Monday 27 April 2015

इमली खेल

घंटी की आवाज़ और बच्चों के हो-हल्ले के साथ आधी छुट्टी होने का पैग़ाम मिल गया। अपने-अपने डेस्क छोड़ फर्राटे से भागते हुए रोज़ की तरह मैंने और मेरी सहेलियों की टोली ने इमली खेलने का ठिकाना घेर लिया। कुछ साथी खेल को देखने के लिए ख़ाली डेस्कों पर जा बैठे, तो कुछ ने खड़े होने के लिए अपने ठिकाने चुन लिए और खेल शुरू हो गया। मेरी टीम की दूसरी बारी थी पर मुझे अपनी बारी आने का बेहद इंतज़ार था। खेल के बीच कई आवाज़ें भी शामिल हुई। कोई आगाह करते हुए कहता, ”भई कपड़ा लगना आउट नहीं हैं तो कोई मेरी तरह ठीक हैकहकर खेल को आगे बढ़ाता। ये मज़ेदार सफ़र शुरू हो चुका था। कुछ पक्के खिलाडि़यों के पास जीतने का जो था तो कुछ की कमज़ोरी उनके चेहरे पर एक घबराहट बनकर छाई हुई थी। फिर भी वो इस खेल का मज़ा लेना चाहती थीं। उसकी टीम के सदस्यों ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ”कोई बात नहीं, हम सब संभाल लेंगे।बारम्बार ये साथी तेजी से भागते हुए आते और हमारे हाथों को पार कर जाते। जब उस टीम की ख़ातिर खिलाड़ी शिल्पा ने रोज़ की तरह आज भी हमारे चार हाथों की ऊँचाई को आसानी से पार कर लिया, तो आसपास खड़े तमाबीनों ने ताली पीटते हुए कहा, ”वाह! शिल्पा तो पक्की खिलाड़ी है।इस वाहवाही भरे दौर के बाद, उस टीम के खिलाड़ी एक बार फिर से छलाँग लगाने को तैयार थे। इस बीच कुछ साथी खिलाडि़यों ने फिसलने या रपटने के डर से जूते उतारकर कोने में रख दिए। फिर दूसरा खिलाड़ी तेजी से भागता हुआ आया। सभी की नज़रें जैसे उसके क़दमों पर टिकी थीं। मुझे लगा कि अभी ये हमारे हाथों को पार कर शायद उस पार खड़ी मिलेगी, पर इमली के नज़दीक पहुँचते ही उसके क़दम थम गए। इस नज़ारे को देख सभी जोर-जोर से हँसने लगे। वह हाँफते हुए बोली, ”मुझे डर लग रहा है, इमली थोड़ी नीचे बनाओ।पर मैं नहीं मानी। मैंने कहा, “हमने इमली बिल्कुल ठीक बनाई है, अब हम इसे नीचा नहीं करेंगे।आखि़रकार मेरी जीत हुई। लेकिन मेरे सब्र का दायरा जैसे टूटता ही जा रहा था। दिल करता कि मैं भी इमली पर से छलाँग लगाऊँ, पर दूसरी टीम के खिलाड़ी आउट होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। खैर, मेरा ये इंतज़ार, कब इस मस्ती भरे माहौल का मज़ा लेने लगा, मुझे पता ही नहीं चला। कभी नाला, तो कभी मंदिर बनाने में भी शायद मैं इस खेल का हिस्सा बनती चली जा रही थी। तभी एक नयी खिलाड़ी, यानि रजनी तेजी से भागती हुई आई और हमारे हाथों के उस पार हो गई। उसके पैर का अंगूठा मेरे हाथ की कलाई को छू गया।

उसकी इस छलाँग के तुरन्त बाद मैंने ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया, ”रजनी आउट हो गई, रजनी आउट हो गईऔर माहौल शोरगुल से भर गया।

हाँ भई, रजनी का अँगूठा छुआ है।लेकिन रजनी और उसकी टीम के खिलाड़ी ऐसा मानने को तैयार नहीं थे।

