Monday 24 August 2015

रब, सौरव

हर सुबह के शुरूआत जैसे एक नए अंदाज़ के साथ होती कभी पापा के गुर्राते चेहरे के साथ तो कभी सूरज की चमक के साथ। इसी तरह हर दिन एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता, कुछ पता ही नहीं चलता। हर रोज़ की तरह आज भी जब कदम चारपाई से उतरकर उस सुनहरी मिट्टी पर टिके तो जैसे पलभर में ही मेरी आँखें खुल गई। मैंने अंगड़ाई ली और चारों तरफ़ आसमान की सफेद चादर को निहारते हुए नज़र सामने सड़क पर घुमाई जहाँ से गुज़रते कई लोग जिन्हें देख अहसास हुआ कि कुछ अभी ठीक से सुबह हुई नहीं है। सड़क के कोने पर फेन, पापे वाले अंकल भी खड़े थे जो रोज़ाना छः बज से पहले ही हमारी गली में आ जाते है। पूरी सड़क पर लोगों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। मैं उठी और अंदर वाले कमरे में जा ही रही थी कि मेरी नज़र जा टिकी पार्क के नुक्कड़ पर, हमारे रिक्शे पर सोते हुए अपने मुँह को उधाये एक छोटे से बच्चे पर जो इतने कोहरे के बीच भी रिक्शे पर एक पतला सा पर्दा ओढ़कर सो रहा था। जिसे इस अंधेरे का कोई भी डर नहीं और न कोई एहसास वो तो जैसे गहरी नींद में पड़ा था जिसे देखते ही मेरे मन में कई सवाल उमड़ने शुरु हो गया . अरे ये कौन है? यही क्यों लेटा है? कहाँ से आया?

क्या इसे डर नहीं लग रहा, अपने आपसे ढेरों सवालों कर जब मुझे एक पल की राहत मिली, लगा कहीं ये सामने वाली भाभी का बेटा तो नहीं। मैंने खुद से ही मना करते हुए कहा, नहीं-नहीं वो यहाँ क्या करेगा। अपने आपमें डूबी मैं कई सवाल करती और खुद ही उनका जवाब खोज निकालती। तभी अंदर वाले घर से आती कुछ आवाज़ों ने मुझे चैकन्ना कर दिया। बाहर एक लड़का सो रहा है, पता नहीं कौन है? जब ध्यान से सुना तो पता चला कि दीदी भी पापा से उसी लड़के के बारे में बात कर रही थी। पापा चैंकते हुए बोले, ‘कौन? अपने रिक्शे पर। पापा जैसे यकीन ही नहीं कर पा रहे थे तभी मैंने दीदी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘दीदी ठीक कह रही है, पापा।सुनते ही पापा ने अपनी जेब से एक छोटा सा टॉर्च निकाला जो एक महीने से पापा की जेब में है। बेशक उसकी कीमत पाँच रुपये की है पर उसकी रोशनी इतनी है कि कितना भी घना अंधेरा हो उसे चीरते हुए रोशनी उभार देता है। उसी टॉर्च को जलाते हुए पापा ने हमें दिया और कहा, ‘जाओ देखकर आओ कौन है?’

हम टॉर्च को थामे अंधेरे के बीच उस नन्ही सी जान को देखने चल दिए। जब टॉर्च जलाकर देखा तो वो सुजल नहीं कोई आठ-नौ साल का लड़का था जो अपनी नन्हीं सी आँखों को बंद करे, नाक को सिकोड़े, होंठों को पिचकाए, गालों को फूला गहरी नींद में सो रहा था। हमने फिर से पापा को उसकी खबर दी। अब तो हमें सभी के उठने का इंतज़ार था। मेरे अंदर तो एक ही खलबली मची हुई थी कि आखिर ये कौन है? कहाँ से आया है? मेरे इन सवालों का जवाब, कहीं भी नहीं मिल पा रहा था। अपने इस जवाब को खोजने के लिए मैंने स्कूल की भी छुट्टी कर ली। धीरे-धीरे सूरज भी अपनी रोेशनी को आसमान के चारों तरफ़ फैला चुका था और आसपास के सब लोग भी उठ चुके थे। यहाँ तक की वो बच्चा भी उठकर अपने बिस्तर पर बैठा, आते-जाते लोगों को तांक रहा था। जो भी आता एक जोरदार आवाज़ के साथ कहता, ‘ये कौन है?’ ये कहते ही सभी की निगाहें उसी पर जा थमती।

कुछ ही देर बाद पलक झपकते ही उसे घेरे लोगों का जमघट लग गया। कुछ अपनी कमर पर हाथ रख कहने लगे, ‘अबे कहाँ का है तू?’ तो कुछ बड़े प्यार से उसका नाम पूछ रहे थे। कुछ आपस में बातें कर रहे थे, ‘अरे शीला देखियो, देखने में तो लगता है यहीं कहीं का है पर बताता भी तो नहीं।सभी के बीच मानो धीरे से फुसफुसाहट चल रही थी पर बच्चा जो लोगों की बातों को न सुनते हुए अपने में खोया नज़र आ रहा था लेकिन लोगों को वहीं फुसफुसाहट जैसे अभी भी बरकरार थी। लोगों के बीच कई किस्से उभर रहे थे, अरी आजकल तो बहुत बच्चे खो रहे है। हम तो अपने बच्चों को अकेला नहीं छोड़ते।

सामने वाली शीला आंटी बोली, ‘चलो खो भी गया तो कम से कम घर का पता तो मालूम होना ही चाहिए इतना बड़ा हो गया, घर का पता भी नहीं मालूम। हमारी पांच साल की कल्लो से ही पूछ लो, घर के पते से लेकर पूरे परिवार का नाम तक बता देती है।