Monday 24 August 2015

रब, सौरव

हर सुबह के शुरूआत जैसे एक नए अंदाज़ के साथ होती कभी पापा के गुर्राते चेहरे के साथ तो कभी सूरज की चमक के साथ। इसी तरह हर दिन एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता, कुछ पता ही नहीं चलता। हर रोज़ की तरह आज भी जब कदम चारपाई से उतरकर उस सुनहरी मिट्टी पर टिके तो जैसे पलभर में ही मेरी आँखें खुल गई। मैंने अंगड़ाई ली और चारों तरफ़ आसमान की सफेद चादर को निहारते हुए नज़र सामने सड़क पर घुमाई जहाँ से गुज़रते कई लोग जिन्हें देख अहसास हुआ कि कुछ अभी ठीक से सुबह हुई नहीं है। सड़क के कोने पर फेन, पापे वाले अंकल भी खड़े थे जो रोज़ाना छः बज से पहले ही हमारी गली में आ जाते है। पूरी सड़क पर लोगों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। मैं उठी और अंदर वाले कमरे में जा ही रही थी कि मेरी नज़र जा टिकी पार्क के नुक्कड़ पर, हमारे रिक्शे पर सोते हुए अपने मुँह को उधाये एक छोटे से बच्चे पर जो इतने कोहरे के बीच भी रिक्शे पर एक पतला सा पर्दा ओढ़कर सो रहा था। जिसे इस अंधेरे का कोई भी डर नहीं और न कोई एहसास वो तो जैसे गहरी नींद में पड़ा था जिसे देखते ही मेरे मन में कई सवाल उमड़ने शुरु हो गया . अरे ये कौन है? यही क्यों लेटा है? कहाँ से आया?

क्या इसे डर नहीं लग रहा, अपने आपसे ढेरों सवालों कर जब मुझे एक पल की राहत मिली, लगा कहीं ये सामने वाली भाभी का बेटा तो नहीं। मैंने खुद से ही मना करते हुए कहा, नहीं-नहीं वो यहाँ क्या करेगा। अपने आपमें डूबी मैं कई सवाल करती और खुद ही उनका जवाब खोज निकालती। तभी अंदर वाले घर से आती कुछ आवाज़ों ने मुझे चैकन्ना कर दिया। बाहर एक लड़का सो रहा है, पता नहीं कौन है? जब ध्यान से सुना तो पता चला कि दीदी भी पापा से उसी लड़के के बारे में बात कर रही थी। पापा चैंकते हुए बोले, ‘कौन? अपने रिक्शे पर। पापा जैसे यकीन ही नहीं कर पा रहे थे तभी मैंने दीदी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘दीदी ठीक कह रही है, पापा।सुनते ही पापा ने अपनी जेब से एक छोटा सा टॉर्च निकाला जो एक महीने से पापा की जेब में है। बेशक उसकी कीमत पाँच रुपये की है पर उसकी रोशनी इतनी है कि कितना भी घना अंधेरा हो उसे चीरते हुए रोशनी उभार देता है। उसी टॉर्च को जलाते हुए पापा ने हमें दिया और कहा, ‘जाओ देखकर आओ कौन है?’

हम टॉर्च को थामे अंधेरे के बीच उस नन्ही सी जान को देखने चल दिए। जब टॉर्च जलाकर देखा तो वो सुजल नहीं कोई आठ-नौ साल का लड़का था जो अपनी नन्हीं सी आँखों को बंद करे, नाक को सिकोड़े, होंठों को पिचकाए, गालों को फूला गहरी नींद में सो रहा था। हमने फिर से पापा को उसकी खबर दी। अब तो हमें सभी के उठने का इंतज़ार था। मेरे अंदर तो एक ही खलबली मची हुई थी कि आखिर ये कौन है? कहाँ से आया है? मेरे इन सवालों का जवाब, कहीं भी नहीं मिल पा रहा था। अपने इस जवाब को खोजने के लिए मैंने स्कूल की भी छुट्टी कर ली। धीरे-धीरे सूरज भी अपनी रोेशनी को आसमान के चारों तरफ़ फैला चुका था और आसपास के सब लोग भी उठ चुके थे। यहाँ तक की वो बच्चा भी उठकर अपने बिस्तर पर बैठा, आते-जाते लोगों को तांक रहा था। जो भी आता एक जोरदार आवाज़ के साथ कहता, ‘ये कौन है?’ ये कहते ही सभी की निगाहें उसी पर जा थमती।

कुछ ही देर बाद पलक झपकते ही उसे घेरे लोगों का जमघट लग गया। कुछ अपनी कमर पर हाथ रख कहने लगे, ‘अबे कहाँ का है तू?’ तो कुछ बड़े प्यार से उसका नाम पूछ रहे थे। कुछ आपस में बातें कर रहे थे, ‘अरे शीला देखियो, देखने में तो लगता है यहीं कहीं का है पर बताता भी तो नहीं।सभी के बीच मानो धीरे से फुसफुसाहट चल रही थी पर बच्चा जो लोगों की बातों को न सुनते हुए अपने में खोया नज़र आ रहा था लेकिन लोगों को वहीं फुसफुसाहट जैसे अभी भी बरकरार थी। लोगों के बीच कई किस्से उभर रहे थे, अरी आजकल तो बहुत बच्चे खो रहे है। हम तो अपने बच्चों को अकेला नहीं छोड़ते।