वे कहते, ”तुम्हारी टीम की बारी नहीं आई इसलिए तुम हमें चीटिंग से हराना चाहती हो।मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, ”ठीक है, मैं खेलूँगी ही नहीं। मेरी टीम भी मेरे साथ थी।पर शिल्पा की टीम को अपनी बारी लेनी थी इसलिए वे मान गए और इस रूठने-मनाने के बाद हम इमली बनाने बैठ गए। अब दूसरी टीम की आखि़री खिलाड़ी यानी शिल्पा ही बची थी। कुछ तमाबीन शिल्पा-शिल्पाचिल्लाकर उसका हौसला बढ़ा रहे थे। उसकी नज़रों में भी एक आत्मविश्वास भरा था। मैं उसको देख रही थी। वह तेजी से भागती हुई आई। जैसे ही उसने छलाँग लगाने के लिए अपना पैर उठाया वह मेरे माथे में आ लगा और मेरा सिर चकरा गया। सभी हँसने लगे। वहाँ खड़े तमाबीनों ने मुझे घेर लिया।

कोई कहता, ”कोई बात नहीं, खेल-खेल में लग जाती हैतो कोई मेरा माथा मसलता। शिल्पा सॉरी, सॉरीकहकर मुझे मना रही थी। दोस्तों की इन बातों से जब मेरा मन बहल गया और याद आया की शिल्पा आउट हो गई है तो मैं सब कुछ भूलकर खेल के मैदान में उतर गई। खेल के इस अंतिम दौर में भी मेरा जो बरक़रार था और मैं ऊँची-ऊँची छलाँग लगाते हुए जीत की तरफ़ बढ़ रही थी। खेल देख रहे लोग जब मुझे वाहवाही देते तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहता। तभी घंटी की आवाज़ सुनाई दी और आधी छुट्टी ख़त्म हो गई। मुझे पूरी तरह न खेलने का अफ़सोस तो हुआ पर कल इस खेल में पहली बारी मेरी होगी- ये सोच मुझे एक तसल्ली हो रही थी।



टीना

Friday 24 April 2015

मैं बना चिब्बियों का खिलाड़ी

गर्मियों का समय था। एक दिन मैं सो रहा था, बिजली जा चुकी थी और पसीना रीर से छूट रहा था। उठकर मुँह हाथ धोया और बाहर पार्क में गया। देखा वहाँ कोई नहीं था। बाहर आया तो सारे साथी चिब्बियाँ ढूँढ़ रहे थे। मैंने पूछा, ”क्या कर रहे हो“? उन्होंने कहा, ”अब चिब्बियों के दिन आ गए है।“ चिब्बियों के दिन मतलब? तो उनमे से एक ने कहा, “गर्मियों में कोल्ड ड्रिंक ज्यादा पीते है लोग, तो उनकी चिब्बियाँ बेकार हो जाती हैं।“

“तो” मैंने पूछा।

वो बोला, “अरे उसी से तो हम खेलेगे।“

कुछ समय तो मेरे समझ में ही नहीं आया की भला चिब्बियों से कोई कैसे खेल सकता है। लेकिन हमारे यहाँ पर कोई भी चीज बेकार नहीं मानी जाती। हर किसी का कोई न कोई खेल हम बना लेते हैं। लेकिन उसके लिए हमारा बच्चा बनना जरूरी होता है। जैसे – सिगरेट की खाली डिब्बियों के ताश बना कर खेलना, इमली की गुठलियों से खेलना, साइकिल का पुराना पड़ा टायर। हर चीज का एक खेल बना कर समय के तेजी से बीतने को हम थोड़ा सा रोक लेते हैं।

