Friday 30 January 2015

गली का कोना

आज गली और दिनो से कुछ अलग दिख रही है। गली के कोने को बड़ो के बैठे ने लिए सजाये जाने के अलावा बच्चो के लिए बैठने के लिए भी बनाया गया है। आज जैसे बड़े और बच्चे एक साथ में बैठने लिए तैयार है। किसी के घर से बेंच, किसी के घर से कुर्सियाँ तो किसी के घर से टेबल लाई गई है। सबसे ज्यादा साथ दिये है दुकान वालों ने जो आज अपने सुनने की इच्छा को जैसे खुलकर दिखा रहे है। इस महोल ने सभी को अपनी ओर खींच लिया है। अभी सिर्फ बच्चो ने ही अपनी अपनी जगह चुनी है तो किसी एक बच्चे ने अपनी कॉपी खोली ही है की गली के बड़ों ने भी अपनी जगह को चुन लिय है। कोई अपने घर से लाये पटरे, कोई कुर्सी तो कोई अपनी चौखट पर ही बैठ गया है। बच्चो ने भी सीमेट की बोरी, किसी का चबूतरा, किसी के घर की सीडियों को चुन लिया है। गली का कोना जो चलती सड़क से जुड़ता है वहाँ की आवाज़ों को भी अपने में सोख लिया है।

बैठक के बीच में रखी कुर्सी अभी सुनाने वाले का इंतजार कर रही है और वहाँ पर बैठे लोग भी। बच्चे सभी लोगो को देख रहे है और लोगो हर बच्चे से पूछ रहे है “तू भी सुनाइयगी?” जैसे ही कोई किसी बच्चे से पूछता तो उस बच्चे की माँ बोलती “हाँ, ये भी सुनाइयगी। बच्चे शर्मा रहे है, हंस रहे है, एक दूसरे को देख रहे है। एक औरत बोली, बच्चे बहुत समझदार हो गए है। कैसे चुपचाप बैठे है।“ वहाँ पर एक दुकान वाले भैया बोले, इतने समय से एक दूसरे के साथ में पढ़ रहे है तो एक दूसरे से अच्छे दोस्त हो गए है। इतने में महोल में बैठे बच्चो में एक उठी और उस इंतजार करती कुर्सी पर जाकर बैठ गई।

सभी की नजरे कुर्सी पर बैठी साथी पर टिकी हुई है। लेकिन कुर्सी पर बैठी साथी को किसी की नज़रों से कोई डर नहीं है और नहीं किसी के सवालो से। वो बैठी और अपने बारे में सुनाने लगी। वो लिख कर लाई है। उसने अपना पन्ना खोला और सुनाना शुरू कर दिया।


वहीं गली में से निकलते जाते लोगो का आना जाना रुक गया है। उन्हे भी जैसे मालूम हो गया है की यहाँ पर आज कुछ हो रहा है। जो भी आता बस वहीं बच्चो के पीछे खड़ा हो जाता और सुनाती लड़की की कहानी को सुनने लग जाते। वहीं कुछ ऐसे लोग भी थे जिनके पास रुकने का जरा सा भी वक्त नहीं था, उनकी जल्दी से निकलने की हबड़तबड़ यह अंदाज़ा लगाया जा सकता था। कुर्सी पर बैठी लड़की अपनी कहानी को सुनाये जा रही है। यहाँ पर बैठे लोग बड़ी ही शांति से सुन रहे है। सुनाने वाली साथी की कम तेज होती आवाज़ पर कभी पूरा झुक जाते तो कभी पीछे की ओर हो जा रहे है। उनके सुनने की इच्छा को महसूस किया जा सकता है। सुनने वाली साथी ने जैसे ही अपना पन्ना पलटा तो लोगो का ध्यान सुनाने वाली साथी पर गया। शायद ये देखने के लिए की एक छोटी सी लड़की इतना लंबा भी लिख सकती है। स्कूल के बच्चो की छुट्टी भी हो गई है। अपने बच्चो को स्कूल से ले जाती माए कुछ देर रुककर अपने बच्चे को दिखा रही है। जैसे ही पास से कोई तेज गाड़ी गुजरती तो सुनाने वाला साथी अपनी आवाज़ को तेज कर लेता। अभी सुनाये हुये 5 मिंट ही हुये है की अपने घरो की छजलियों से झाँकती औरते भी दिखने लगी है। हर कोई अपने तरह से इस महोल में शामिल हो रखा है। सभी गौर से सुनने की कोशिश में है।

सुनाने वाली साथी ने अपना सुनाना बंद किया और कुछ देर वहीं कुर्सी पर बैठी रही। सभी सुनते लोगो ने अपने आप ही ताली बजाई। कोई कहने लगा, “ये इसने खुद से लिखा है।“ तो गली का ही कोई कहता, “हाँ, मैंने इन्हे पहले भी सुना है।“ छज्जे से झाँकती एक औरत बोली, “तान्या बहुत अच्छा लिखा है।“ “दुकान वाले भैया ने बोला, “सभी बच्चे लिखते है क्या?”

