब्लैक भी किया जा सकता है। इसके लिये तो लोग जैसे कतार में खड़े हैं बस, पहले हाथ बढ़ाने से डरते हैं। कहीं आसपास में कोई मुज़रिम करार कर देने वाला कर्मचारी न खड़ा हो और फिर न जाने क्या किमत लगाई है आपने इस ब्लैक में देने वाली टिकट की।