तो बस, मैं भी अपने साथियों के साथ चिब्बियाँ ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पहाड़ी पहुँच गया। वहाँ हमने चिब्बियाँ ढूँढ़ी, जेबों में भरी और चल दिए पार्क की तरफ़। पार्क में पहुँचते ही झट से चिब्बियाँ ठोंकी, पोल (गड्ढा ) खोदी और उसकी कुछ दूरी पर दो लाइनें खींच दी, चलने-तकने की और शुरू किया खेल। हम चार साथी थे - कुलदीप, सौरभ, रोहित। ये हमने तका ( अपने – अपने नंबर के लिए )  और मैं दूत ( दूसरा नंबर ) बन गया और कुल्दीप मोल ( पहला नंबर ) वैसे हम चार-चार खेल रहे थे। कुल्दीप की तीन आ गई और तीन का डंड होता है। हमने उससे एक भरवाई, अब 17 चिब्बियाँ हो गई। मैंने चली तो मेरी बारह पोल में आ गई चिब्बियाँ तभी वो भी मैंने मारकर जीत ली। पार्क में मैं सबसे अच्छा खेला और सबसे जीता। बाहर से पन्नी लाया और सारी चिब्बियाँ भरी और घर चला गया। वो सारी चिब्बियाँ मैं अपने घरवालों से छिपाकर रखता था। एक दिन मेरी बड़ी बहन ने चिब्बियाँ देख ली और घर के बाहर वाले गटर में फेंक दी। उस दिन मेरा चेहरा गुस्से और मायूसी से भरा हुआ था। इतनी मेहनत से मैंने ये चिब्बियाँ जीती और मेरी बहन ने फेंक दी। अब किसी को खेलता देखता हूँ तो वो दिन याद आ जाते है। आज जब भी वो खेल खेलना चाहता हूँ। लेकिन चिब्बियाँ ढूँढ़ने का मन भी नहीं करता । बच्चे दे देते है उन्हें लगता है कि ये अपना हानी (साथी) बना लेगा इसके पास अभी तक चिब्बियाँ है। इस खेल को छोड़ने का मन नहीं करता।



अनिकेत

Thursday 23 April 2015

इलास्टिक के खेल

घर की चौखट पर बैठकर, गाल पर हाथ धर, मैं निहारती उन खेलते हुए बच्चों को जो गली में एक अनोखा ही खेल खेलते हुए नज़र आ रहे थे। उन्हें देखकर मेरी निग़ाहें उन्हीं पर टिक गई। दो बच्चे एक इलास्टिक को पैर में फँसाकर खड़े थे और दो जल्दी-जल्दी इलास्टिक को अपने पैरों तले दबाकर यहाँ से वहाँ कूद रहे थे। कभी इलास्टिक को पैर से उठाकर दूसरे छोर ले जाते तो कभी उस पर कूदते। उन्हें इस तरह खेलता देखकर मेरे मन में जिज्ञासा होती उस खेल से रूबरू होने की। थोड़ी देर बाद मैं उनके पास जा खड़ी हुई। जब भी मैं उनसे उस खेल के बारे में पूछने के लिए आगे बढ़ती कोई न कोई चीखता हुआ अपनी बारी लेने लगता और मैं हर बार वहीं खड़ी की खड़ी रह जाती। जब वो खेल को छोड़ सलाह करते तो मैं उनके बीच जाकर पूछती, ”ये कौन सा खेल है? आज तक ये खेल मैंने किसी को खेलते हुए नहीं देखा। क्या तुम मुझे यह खेल खेलना सिखाओगे?“ मेरी बातें सुनकर उनके बीच में से एक लड़की निकलकर आई और कहने लगी, ”हम तुम्हें अपने साथ खिला लेते पर इस वक़्त तो हम घर जा रहे हैं। कल जब हम खेलेंगे तो तुम्हें बुला लेंगे।“ “ठीक है