सामने वाली शीला आंटी बोली, ‘चलो खो भी गया तो कम से कम घर का पता तो मालूम होना ही चाहिए इतना बड़ा हो गया, घर का पता भी नहीं मालूम। हमारी पांच साल की कल्लो से ही पूछ लो, घर के पते से लेकर पूरे परिवार का नाम तक बता देती है।

Tuesday 21 July 2015

मैं अकेली कहाँ

“मिसिज कांता आपकी चाय” गर्म भाप से पसीजा हुआ गिलास ठक से मेज पर रखते हुए एक आवाज सुनाई पड़ी और उसके बाद मिसिज कांता, अपनी चाय और केवल उनके लिए चलता हुआ पंखा तीनो कमरे मे फिर से अकेले रह गए।

टेबल पर रखी कॉपियों की मीनार शशि कांता मैडम की गर्दन से भी उॅची थी। साइड मे यूटी के तीन-चार बंडल भी रखे थे जो बार-बार उनकी तरफ ऐसे लुढ़क आते थे कि लग रहा था कह रहे हो मैडम जल्दी करो, इन कॉपियों के बाद हमारी बारी है, ‘‘उन्हे पेन को थामकर अपनी कलाई चटकाने तक की फुर्सत नही थी, ऐसे मे शायद बेखबर थी कि बेचारा चाय का गिलास कब से उनकी राह देख रहा है, मानो स्टाफ रूम की हर चीज की तरह वह भी सब्र कर रहा था कि शायद यह खामोशी कुछ देर बाद टूट जाएगी। उस टेबल के चारो ओर लगी कुर्सिया कुछ एक-दूसरे की तरफ मुड़ी कुछ टेढ़ी कुछ अपनी बगल वाली के बिल्कुल करीब तो कुछ टेबल के नीचे घुसी हुई, उस मंजर की याद दिला रही थी जो शायद कुछ देर पहले यहाँ रहा होगा, सामने रखे वो खाली गिलास जिनके तलो मे कुछ चाय अब भी बाकी थी, बता रहे थे कि काम और गपशप के माहौल मे उनकी भी खास भागीदारी रही है लेकिन अब ,अब हर चीज मे एक ठहराव था।

वो अधखुला दरवाज़ा, वो टेबल के नीचे रखी मैंडम की स्लीपर, उनके नीले थैले से झाँकती पानी की बोतल और उनके से लटकता वो चाबी का गुच्छा सब कुछ उनकी तरह, उनके साथ ढला हुआ। जब वो अकेली होती हैं तो उसकी दुनिया एक ऐसा ही रुप ले लेती है जहां ना कोई गुंजाईश होती है, न कोई इंतजार, ना किसी का खालीपन और न ही कोई भराव। वो दिन भी कुछ ऐसा ही था कभी पेन को ज़रा थामकर बाँय हाथ की उंगली से माथे की सिलवटें गिनने लगती, तो कभी एक धीमी मुस्कुराहट के साथ अपने आप से कहते, ‘‘बढिया है इस लड़की ने अच्छा किया है‘‘ मानो उनके हाथ मे थमा पेन, पेन पा होकर इंसाफ का तराजू हो, जहां न्याय के रुप मे कभी किसी को वह शाबाश लिख भेजती तो कभी सीधा गंदा काम लिखकर कॉपी ठक से बंद कर देती, क्योंकि छुपाना तो उन्हें आता नहीं और वो हमेशा कहती हैं जब तक अपनी कमी को अपनाओगे नहीं, तो सुधार की गुंजाइश कहाँ से लाओगे। ये सिलसिला बड़ा लम्बा चलता हैं, कॉपियाँ कम होती जाती हैं पर उनकी चेक करने की गहराई में कोई बदलाव नहीं आता, अगर कुछ बदलता है तो उनके बैठने का अंदाज। कभी पाँव पर पाँव चढ़ा टेबल की तरफ झुक जाती, तो कभी दोनो पैर ऊपर कर सहारा लेकर बैठ जाती।

यूं तो हर कोई उन्हें काम के सिलसिले मे ही पुकारता हैं, पर हर पुकार पर उनका चेहरा खिल उठता हैं और वो पलटकर बड़ी तहज़ीब से पूछती हैं, ‘‘हांजी, कहिए क्या काम है?‘‘   

टीना



Wednesday 8 July 2015

कहानियों से भरी जगह

स्कूल की घंटी बजते ही क्लासों मे हो- हो कर शोर मच जाता और लड़कियां एक के ऊपर एक गिरते पड़ते दरवाजों से घक्के मारते हुए “बालकनी” से धब धब जूतों की आवाज करते हुए ज़ीने से उतर कर पीछे के गेट की तरफ भागती हैं। सब के बीच मे एक होड सी लगी रहती है की कौन सब से आगे जाकर उस मंजिल को छू लेगा।