भी बच्चे पहले तो थोड़ा शरमाये और बोले, “हाँ। स्कूल से बच्चे ले जाती एक औरत बोली, “कितने छोटे बच्चे आते है यहाँ पर? क्योकि मेरा बच्चा भी बहुत अच्छा लिखता है।“ कोने के मकान में रहने वाली एक औरत बोली, “यहीं गली में है। भेज देना।“

सबका ध्यान अपनी ही बातों में खोया हुआ है। दुकान वाले भैया का ध्यान नेहा की ओर गया वो बोले, “बेटा बहुत अच्छा लिखते हो तुम, अपने पापा को भी सुनाते हो क्या?” तान्या ने हँसकर कहा, “पापा तो रोज सुनते है।“  

पीछे से एक आवाज आई – अब किस की बारी है? महोल फिर से तैयार होने लगा।

Thursday 22 January 2015

दादी को ख़त

नमस्ते दादी जी। आप कैसी हो? 

मुझे आपकी बहुत याद आ रही है। आप जल्दी से लौट आओ मुझे आपके हाथ से बनी रोटी और सब्जी की याद आ रही है। आपके हाथ के बने पकोड़े, टिक्की, दही-भल्ले, कचोड़ी और दाल चावल। जब से आप गईं हैं मैं ठीक से खाना भी नहीं खा पाई हूँ। कुछ भी खाने का मन नहीं होता। आप तो जानती ही हैं की घर में सभी अपने अपने काम में लगे रहते हैं। पापा काम में, मम्मी घर में और मैं अकेली रह जाती हूँ। मेरे साथ में कोई बात नहीं करता। मैं जब स्कूल से आती हूँ तो अकेली घर में बैठी रहती हूँ। रात में नींद नहीं आती, खेल भी नहीं पा रही हूँ। बहुत अकेलापन लग रहा है। स्कूल में मेरी एक नई दोस्त बनी है। वो बहुत अच्छी है। पर पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता है। कल उसका जन्मदिन है, मैं जाना चाहती हूँ पर आपको तो पता है पापा जाने नहीं देगे। आप होते तो मैं आपको ले जाती। आपने बिना तो मैं बाहर भी नहीं जा पा रही हूँ। 
 
आप अपनी दवाइयाँ यहाँ ही भूल गई हैं। वो आपके लिए बहुत जरूरी हैं। गाँव से किसी को भेज दीजिये या खुद ही आ जाइए।

पिछली बार तो आप मुझे भी अपने साथ में ले गई थी। मगर इस बार नहीं ले गई। हाँ, मैं जानती हूँ मेरी पढ़ाई के कारण ही ऐसा हुआ है लेकिन अगली बार मैं ज़रूर आपके साथ में चलूँगी। अच्छा तो सुनिए, जब आप गाँव से आए तो मेरे लिए वहाँ की हिन्दी की किताब लेकर ज़रूर आना। जो वहाँ के बच्चे पढ़ते रहते हैं, मैं उस किताब को पढ़ना चाहती हूँ। साथ ही वहाँ के देसी घी के लड्डू, जलेबी भी ज़रूर लेकर आना। पिछली बार जब आप मुझे गाँव लेकर गई थी तो मैंने बहुत खाये थे। भूलना मत। और हाँ, मेरी एक फ्रॉक वहाँ पर छुट गई थी, वो भी लेते आना। भूलना मत दादी।
आप बस जल्दी से आ जाओ, मेरा मन नहीं लग रहा आपके बिना।