इतना कह मैं वहाँ से आ गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी। उस रात मैं इस बात को ज़ेहन में दबाकर सो गई। अगले दिन सुबह उठी। स्कूल गई। वहाँ भी यही सोचती रही कि आज मैं एक नया खेल खेलूँगी। यही ज़द्दोजहद पूरे दिन मेरे ज़ेहन में चलती रही। शाम को जब उन्होंने मुझे खेलने के लिए बुलाया तो मैं चुपचाप उनके बीच जा खड़ी हो गई। सभी अपने हाथों को आगे कर हानी पुगते। हमारे दो समूह बने। हमने टॉस किया। मेरी टीम बाजी देने लगी। मेरे साथी इलास्टिक को पैर में फँसा खड़े हो गए और मुझसे कहा, ”तुम इस सामने वाली सीढ़ी पर बैठकर इस खेल को सीख लो।मैं वहाँ बैठकर उन्हें खेलता हुआ देखने लगी पर मुझे कुछ समझ में आ रहा था। जब मेरी बारी आई तो मेरे दोनों हानी इलास्टिक पर कूदते हुए आगे चले गए लेकिन मेरे पैर तो इलास्टिक पर कूदने के लिए उठ ही नहीं रहे थे। हिम्मत करके मैं अपने पैरों को उठाका इलास्टिक पर कूदी। एक पैर इलास्टिक पर और एक पैर ज़मीन पर टिक गये और मैं आउट हो गई। मैं कई बार इसी तरह आउट होती रही। धीरे-धीरे मुझे खेलना आ गया। आज भी जब मैं इलास्टिक खेलती हूँ और कोई मुझसे उस खेल के बारे में पूछता है तो मेरी निग़ाहों के सामने उस दिन का मंज़र आ जाता है।



नेहा श्रीवास्तव

मैं बना ड्राइवर

चार-पाँच साल की उम्र में अपने हमजोलियों को टायर को छड़ी से पीटते हुए देखा करता था। लेकिन कभी उस जगह से दूर नहीं जा सकता था जहां पर मुझे रोज सुबह से ही बैठा दिया जाता था। मेरे आसपास में सभी होते थे। बडे आदमी, औरतें, लड़कियां, लड़के और बच्चे भी मगर मैं फिर भी जैसे उन सब में अकेला ही रहता था। सुबह से ही मेरे बराबर बच्चो की भीड़ लग जाती थी। वो पूरी दोपहरी खेलते थे।
 
एक दिन मैंने सोचा कि एक बार मैं भी तो चला कर देखूँ कि टायर को कैसे चलाते हैं। उम्र के साथ टायर को छड़ी से पीटते हुए बड़ा हुआ और टायर इधर-उधर घुमाना सीखा। ग़ली के बच्चों के साथ अक्सर टायर घुमाता। एक दिन मैं और मेरे साथी जे ब्लॉक से लेकर अपनी ग़ली का चक्कर मारकर आ रहे थे कि मेरे भाई ने मुझे देख लिया और मेरे टायर को मुझसे काफी दूर एक नाली में फेंक दिया। मेरा मन बहुत उदास हो गया। मेरा भाई मुझे घर लेकर आया और मुझे बहुत मारा। मारते-मारते कहा, दोबारा टायर चलाता दिखा तो हाथ-पैर तोड़ दूँगा।“ और मुझे फिर से उसी दुकान पर लाकर बैठा दिया। मैं जब भी साइकिल के टायर को देखता तो जी करता की बस इन्हे लेकर दूर कहीं भाग जाऊ। मगर नहीं जा सकता था। जब मेरी पिटाई हुई तो उसी समय मैंने सोचा कि अगर फिर मैं साइकिल टायर से खेलूँगा तो मार पड़ेगी और दोस्त मज़ाक उड़ाएँगे।
 
मैं अपनी छत पर गया और देखा कि एक नया टायर और उसके पास छड़ी पड़ी है। टायर उठाया और छत पर घुमाने लगा। लेकिन टायर के लिए छत छोटी थी। वह दीवार पर टकराकर गिर जाता। मैं छुप-छुप कर टायर चलाता और जब जी भर जाता तो उसे फिर से छत पर फेंक देता। 