मैं भी उनका पीछा करती हुई वहाँ पहुच गई। मैंने देखा कि पीछे के गेट के उस तरफ एक महिला जिनकी उम्र 40 से 45 साल की है। तन पर सीधे पल्ले की साडी, सिर ढका हुआ। वह बार - बार सिर के पल्लू को सभालते हुए। सभी की आवाज को सुन, वह चीज उठा कर उस लड़की के हाथ मे पकडा देती जिसने उन्हे पैसे दिये है। वह सभी कि आवाजों को सुन तो रही है पर जो हाथ उनके हाथ मे पैसे थमा देता वह उसी की आवाज को घ्यान से सुनती। यदि समझ नही आती तो वह तेजी से पूछती कि “ये पैसे किसके है? क्या चाहिये?” तभी भीड मे से एक कोई न कोई तेज आवाज आ ही जाती “मेरे है।“ फिर चाहे उन चीज वाली आंटी को किसी का चेहरा दिखे या न दिखे वे आवाज़ को सुनकर उसे चीज जरूर पकड़ा देती। और फिर वह औरो की डिमांड पुरी करने मे लग जाती।

आज भी सभी लडकियां एक दूसरे को घक्का देते अपनी पसन्द की चीज खरीद ने की जुगाड मे लगी हुई है। कुछ लडकियां उस भीड से कुछ दूर खडी अपनी बातों में लगी हुई हैं। तो कुछ को लगता है कि हमारा नम्बर तो आएगा ही नही, चल कहीं और चलते हैं। इस जगह से कुछ ही दूर एक सीढी नूमा चबूतरा बना हुआ हैं। कुछ लडकियां उस चबूतरें पर जाकर बैठ गई हैं और उन्होने अपनी बातों की पोठली खोल ली हैं। जिन्हे अपनी आधी छुट्टी का ये आज़ाद वक्त कैसे बिताना है, वे सभी भली भांति जाती हैं। स्कूल की कुछ ही ऐसी जगहे हैं जहां पर आधी छुट्टी का ये वक्त बिताया जाता हैं। क्लास की परेशान कर देने वाली गर्मी और हर वक्त काम मांगने वाली आवाज़ों से दूर जाकर। ये जगहे जो इस स्कूल की बड़ी क्लास की बड़ी सहेलियों ने चुनी होगी, लेकिन जैसे अब तो हर कोई इसे अपनी समझ कर यहाँ पर कुछ समय के लिए छुप जाता हैं।

आधे घंटे का ये समय अलग अलग क्लास में पढ़ने वाली सहेलियों को एक कर देता हैं। जहां गेट पर पेट भरने के लिए समोसे, चिप्स व मट्ठी खरीदी जा रही है और वहाँ पर अब बाते शुरू है।

Sunday 7 June 2015

मेरी छत और आवाज़ें

पिछली दोपहर मै छत पर खड़ा होकर आसपास की आवाज़े सुन रहा था। मुझे उस समय बहुत अच्छी-अच्छी आवाज़े सुनाई दे रही थी जैसे- फट्र-फट्र की बहुत तेज आवाज़ थी। जिसे मैं समझ ही नहीं पा रहा था की वो किस चीज की है। एक और आवाज़ जो हवाई जहाज़ की थी। कुछ ऐसी झूं-झूं करके लगातार आ रही थी। इन आवाज़ों को सुनने में इसलिए भी मज़ा आ रहा था की ये मेरी समझ से बाहर थीमुझे आवाज़े सुनने में बहुत मजा आ रहा था। उस वक्त समय ग्यारह  बज रहे थे। कड़ी धूप थी, पत्ते लहरा रहे थे। दूर आसमान में उड़ती चील अपने दोस्तों के साथ खेल रही थी। पार्क में सारे बच्चे लट्टू खेल रहे थे, जिसकी आवाज़ झन-झन करती हुई मेरी छत तक आ रही थी। पार्क के कोने में बहुत सारे कबूतर फड़फड़ा रहे थे। सामने एक और पार्क था बिल्कुल सुनसान। लौहे के लगे झूले हवा से हिल रहे थे। मैं उन्ही को देखने मे इतना मगन था। की इतने में मेरे हाथ पर बार-बार एक चीटी मुझे छूकर गुजर रही थी। उसने मेरा ध्यान अपने मे लगा लिया। मैं उसको हाथ पर चलते हुए देखने लगा वह अपनी ही धून मे मेरे हाथ पर पर कि तरफ चड़े ही जा रही थी मानो उसने ठान रखा हुआ था कि आज वो हिमालय की चढाई पूरी कर लेगी। मैं उसी मे खोया हुआ था कि मेरी आंखे जलने लगी। मैंने आंखे उठा कर देखा सामने बहुत सारी लकड़ियों के ठेरे मे कुछ लडको ने आग लगा दी थी। अभी कुछ देर पहले तो यहाँ कुछ नही था। लकड़ियाँ सामने पड़ी थी ऐसे कि मानो जैसे कोई इनमें अभी आग लगाने वाला है। वहीं पर कुछ राजमिस्त्री भी बड़ी लगन से काम कर रहे थे। मिस्त्री पत्थर काटने की मशीन चला रहे थे। मशीन घड़-घड़ करती हुई चल रही थी जो बहुत शोर कर रही थी। अब समय साड़े बारह बज चुके थे जो कि मेरे स्कूल जाने का समय था इसलिए मैं चलने के लिए तैयार हो गया। मेरी छत से मेरा स्कूल दिखाई देता है। मैंने अपने स्कूल की ओर देख ही रहा था की कोई बहुत तेज आवाज़ आई। लगता था की कोई चिल्ला रहा है। मैं कुछ देर तक समझ ही नहीं पाया की ये है कौन? मैं अपनी गली में झाँकने लगा। पर मुझे कोई दिखा नहीं। मेरा दिमाग इसी तेज आवाज़ में खो गया और मेरे कान यहाँ वहाँ की आवाज़ों में खोने लगे। मैं पूरी तरह से पागल से हो गया। की किसे देखू और किसे सुनू। इसी पागलपन में मैं छत से उतर गया।