आँचल

Wednesday 21 January 2015

तभी मेरी आँख खुल गई



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एक सपना हकीकत सा



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Sunday 18 January 2015

वो लम्हा

रात करीब 12 बजे पसीने से तर मैं उठी और पानी पीकर कल का इंतज़ार करने लगी और सोचने लगी कि कल क्या होगा! अस्पताल की वो पहली झलक मुझे किस तरह बुलाएगी। मेरा ये सवाल क्या होगा और कैसे मुझे सोने ही नहीं देगा तभी मैंने कानों पर तकिया रखा और सो गई। सुबह करीब आठ बजे मम्मी ने चादर खिसका कर जगाया और हाथ में एक गिलास गरमा-गरमा चाय थमाते हुए बोलीं, ‘जल्दी से नाश्ता कर ले और तैयार हो जा।’ मैं फौरन तैयार हो गई और मैं मम्मी के साथ बाहर सड़क पर आ गई। वहां से हमने आॅटो लिया और मेडिकल की ओर रवाना हो गए। पूरे रास्ते ज़हन को टटोलने वाला मेरा ये सवाल कि क्या होगा और कैसे! सोचते हुए मेडिकल पहुंची। वहां की भीड़ देखकर सिर चकराने लगा। मुझे संभालते हुए मम्मी अंदर ले जा रही थी कि तभी मम्मी बोली, थोड़ी सी ढीली हो जा क्या पता ज़्यादा तबीयत खराब देखकर तुझे पहले ले ले।’ मैं सर को हाथों से पकड़ती हुई ‘आकृआ’ कहने लगी। मम्मी ने मुझे पकड़ा और दूसरे गेट से अंदर ले गई। उसके ऊपर लिखा था ‘राजकुमारी अमृताकौर ओ.पी.डी.’। साइड में कतार से कुर्सियां लगी हुई और दूसरी ओर काउन्टर बने हुए है। मन बहुत घबरा रहा था। वहां अजीबो-गरीब लोगों को देखकर। कोई बिना चादर ओढ़े औंधा पड़ा है तो कोई पाइपों में लिपटा पड़ा है। एक व्यक्ति का चेहरा उसके बाल, उसकी आंखों को छू रहे है। उसकी आंखें गहरी कशमकश में है। नाक जो लम्बी है उसमें भी पाइप लगी हुई है। गाल जो अंदर की ओर धंसे हुए है उसका होंठ एक तरफ से मोटा तो दूसरी तरफ़ से पतला है। हाथों में भी वो पाइप लगे हुए है वो पाइप ज़्यादा बड़े नहीं, काफी पतले है।

एक लेडी काउन्टर से पर्ची बनवाते समय उसी शख़्स को देख रही है और कह रही है, भाई साहब जल्दी कर दीजिए।’ वो शख्स काफ़ी देर से स्ट्रेचर पर मुंह खोलकर लेटा हुआ है। मम्मी काउन्टर से पर्ची बनवाकर आगे चल दी। मैं भी उनकी परछाई की तरह उनके पीछे-पीछे चल दी। पूरे अस्पताल में फिनाइल और दवाइयों की गंध मुझे वहां से फौरन भाग जाने को कह रही थी पर मजबूर थी। मम्मी भीड़ को चीरती हुई कह रूम नम्बर 80 ढूंढ़ रही थी। तभी एक नर्स मिली। मम्मी ने बड़े प्यार से उन्हें रोकते हुए पूछा कि रूम नम्बर 80 किस तरफ़ होगा। सुनकर नर्स बोली, ‘क्या रूम नम्बर 80 यानी आॅपरेशन थियेटर’ उस तरफ़ से दायें मुड़ जाना वहीं है आपरेशन सेंटर। ये सुनकर मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई और पैर पीछे खिसकने लगे।

मम्मी ने झट से मेरा हाथ पकड़ा और रूम नम्बर 80 की ओर ले गई। आपरेशन थियेटर के नाम से तो मेरे रोंगटे खड़े हो रहे थे। डर लग रहा था कि कहीं आज ही मेरा आॅपरेशन न कर दे। चलते-चलते हमें रूम नम्बर 80 दिखाई दिया। वो कुछ अंदर को जाकर था। उस तरफ़ अंधेरा था और लाइन से कुर्सियां रखी थी। मम्मी मुझे वहां बैठाकर पर्ची और इंजेक्शन लेकर अंदर गई। मेरी साइड में एक अलमारी रखी है और उसके साइड में एक दरवाज़ा है। उसके नीचे से ठंडी-ठंडी हवा और थोड़ा सा धुंआ मेरे पैरों को छू रहा है। चरर की आवाज़ के साथ दरवाज़ा खुला और मम्मी बाहर निकली। बाहर निकलते ही उन्होंने कहा, चप्पल उतार और अंदर चल। तुझे बुलाया है।’ मम्मी ने फिर जोर लगाकर दरवाज़ा खोला। दरवाज़े के साइड में एक डस्टबिन रखा है उसी के साइड में एक रेक रखी है जिसमें बहुत से बंद डिब्बे रखे है। अंदर घुसते ही एक डाॅक्टरनी मिली। उन्होंने मम्मी को बाहर जाने को कहा। मम्मी बिना कोई सवाल किए चुपचाप बाहर चली गई। अब मुझे अकेली को ही उसके आगे का रास्ता तय करना है। अन्दर जाकर एक बड़ी सी स्क्रीन है और उसके नीचे तीन-चार कम्प्यूटर लाइन से रखे है। कुछ लोग उस पर बैठ कर काम भी कर रहे है। सामने एक काउन्टर सा बना हुआ है जिस पर काॅपी, एक बुक, बहुत सी पर्चियां और बहुत से बंद डिब्बे भी रखे हुए है।