अगले दिन फिर से उतार कर इस नायाब खेल का मज़ा लेता।


कार्तिक



Wednesday 22 April 2015

बचपन और उसके खेल

गिट्टे जैसे खेल को सीखने और खेलने की तमन्ना तो मुझे शुरू से हो रही थी। जब गर्मी की छुट्टियों में लोग अपने घरों के सामने बैठ गिट्टे खेलते तो बड़ा मन करता उनके साथ खेलने का। एक दिन अपने इसी शौक को लिए मैं भी ग़ली के बच्चों के साथ चल दी गिट्टियाँ ढूँढ़ने। पाँच गिट्टियाँ लाकर अकेले ही शुरू कर दिया गिट्टियाँ उछालना। फर्श पर बिखेर जैसे ही हाथ में कैद गिट्टी को उछालती सभी इधर-उधर हो जातीं और मैं ज़मीन पर पड़ी गिट्टियों में से एक भी नहीं उठा पाती। धीरे-धीरे कोशिश कर उन्हें उठाना सीखा।

फिर कुछ दिनों बाद सहेलियों के साथ टिके खेलना सीखा। उन्होंने साथ टिके खेलना शुरू कर दिया। हम सभी अपनी एक सहेली के चबूतरे पर जाकर टिके खेलते। हर दिन स्कूल से आकर दोपहरी में भी चबूतरे पर अपना डेरा डाल देते। जब वो चबूतरा टूटा तब हमने दूसरे ठिकाने की तला शुरू की और अपनी एक सहेली की बालकनी में जाकर खेलना शुरू कर दिया। उनकी बालकनी में खेलना मुझे पसंद आने लगा क्योंकि वहाँ न आने-जाने वाले परेषान किया करते थे न ही सिकुड़कर बैठना पड़ता था। एक दिन दोपहरी में बालकनी में बैठकर खेल रहे थे, सोनम की मम्मी अंदर कमरे में सो रही थी। गिट्टियों के बजने की आवाज़ सुन उसकी मम्मी अंदर से उठकर आईं और गुस्से भरी आवाज़ में कहा, जब देखो गिट्टियाँ ही उछालती रहती हो कोई काम नहीं मिलता तुम्हें स्कूल का।, सभी सहेलियाँ डांट सुनकर शांत हो गई लेकिन वो अपनी मम्मी की डाँट को अनसुना कर अपने खेल में मगन रही। तभी उन्होंने सभी टिको को अपने हाथ में दबोचकर पार्क की और फेंक दिया। सभी सहेलियाँ वहाँ से उठकर चल दी और अगले दिन फिर नयी टिको ढूँढ़कर ग़ली के बाहर बनी बंद दुकान के चबूतरे पर खेलने का ठिकाना बना लिया।

हम वहाँ रोज खेला करते थे। जैसे हम सहेलियों के मिलने का कारण वही बन गया था। काश के गुज़रा वक्त एक बार फिर से लौट आता। काश के हमारी जिंदगी में रिवाइंड बटन होता .


गुड्डो


Tuesday 21 April 2015

जश्न से भरी रात

आंखो पर पड़ता चौंधा और चारों तरफ लहराती रंग-बिरंगी लाल, हरी, पीली लाईटें जो चकाचक साईनिंग मारते लहरिया पर्दे की घूंघट की आड़ से तांका - झांकी कर रही थीकभी लाल रंग की बदलती लाईटें चेहरे पर अपनी चमक छोड़ जाती, तो कभी हरे रंग की पड़ती रोशनी हर तरफ के नजारे को अपने में रंगती हुई गुज़र जाती। इसी तरह पल-पल बुझ-बुझाती ये लाईटें जिनकी बदलती रोशनी सभी को डीजे की ओर खींचे चली जा रही थी। हर आते कदम इस तरह डीजे की ओर बढ़ने लगे थे कि मानो किसी के जन्मदिन में नहीं बल्कि डान्स के जुनून को साथ लिए कोई शोह दिखाने आए हैं। किसी की इस्टोन से जड़ी कंधे से सरकती साड़ी का पल्लू बारम्बार  खिसकते हुए डीजे पर लहरा रहा था तो कई तो नाचने में इस कदर मशरुफ हो चुके थे कि उन्हें तो अपने खिसकते कपड़ों का ही ख्याल न था, ‘‘ ये कुडि़यो का नशा प्यारे नशा सबसे नशीला है जिसे देखो वहीं यहाँ हुस्न की बारिश में गिला है, ये सबके नाम पर करते सभी हमराज लीला है मैं करू तो शाला करेक्टर ढीला है, मै करुं तो शाला करेक्टर ढीला हैं”
 