नीचे आया तो वही आवाज़ और तेज हो गई। देखा तो सामने वाले घर आ रही है। दवाज़ा बंद था मगर आवाज़ इतनी तेज थी की लोग उस घर की तरफ में मुह करके खड़े थे। समझ तो नहीं आ रहा था की क्या मजरा है लेकिन मालूम तो हो ही जायगा क्योकि गली अब पतली हो गई है। 


रवि

Monday 18 May 2015

एक और बिस्तर

रोज की तरह आज भी दोपहर के करीब तीन या चार बज रहे होंगे। सभी गली में बातें करने में जुटे हुये थे। औरते अपनी मंडली में खोई हुई थी और बच्चे स्कूल की थकावट को दूर करने के लिए गली में दौड़ लगा रहे थे। पूरी गली में धूप बिखरी थी। कहीं – कहीं पर ही छाया थी, जिसका सहारा लेकर
औरतें अपनी कहानियाँ बुनने में लगी थी।

इतने में गली के कोने से एक अधेड़ उम्र की औरत भागते हुये दाखिल हुई। उस औरत की रंग-बिरंगी चुन्नी सिर से लेकर गले तक पड़ी हुई थी। वे गली के एक बड़े से चबूतरे पर तीन – चार औरतों के बीच जा बैठी और बोली, “क्या तुमने सुना है? पिछली गली से दो बच्चे गायब हो चुके हैं।“

उस औरत को कोई जानता तो नहीं था। लेकिन वो इस तरह से उनके बीच में बैठी थी की जैसे गली में वो सभी औरतों को जानती थी। बात ही कुछ ऐसी थी की उसके लिए किसी के साथ खास रिश्ता बनाने की कोइ जरूरत नहीं पड़ती।

वो फिर से बोली, “अरे वो ही समोसे वाले के पोते। अरे बड़े दुखी है वो। मैं वहीं से आ रही हूँ।“

सभी सुन रही थी। सभी को जैसे उस औरत की इस बात ने अपने में समा लिया था। उन्ही औरतों के बीच में बैठी एक औरत ने चौंकते हुये कहा, “वहीं जिनका कोने वाला मकान है?

“हाँ, हाँ वही।“ वो हाँ में हाँ मिलते हुये बोली।
उनके साथ वाली एक और औरत अपने पल्लू को आगे और खिसकाते हुये बोली, “उनपर क्या बीत रही होगी? उस माँ का क्या हाल हो रहा होगा?”

बातें दो औरतों के बीच में घूम रही थी मगर उसका असर सभी पर छाया हुआ था। की तभी साथ से अंजली हड़बड़ी में उठी और जोरों से चिल्लाने लगी, “नन्नो ओर नन्नो, कहाँ गई मेरी बच्ची?

अंजली को यहाँ पर सभी जानते है। कई बच्चो का अकेली सहारा अंजली, उनका घर बच्चो से भरा रहता है। उनका घर जैसे अंजान बच्चो के लिए किसी खेलने की जगह से कम नहीं है। ऐसा मैदान जहां पर कोई नहीं आकर खेल सकता है।

साथ वाले घर से निकलती चार या पाँच साल की लड़की ने कहा, “मम्मी में तो अंदर थी, टीवी देख रही थी। अंजली उस लड़की को अपनी गोद में बिठाती हुई बोली, “मेरी लाड़ो घर से बाहर मत निकलियों, कोई तुझे उठा कर ले गया तो मैं क्या करूंगी?” और वो बच्ची भोचक्की सी अपनी माँ को देखने लगी। अंजली ने उस लड़की को अपनी गोद में ही बैठा लिया। औरतों के बीच की बातें थोड़ी धीमी सी पड़ गई लेकिन बंद नहीं हुई थी।

दूसरी औरत उस चुप बैठी अंजली से बोली, “तू घबरा क्यों रही है? कुछ नहीं होगा हमारे बच्चो को, देखते है की कोई कैसे ले जाता है इन्हे।“

