Thursday 10 November 2011

आ भी जा....आ भी जा....ए सुबह आ भी जा.....

मैंने धीमें से तिरपाल उठाई, घना अंधेरा देखकर मैं डर गई। ऐसा लगा कि जैसे इस घने अंधेरे में कोई घूम रहा हो। हांलाकि तिरपाल यूहीं की युहीं झुकी हुई थी जैसे मैं रोज़ उसे देखती थी। बम्बुओं से बंधी हुई। रेलिंग से जकड़ी हुई। और किनारों से खुली।

वो अंधेरा कुछ ऐसा था कि मैं सकपका सी गई। मैंने मिचमिचाती आँखों से चारों ओर नज़रे दौड़ाई पर हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा कोहरे की तरह चमक रहा था। मेरे और अंधेरे के बीच कोई भी तीसरा दिखाई नही पड़ रहा था। घर परिवार से लेकर महौल्ले तक के सभी लोग घोड़े बेच कर सो रहे थे। हर तरफ मटकती मेरी निगाहें अंधेरे भरे इस मंज़र को निहार रही थी। जिस में पल-पल किसी के आने की आहट मुझे महसूस हो रही थी। कभी छम्म-छम्म तो कभी खन्न-खन्न या कभी किसी के पीछे से आने का भय। ये तरह-तरह के मन में उठते डर मुझे अंधविश्वास की दुनिया में ढकेलते जा रहे थे। तकिए पर सिर लगाए लेटी मैं परिवार के बीच होते हुए भी आज बहुत अकेली थी।

पूरा पार्क अंधेरे की लपटों में इस तरह सिमटा हुआ था कि गली में जलते बल्ब की रौशनी भी उसके आगे फीकी पड़ चुकी थी। हर तरफ बुरी तरह से सन्नाटा छाया हुआ था। यहाँ तक की रोज़ाना पार्क में मंडराने वाले कुत्ते भी न जाने आज कौन सी दिहाड़ी पर गए हुए थे। बस पूरी गली से लेकर पूरे पार्क तक कोई दिखाई पड़ रहा था तो सिर्फ मेरा परिवार। वो भी पार्क के कोने में अपना आसरा बनाए लकड़ी की बिछी चार टेबलों पर फैला हुआ एक तरह से डैड बॉडी ही था।

जैसे ही पेड़ का कोई पत्ता भी हिलता तभी मै धक सी रह जाती ऐसा लगता कि मानो कोई दबे कदमों से मेरे पास आता जा रहा है ऐसा अहसास होने पर मेरी गर्दन नज़रो के साथ-साथ दाएँ-बाएँ उपर-नीचे हर दिशा में घूम जाती। समझ नही आ रहा था कि मै इस तन्हाई भरी रात को कैसे गुजारुं?

आँखों में नींद नही आ रही थी पता नही इस अंधेरी रात में कौन-कौन से किस्से मेरी आँखों के सामने उभर आए थे। वो भी इतने डरावने की जिनके बारे में सोचते हुए भी शरीर में झुरझुरी सी उठने लगी थी। ऐसा लग रहा था कि कहीं वो मेरे सामने ही न आ जाए? एक से बढ़कर एक, जिन्हें पहले कभी क्लास में दोस्तो के बीच बैठ कर एक गोल दायरा बनाकर हम सभी बड़े मज़े से ठहाका
लगा कर सुना करते थे। पर अब वही मेरा जीना हराम कर रहे थे। इधर-उधर अपने ध्यान को भटकाते हुए मैं उन्हें भूलाना चाहा रही थी पर तब भी वो बारम्बार किसी फ्रेम की तरह मेरी आँखों के आगे आते जा रहे थे।

दिल में उभरने वाला हर एक अहसास दिल को दहला-देने वाला था जी तो कर रहा था कि पापा को ही झंझोड़ दूँ, पर क्या कहूँगीं? ये सोचकर मैं शांत हो जाती।