उस डाॅक्टरनी ने मुझे कपड़े चेंज करने को कहा। मुझे एक बड़ा सा गाउन देते हुए कहा जाओ बेटा, इधर चेंज कर लो। मैं हकबकाती हुई अंदर गई। वहां के दोनों दरवाज़ें बंद किए और चेंज करने लगी। उधर साइड में एक गहरी सी स्लिप बनी हुई है और तीन-चार नल जिसमें से पानी की बूंद टप्प-टप्प कर रही है। उसमें बड़े-बड़े तार पड़े है जिनमें खून लगा हुआ है। मैंने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और दूसरे गेट से बाहर गई। सामने एक बड़ा सा मशीनी बेड है और उसके ठीक ऊपर कुछ स्क्रीन व मशीन है। उनमें से टू टू टू करके आवाज़ आ रही है। मैं उस बेड पर जाकर बैठ गई। मेरे सामने बहुत से खानों वाली अलमारी है। उसमें हर रंग के इंजेक्शन रखे हुए हैं। साइड में एक दोटा सा कम्प्यूटर रखा है। वो कम्प्यूटर ऐसा है कि उसमें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा बस काली स्क्रीन पर झर-झर हो रही है।

मैम ने मुझे बेड पर लेटने को कहा। मैं उल्टी होकर लेट गई। मैम के हाथ में एक इंजेक्शन है जिसे लेकर वो कभी इधर तो कभी उधर हो रही हैं। उन्होंने पैरों में चप्पलों के साथ पन्नी भी डाल रखी है और सर पर एक कपड़े की टोपी पहनी हुई है। मैं उलटी लेटी ये सब देख रही हूं। अभी एक डाॅक्टर बाहर से आए और उस डाॅक्टरनी से बोले, ‘लाओ इंजेक्शन! अरे मशीन कहां है। देखो उधर है, जल्दी इधर लेकर आओ।’ उनके माथे पर तोडि़यां इतनी पड़ी हुई है और नाक तो मानो गुस्से से फूली हुई है। साइड में खड़ी डाॅक्टरनी ने पूछा, ‘कोई समस्या सर!’

अरे किरन तुम्हें क्या बताऊं, वो मिश्रा जी ने सारा मूड खराब कर दिया। अरे यार वो मेरे पैसे देकर राजी नहीं है।’

उनकी बात को बीच में ही काटते हुए वो बोली, ‘सर ये पेशेंट है जिसकी बैक में समस्या है।’

वो हाथों में दस्ताने पहनते हुए बोले, ‘अच्छा-अच्छा ये है जिसके बारे में आप कुछ देर पहले मुझे बता रही थीं। अच्छा आप इनकी मम्मी से कह देना कुछ देर पहले आए तो अच्छा रहेगा। उन्होंने मुझ पर एक नीली सी पन्नी की चादर रखी और उस पर एक नीली सी जेल डालकर काली सी मशीन से चैक करने लगे। मेरे सामने एक बड़ा सा शीशा लगा है जिसमें से मैं ये सब देख रही हूं। वो उस झर-झर स्क्रीन पर कुछ तलाश रहे है। मेरे तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा कि क्या हो रहा है। तभी एक नीली सी दवाई जो उस इंजेक्शन में थी उसे पिच्च करके बाहर निकाली और मुझसे कहा, ‘हिलना मत बेटा! थोड़ा सा दर्द होगा।’ मैंने दोनों हाथों से तकिए को पकड़ लिया। मगर आगे से नर्स आई और उसने मेरे दोनों हाथ हटा दिए और ढीला रहने को कहा। उन्होंने जब सुई लगाई तब मैं चीख पड़ी मम्मी आ मम्मी, बहुत दर्द हो रहा है। मम्मी जल्दी से मेरे पास आ जाओ। मेरे उल्टे हाथ में बहुत दर्द हो रहा था। कुछ भारी-भारी सा भी महसूस हो रहा। कब उन्होंने वो सुई निकाली पता ही नहीं चला मगर आंखों के आंसू ही नहीं रूके। उन्होंने टेप लगाई और मम्मी को बाहर से बुलाया। मम्मी आई और मुझे उठाकर चेंजिग रूम में ले गई। वहां मम्मी ने मेरे कपड़े चेंज किए। मुझे हाथ उठाते हुए काफ़ी दर्द हो रहा था। मम्मी ने जल्दी से कपड़े पहनाए और बाहर ले आई। मैम ने मुझे एक पर्ची पर रिपोर्ट लिखकर दी और अगले महीने की तारीख़ दे दी। दर्द में कराहते हुए मम्मी के साथ आॅटो में बैठकर घर की ओर रवाना हो गए।

अलीशा