अंजली कुछ नहीं बोली, यहाँ पर सभी उसकी इस बेचैनी को जानती थी।
सब खामोश हो गई। कुछ ही देर के बाद में धीरे – धीरे सब कुछ सिमटने लगा। औरतें अपने अपने घरों की ओर लौटने लगी। और बीच में रह गई वो बात जिसने अपनी ही गली और उसमे आते नए लोगो को एक नए तरीके से देखने का नज़रिया दे दिया था।    

गली में एक ज़ोरदार आवाज़ हुई, सभी गली के लोग एक दम से बाहर की ओर आए। देखा की एक बच्चा बहुत जोरों से रो रहा है और यहाँ – वहाँ छुपने की कोशिश कर रहा है। सभी उसकी उस बेचैनी को देख रहे थे। कोई भी उस बच्चे की ओर नहीं जा रहा था। वो बच्चा लगातार रोये जा रहा था। इतने में वो एक घर के चबूतरे पर जाकर लेट गया। कुछ देर के लिए वो शांत हो गया। मगर अब आवाज़े दूसरी तरफ बिखर रही थी।

प्रेस वाले अंकल चिल्लाये, “अरे किसका बच्चा है ये?”
सब्जी वाले भैया, “पता नहीं लगता है किसी और ही गली का है?”
एक औरत ने कहा, “अरे देख तो लो कहीं बेहोश तो नहीं हो गया।“
दूसरी औरत ने बोला, “बेचारा ये तो गरम भी है।“
गली के दादा जी बोले, “देख क्या रही हो उठा तो इसे, यहाँ ले आओ मेरी खाट पर।“
सभी उसे उठा कर वहाँ पर ले गए।

“लगता है कहीं और है ये यहाँ का तो नहीं लगता।“
“ये कहीं छुट तो नहीं गया?, पिछली रात में यहाँ पर बारात आई थी।“
“लग तो यही रहा है।“
“थोड़ी देर रुक जाओ क्या पता कोई इसे ढूँढता हुआ आ जाए।“
“हाँ, हाँ, ऐसे ही करलो।“

वो बच्चा तो जैसे सो चुका था। सभी उसके जागने का इंतजार कर रहे थे और साथ ही उसके ढूँढने आने वाला का भी। लेकिन काफी देर हो चुकी थी। वो लड़का जब नहीं उठा तो उसके मुह पर पानी का छिड़काव किया गया। लेकिन वो नहीं उठा। सभी में एक हड़बड़ी सी उठने लगी। सभी के सभी उसे नजदीक के डाक्टर के पास में ले जाने के लिए भागे।

“चलो, चलो उठाओ, कहीं लड़के को कुछ हो ना जाए?”
“अरे पता तो करो की ये कहीं आसपास का ही तो नहीं है?”

गली के एक दो लड़को को यहाँ वहाँ भेजा गया। गली में सिर्फ औरते रह गई और आदमी उस लड़के को लेकर डॉक्टर के पास में ले गए। उन औरतों के बीच में घुमसुम बाते होने लगी।
कोई कहती, “बताओ किसी के बच्चे को कोई उठा कर ले जाता है और किसी का बच्चा खो जाता है।“
“सही कह रही हो जीजी। दर्द तो दोनों ही सूरतों में होता है।“
“पता नहीं किस का बच्चा है?”
“मैं तो कहती हूँ की पुलिस में दे दो।“
“अरे नहीं वहाँ पर ये और बेचारा पागल हो जायगा”

कुछ ही देर में आदमियों का जत्था उस बच्चे को लेकर लौटा। साथ वो दोनों लड़के भी जो इसका पता लगाने के लिए आसपास में गए हुये थे। किसी को भी इसका नहीं मालूम था। वो समोसे वाले अंकल भी आए थे की कहीं उनका ही तो पोता नहीं है। पर ये उनका भी नहीं था। बच्चा सो रहा था। रात हो चुकी थी। बच्चा दादा जी की खाट पर ही सोया हुआ था। बातें धीमी हो चुकी थी। फैसला हुआ की बच्चे को ढूँढने वाले जब तक यहाँ नहीं आएगे हम इसे कहीं भेजगे।
“पर इसे रखेगा कौन?”
दादा जी ने कहा, “और कौन रखेगा?” मैं रखूँगा, मेरे पास ही सो जायगा।“
सब्ज़ीवाले अंकल बोले, “अरे बच्चा खायगा, कपड़े सब कुछ चाहिए ही।“

कौन रखेगा, कौन रखेगा, का नारा और परेशानी सभी में देखी जा सकती थी। इतने में अंजली गली के अंदर आती हुई दिखाई दी। सभी की आँखों में जैसे खुशी छलक आई थी। जैसे ही अंजली उनके करीब आई तभी दादा जी ने कहा, “बेटा अपने घर में एक बिस्तर और कर दे। ये देख कौन है?”