परिवार के हर शख्स को मैं बड़ी उम्मीद के साथ देख रही थी कि कहीं कोई जाग जाए। पर सबके खर्राटे ही कानों से टकरा रहे थे। जो डर को और बड़ा देने वाले थे यहाँ तक की किसी का साथ मिल जाने का लालच लिए नज़रें सिर्फ परिवार पर ही नही बल्कि सामने की उस सड़क पर भी टिकी थीं जहाँ से मैं किसी आते-जाते राहगीर को ही अपना हौंसला बना सकूँ। पर आज कोई राहगीर भी तो नही गुज़र रहा था। रात से ज्यादा अब सुबह अच्छी लगने लगी थी। जिसका मुझे अब बेसब्री से इंतज़ार था।

आरती
 

Monday 7 November 2011

बचपन की कल्पनाओं का शहर



कल्पनाएँ हवाओं मे झूलती हैं, तैरती है, दुनिया के समंदर मे गोते लगाती है, सच और झूठ के बीच मे झूमती हैं।
कल्पनाएँ जो उम्र के बंधनों से होती हैं।

ये शहर किसने बनाया है से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इन मासूम कल्पनाओं में ये शहर कहां से आया है?

यशोदा

Thursday 3 November 2011

सुर्खियों में बटा लीलू


हाल ही में पेपरों के चलते हम सभी दोस्त एक साथ स्कूल जाते थे। पेन्ट की जेब में पैन रख और एक गत्ता पेन्ट की लुप्पी में टांग हम सभी दोस्त टशन से निकलते। क्लास में भी एक साथ बैठते। पूरी क्लास में मैं, अतुल, लीलू और विक्की सबसे शरारती हैं। जब चाहा किसी के पास बैठ उस पर कई तरह की छाप मारते और उन्हें किलसा देते। हमें अगर कहीं चॉक पड़ी मिलती तो हम सभी ब्लैक बॉर्ड, दिवारों पर अपना-अपना नाम लिख देते।


एक बार हम सभी दोस्त काफी देर से पहुंचे। अफरा-तफरी में कहीं और नज़रें घुमाए बिना पेपर की सीट पर निगाहें गड़ाये बैठे रहे। पैन चलता रहा और नज़रें किसी और की सीट पर टिकी रही। पी एन गुप्ता के आने का इंतज़ार अब खत्म हो रहा था वे हमारे समाजिक के सर हैं। अब किसी को फिक्र नही थी उनके आने की क्योंकि पास होने तक के नम्बरों तक का पेपर ज्यादातर सभी साथी कर चुके थे।

हम सभी यारो की टोली बन बैठे सभी को चिड़ाने का जरिया। आज तक की मशहूर फिल्म गदर जिसके डायलॉग मन को भावुक कर देते है मगर हम कहाँ ऐसे दर्शक हैं, जो किसी फिल्म को फिल्म की तरह देखें? उस फिल्म के डायलॉगों को अपनी हॅंसी-ठिठोली में शामिल कर सबको हंसने का मस्त मौका दे रहे थे। उस फिल्म के किरदारों को अपने बाकि दोस्तों को बना उन्हें हंसाने के लिए उन डायलॉगों को अपनी अदा से सबके सामने अभिनय कर रहे थे। क्या पता ये मस्ती हमें दोस्तो कि यादों में हमेशा के लिये कैद कर दे?