जोरो से कानो में गूँजते “रेडी” के ये गाने जो सभी को खुदके नशे में डुबोते जा रहे थे खाने से हटती भीड़ बस डीजे की ओर सिमटने लगी थी। टैन्ट ऐलोजिन की रोशनी से इस तरह जगमगा रहा था कि उसकी चकाचोंध हर तरफ अपना पहरा जमा रही थी। पूरे माहौल की सुगबुगाहट को बड़ाती तरह-तरह के खानो की महक जो हर तरफ बहकती ही जा रही थी। जहां एक तरफ गर्मा-गर्म रिफाइन्ड में इठलाती जलेबी की खुशबू सबको अपने बनने का न्यौता दे रही थी तो वहीं दूसरी ओर टन-टन पलटे पर पड़ती करछी की आवाज टैन्ट के कोने में होने का संदेशा दे रही थी। खाना बनाने वाले कारीगर भी हर आने-जाने वालो पर निगाहों की गश्त लगा रहे थे। लाईट की जगमगाती रोशनी में चकमकाते लोगो के कपड़ो के चाँद-तारे और साईनिगं मारने लगे थे  दूर से निहारती मेरी निगाहें टैन्ट में दाखिल होते हर शक्श को इतनी गहराई से देख रही थी कि नजरे उसी इंसान पर अटकी सी रह जाती। रंग-बिरंगी पन्नियों से चिपटे हाथों में थमे सभी के गिफ्ट हर किसी के साथ खुदकी भी मौजूदगी का अहसास करवा रहे थे। खिंचा-तानी, मौज-मस्ती सभी कुछ डीजे पर इस्टाट हो चुका था ‘‘ऐ आ जाना, चल शर्म किस बात की, अरे अम्मा थोड़ी साइड तो हो, जट यम ला पगला दीवाना, ओ रब्बा इतनी सी बात न जाना’’ ये तरह-तरह के चलते गाने जिनके शुरु होते के साथ ही सभी में बारम्बार एक जोश सा भर आता और फिर इसके चलते के साथ सब शुरु हो जाते डीजे को घेरती लोगों की तदाद घटने की बजाए बल्कि और बड़ती जा रही थी। नाचने का जुनून मानो सबके सिर पर चढ़ कर बोल रहा था। जैसे ही डीजे से कोई भी नया गाना निकलता तभी मेरी बेचैनी शुरु हो जाती कौन नाच रहा होगा? चल न छोड़ ये यहीं पर शुरु हो यहीं की यहीं खत्म हो जाती टैन्ट के बीच में पसरी गोल टेबल पर बिछे फूलो वाले पेपर के उपर सजा हुआ। निगाहों का आर्कषण बनता केक जिसकी छठी मंजिल बड़े अराम से उन मौज़ू500 लोगों को खुद मे बसाने के लिए बिल्कुल तैयार थी। ऊपर ही ऊपर मलाई की तरह चमकती सफेद क्रीम जिसने लाल रंग से खुद को वंश के रुप में रंग रंगा था। वंश जिसका आज जन्मदिन था वो ज्यादा बड़ा नही शायद एक साल का हुआ था। जो कभी एक हाथ से दूसरे हाथ तो कभी दूसरे से तीसरे हाथ तक पहुंचता हुआ लोगों की गोदी में झूल रहा था जैसे ही कोई दूसरा उसे गोदी में उठाता तभी वह उसे एक अजीब से चिड़-चिडे भाव के साथ देखता हुआ पहुँच जाता। उसका रोजाना खिलखिलाने वाला चेहरा आज इतनी भीड़ को देख एक चिड़-चिड़ा सा भाव उत्पन्न कर रहा था।