अंजली उस बच्चे को देखती रही। छ: या सात साल का बच्चा, नंगा और सोया हुआ। वो कुछ नहीं बोली। जो भी करना था वो बाद में होता रहेगा। सबसे पहले वो उसे अपने घर में ले जाने के लिए खड़ी हुई। गली के बीच में खड़े लोगो से जैसे किसी बहुत ही बड़ी परेशानी खत्म हुई थी। दादा जी जाते हुये बोले, “जब तक इसके घर वाले इसे खोजते हुए नहीं आ जाते तब तक इसे रख ले।“


आज दो साल हो चुके है मगर उसे लेने कोई नहीं आया। कई शादियाँ हुई, हादसे हुये लेकिन अंजली के घर का शोर बढ़ता गया है कम नहीं हुआ।   


नंदनी

Monday 27 April 2015

इमली खेल

घंटी की आवाज़ और बच्चों के हो-हल्ले के साथ आधी छुट्टी होने का पैग़ाम मिल गया। अपने-अपने डेस्क छोड़ फर्राटे से भागते हुए रोज़ की तरह मैंने और मेरी सहेलियों की टोली ने इमली खेलने का ठिकाना घेर लिया। कुछ साथी खेल को देखने के लिए ख़ाली डेस्कों पर जा बैठे, तो कुछ ने खड़े होने के लिए अपने ठिकाने चुन लिए और खेल शुरू हो गया। मेरी टीम की दूसरी बारी थी पर मुझे अपनी बारी आने का बेहद इंतज़ार था। खेल के बीच कई आवाज़ें भी शामिल हुई। कोई आगाह करते हुए कहता, ”भई कपड़ा लगना आउट नहीं हैं तो कोई मेरी तरह ठीक हैकहकर खेल को आगे बढ़ाता। ये मज़ेदार सफ़र शुरू हो चुका था। कुछ पक्के खिलाडि़यों के पास जीतने का जो था तो कुछ की कमज़ोरी उनके चेहरे पर एक घबराहट बनकर छाई हुई थी। फिर भी वो इस खेल का मज़ा लेना चाहती थीं। उसकी टीम के सदस्यों ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ”कोई बात नहीं, हम सब संभाल लेंगे।बारम्बार ये साथी तेजी से भागते हुए आते और हमारे हाथों को पार कर जाते। जब उस टीम की ख़ातिर खिलाड़ी शिल्पा ने रोज़ की तरह आज भी हमारे चार हाथों की ऊँचाई को आसानी से पार कर लिया, तो आसपास खड़े तमाबीनों ने ताली पीटते हुए कहा, ”वाह! शिल्पा तो पक्की खिलाड़ी है।इस वाहवाही भरे दौर के बाद, उस टीम के खिलाड़ी एक बार फिर से छलाँग लगाने को तैयार थे। इस बीच कुछ साथी खिलाडि़यों ने फिसलने या रपटने के डर से जूते उतारकर कोने में रख दिए। फिर दूसरा खिलाड़ी तेजी से भागता हुआ आया। सभी की नज़रें जैसे उसके क़दमों पर टिकी थीं। मुझे लगा कि अभी ये हमारे हाथों को पार कर शायद उस पार खड़ी मिलेगी, पर इमली के नज़दीक पहुँचते ही उसके क़दम थम गए। इस नज़ारे को देख सभी जोर-जोर से हँसने लगे। वह हाँफते हुए बोली, ”मुझे डर लग रहा है, इमली थोड़ी नीचे बनाओ।पर मैं नहीं मानी। मैंने कहा, “हमने इमली बिल्कुल ठीक बनाई है, अब हम इसे नीचा नहीं करेंगे।आखि़रकार मेरी जीत हुई। लेकिन मेरे सब्र का दायरा जैसे टूटता ही जा रहा था। दिल करता कि मैं भी इमली पर से छलाँग लगाऊँ, पर दूसरी टीम के खिलाड़ी आउट होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। खैर, मेरा ये इंतज़ार, कब इस मस्ती भरे माहौल का मज़ा लेने लगा, मुझे पता ही नहीं चला। कभी नाला, तो कभी मंदिर बनाने में भी शायद मैं इस खेल का हिस्सा बनती चली जा रही थी। तभी एक नयी खिलाड़ी, यानि रजनी तेजी से भागती हुई आई और हमारे हाथों के उस पार हो गई। उसके पैर का अंगूठा मेरे हाथ की कलाई को छू गया।

उसकी इस छलाँग के तुरन्त बाद मैंने ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया, ”रजनी आउट हो गई, रजनी आउट हो गईऔर माहौल शोरगुल से भर गया।

हाँ भई, रजनी का अँगूठा छुआ है।लेकिन रजनी और उसकी टीम के खिलाड़ी ऐसा मानने को तैयार नहीं थे।

वे कहते, ”तुम्हारी टीम की बारी नहीं आई इसलिए तुम हमें चीटिंग से हराना चाहती हो।मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, ”ठीक है, मैं खेलूँगी ही नहीं। मेरी टीम भी मेरे साथ थी।पर शिल्पा की टीम को अपनी बारी लेनी थी इसलिए वे मान गए और इस रूठने-मनाने के बाद हम इमली बनाने बैठ गए। अब दूसरी टीम की आखि़री खिलाड़ी यानी शिल्पा ही बची थी। कुछ तमाबीन शिल्पा-शिल्पाचिल्लाकर उसका हौसला बढ़ा रहे थे। उसकी नज़रों में भी एक आत्मविश्वास भरा था। मैं उसको देख रही थी। वह तेजी से भागती हुई आई। जैसे ही उसने छलाँग लगाने के लिए अपना पैर उठाया वह मेरे माथे में आ लगा और मेरा सिर चकरा गया। सभी हँसने लगे। वहाँ खड़े तमाबीनों ने मुझे घेर लिया।