देर तक हम यूहीं मज़ाकिया दौर में हंसतें खिलखिलाते रहे उसी समय नज़रे दिवार पर जा भिड़ी और देखा कि बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था 'आई लव ज्योति' सभी ने उसे देखा और पढ़ा और आगे बढ़ गए। पर मेरा दोस्त लीलू तो जैसे चौंक ही गया। उसे ऐसा देख सभी उसकी मज़ाक उड़ाने लगे। वह कसमें खाने लगा। "माँ कसम मैनें नहीं लिखा" उसके चेहरे से पसीने छूट रहे थे। बस चन्द सैकेन्ड बचे थे वो रोने ही वाला था। कहीं सर न देख लें। यही सोच मैं उठा और कागज़ से उस नाम को पोंछने लगा। हम सभी ने उसे विश्वास दिलाया कि कोई भी सर को नहीं बताएगा। वो थोड़ा शांत तो हुआ मगर उसे हमारे ऊपर भरोसा नही था। हम अपना एक पीरियड छोड़ उसे लेकर बाहर आए और स्कूल के बाहर बनी दिवार पर बैठ कर उस बात को छोड़ उससे पेपरो के बारे में बात करने लगे। कल कौन सा पेपर है? कल तो जल्दी ही आना है इन्हीं बातों के चलते अतुल ने लीलू के कंधे पर हाथ रख कर कहा, 

"भाई कब मिलवाएगा? कहाँ रहती है?”

ये बात सुनकर तो लीलू का गुस्सा मानो इतना भड़क चुका था कि अतुल की तो हवाईया गुल हो गईं। इसी बहस बाजी के दौरान अतुल और लीलू की लड़ाई हो गई। हम सभी इस लड़ाई को हंसी-मज़ाक में ले रहे थे। अगले दिन जब लीलू स्कूल पहुंचा तो क्लास में घुसते ही चौंक गया। चारों तरफ उसकी नज़रें घूम रही थीं।

दिवारों, दरवाज़ों, ब्लैक बॉर्ड पर 'आई लव ज्योति' लिखा था। ये देख तो लीलू की आँखों में खून उतर आया। वह हर जगह अतुल को तलाशने लगा। सभी उस नाम की परछांई को प्यार का नाम देने लगे।

आज सभी टीचरों के डांटने फटकारने का विषय लीलू था। बाकी साथियों के बतियाने का विषय भी यही था। कोई समझ नही पा रहा था कि ये हो क्या रहा है? आज स्कूल कि चर्चा लीलू के साथ शुरू हुई और खत्म भी शायद इसी पर होने वाली थी। हल्ला स्कूल की दिवारों से गुंजता हुआ बाहर की दुनिया तक जा रहा था। 'आई लव ज्योति-आई लव ज्योति'
जिस नाम को सुनने का दुख लीलू को था उस रूह को देखने कि चाहत सभी को थी। आखिर ये ज्योति कौन है?

इन्हीं सवालों का जवाब पाने के लिए लीलू को ढूढा गया। क्लासों में, स्कूल की छतो पर, यहाँ तक की बाथरूम में भी, मगर लीलू नहीं मिला। सबकी तलाश पाँचवे पीरिडय तक आते-आते खत्म होने लगी थी उसके बाद सभी ने अपना रूख अपनी-अपनी क्लासों की तरफ कर लिया। टीचरों के होते हुए भी सभी लीलू को याद कर उसका मज़ाक उड़ा रहे थे। सभी का समय उसी की चर्चा करते हुए हंसी-ठिठोली मे बित रहा था।

लीलू की खबर किसी को नहीं थी। उसका बैग भी क्लास मे उसकी सीट पर पड़ा हुआ था। मैनें बैग उठाकर अपने कन्धे पर टांगा और चल दिया लीलू के घर की तरफ।

अगले दिन जब मैं स्कूल पहुंचा तो देखा गोल दायरा बनाए खड़ी लड़को की भीड़, मेरे कदम तो ठहर नही पाए मैं फटाक से उस भीड़ में शामील हुआ।

ये देखते ही चौक गया की अतुल और लीलू की धूआंधार लड़ाई हो रही थी। सभी उस लड़ाई का लुफ्त उठा रहे थे। चारों तरफ उड़ती मिटटी बस यही गुहार लगा रहीं थी-

"कौन है वो?"
"कहाँ रहती है?"
"हमें नही मिलवाएगा क्या?”

अनिकेत