कोई कहता, ”कोई बात नहीं, खेल-खेल में लग जाती हैतो कोई मेरा माथा मसलता। शिल्पा सॉरी, सॉरीकहकर मुझे मना रही थी। दोस्तों की इन बातों से जब मेरा मन बहल गया और याद आया की शिल्पा आउट हो गई है तो मैं सब कुछ भूलकर खेल के मैदान में उतर गई। खेल के इस अंतिम दौर में भी मेरा जो बरक़रार था और मैं ऊँची-ऊँची छलाँग लगाते हुए जीत की तरफ़ बढ़ रही थी। खेल देख रहे लोग जब मुझे वाहवाही देते तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहता। तभी घंटी की आवाज़ सुनाई दी और आधी छुट्टी ख़त्म हो गई। मुझे पूरी तरह न खेलने का अफ़सोस तो हुआ पर कल इस खेल में पहली बारी मेरी होगी- ये सोच मुझे एक तसल्ली हो रही थी।



टीना

Friday 24 April 2015

मैं बना चिब्बियों का खिलाड़ी

गर्मियों का समय था। एक दिन मैं सो रहा था, बिजली जा चुकी थी और पसीना रीर से छूट रहा था। उठकर मुँह हाथ धोया और बाहर पार्क में गया। देखा वहाँ कोई नहीं था। बाहर आया तो सारे साथी चिब्बियाँ ढूँढ़ रहे थे। मैंने पूछा, ”क्या कर रहे हो“? उन्होंने कहा, ”अब चिब्बियों के दिन आ गए है।“ चिब्बियों के दिन मतलब? तो उनमे से एक ने कहा, “गर्मियों में कोल्ड ड्रिंक ज्यादा पीते है लोग, तो उनकी चिब्बियाँ बेकार हो जाती हैं।“

“तो” मैंने पूछा।

वो बोला, “अरे उसी से तो हम खेलेगे।“

कुछ समय तो मेरे समझ में ही नहीं आया की भला चिब्बियों से कोई कैसे खेल सकता है। लेकिन हमारे यहाँ पर कोई भी चीज बेकार नहीं मानी जाती। हर किसी का कोई न कोई खेल हम बना लेते हैं। लेकिन उसके लिए हमारा बच्चा बनना जरूरी होता है। जैसे – सिगरेट की खाली डिब्बियों के ताश बना कर खेलना, इमली की गुठलियों से खेलना, साइकिल का पुराना पड़ा टायर। हर चीज का एक खेल बना कर समय के तेजी से बीतने को हम थोड़ा सा रोक लेते हैं।

तो बस, मैं भी अपने साथियों के साथ चिब्बियाँ ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पहाड़ी पहुँच गया। वहाँ हमने चिब्बियाँ ढूँढ़ी, जेबों में भरी और चल दिए पार्क की तरफ़। पार्क में पहुँचते ही झट से चिब्बियाँ ठोंकी, पोल (गड्ढा ) खोदी और उसकी कुछ दूरी पर दो लाइनें खींच दी, चलने-तकने की और शुरू किया खेल। हम चार साथी थे - कुलदीप, सौरभ, रोहित। ये हमने तका ( अपने – अपने नंबर के लिए )  और मैं दूत ( दूसरा नंबर ) बन गया और कुल्दीप मोल ( पहला नंबर ) वैसे हम चार-चार खेल रहे थे। कुल्दीप की तीन आ गई और तीन का डंड होता है। हमने उससे एक भरवाई, अब 17 चिब्बियाँ हो गई। मैंने चली तो मेरी बारह पोल में आ गई चिब्बियाँ तभी वो भी मैंने मारकर जीत ली। पार्क में मैं सबसे अच्छा खेला और सबसे जीता। बाहर से पन्नी लाया और सारी चिब्बियाँ भरी और घर चला गया। वो सारी चिब्बियाँ मैं अपने घरवालों से छिपाकर रखता था। एक दिन मेरी बड़ी बहन ने चिब्बियाँ देख ली और घर के बाहर वाले गटर में फेंक दी। उस दिन मेरा चेहरा गुस्से और मायूसी से भरा हुआ था। इतनी मेहनत से मैंने ये चिब्बियाँ जीती और मेरी बहन ने फेंक दी। अब किसी को खेलता देखता हूँ तो वो दिन याद आ जाते है। आज जब भी वो खेल खेलना चाहता हूँ। लेकिन चिब्बियाँ ढूँढ़ने का मन भी नहीं करता । बच्चे दे देते है उन्हें लगता है कि ये अपना हानी (साथी) बना लेगा इसके पास अभी तक चिब्बियाँ है। इस खेल को छोड़ने का मन नहीं करता।



अनिकेत

Thursday 23 April 2015

इलास्टिक के खेल

घर की चौखट पर बैठकर, गाल पर हाथ धर, मैं निहारती उन खेलते हुए बच्चों को जो गली में एक अनोखा ही खेल खेलते हुए नज़र आ रहे थे। उन्हें देखकर मेरी निग़ाहें उन्हीं पर टिक गई। दो बच्चे एक इलास्टिक को पैर में फँसाकर खड़े थे और दो जल्दी-जल्दी इलास्टिक को अपने पैरों तले दबाकर यहाँ से वहाँ कूद रहे थे। कभी इलास्टिक को पैर से उठाकर दूसरे छोर ले जाते तो कभी उस पर कूदते। उन्हें इस तरह खेलता देखकर मेरे मन में जिज्ञासा होती उस खेल से रूबरू होने की। थोड़ी देर बाद मैं उनके पास जा खड़ी हुई। जब भी मैं उनसे उस खेल के बारे में पूछने के लिए आगे बढ़ती कोई न कोई चीखता हुआ अपनी बारी लेने लगता और मैं हर बार वहीं खड़ी की खड़ी रह जाती। जब वो खेल को छोड़ सलाह करते तो मैं उनके बीच जाकर पूछती, ”ये कौन सा खेल है? आज तक ये खेल मैंने किसी को खेलते हुए नहीं देखा। क्या तुम मुझे यह खेल खेलना सिखाओगे?“ मेरी बातें सुनकर उनके बीच में से एक लड़की निकलकर आई और कहने लगी, ”हम तुम्हें अपने साथ खिला लेते पर इस वक़्त तो हम घर जा रहे हैं। कल जब हम खेलेंगे तो तुम्हें बुला लेंगे।“ “ठीक है

इतना कह मैं वहाँ से आ गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी। उस रात मैं इस बात को ज़ेहन में दबाकर सो गई। अगले दिन सुबह उठी। स्कूल गई। वहाँ भी यही सोचती रही कि आज मैं एक नया खेल खेलूँगी। यही ज़द्दोजहद पूरे दिन मेरे ज़ेहन में चलती रही। शाम को जब उन्होंने मुझे खेलने के लिए बुलाया तो मैं चुपचाप उनके बीच जा खड़ी हो गई। सभी अपने हाथों को आगे कर हानी पुगते। हमारे दो समूह बने। हमने टॉस किया। मेरी टीम बाजी देने लगी। मेरे साथी इलास्टिक को पैर में फँसा खड़े हो गए और मुझसे कहा, ”तुम इस सामने वाली सीढ़ी पर बैठकर इस खेल को सीख लो।मैं वहाँ बैठकर उन्हें खेलता हुआ देखने लगी पर मुझे कुछ समझ में आ रहा था। जब मेरी बारी आई तो मेरे दोनों हानी इलास्टिक पर कूदते हुए आगे चले गए लेकिन मेरे पैर तो इलास्टिक पर कूदने के लिए उठ ही नहीं रहे थे। हिम्मत करके मैं अपने पैरों को उठाका इलास्टिक पर कूदी। एक पैर इलास्टिक पर और एक पैर ज़मीन पर टिक गये और मैं आउट हो गई। मैं कई बार इसी तरह आउट होती रही। धीरे-धीरे मुझे खेलना आ गया। आज भी जब मैं इलास्टिक खेलती हूँ और कोई मुझसे उस खेल के बारे में पूछता है तो मेरी निग़ाहों के सामने उस दिन का मंज़र आ जाता है।



नेहा श्रीवास्तव

मैं बना ड्राइवर

चार-पाँच साल की उम्र में अपने हमजोलियों को टायर को छड़ी से पीटते हुए देखा करता था। लेकिन कभी उस जगह से दूर नहीं जा सकता था जहां पर मुझे रोज सुबह से ही बैठा दिया जाता था। मेरे आसपास में सभी होते थे। बडे आदमी, औरतें, लड़कियां, लड़के और बच्चे भी मगर मैं फिर भी जैसे उन सब में अकेला ही रहता था। सुबह से ही मेरे बराबर बच्चो की भीड़ लग जाती थी। वो पूरी दोपहरी खेलते थे।
 
एक दिन मैंने सोचा कि एक बार मैं भी तो चला कर देखूँ कि टायर को कैसे चलाते हैं। उम्र के साथ टायर को छड़ी से पीटते हुए बड़ा हुआ और टायर इधर-उधर घुमाना सीखा। ग़ली के बच्चों के साथ अक्सर टायर घुमाता। एक दिन मैं और मेरे साथी जे ब्लॉक से लेकर अपनी ग़ली का चक्कर मारकर आ रहे थे कि मेरे भाई ने मुझे देख लिया और मेरे टायर को मुझसे काफी दूर एक नाली में फेंक दिया। मेरा मन बहुत उदास हो गया। मेरा भाई मुझे घर लेकर आया और मुझे बहुत मारा। मारते-मारते कहा, दोबारा टायर चलाता दिखा तो हाथ-पैर तोड़ दूँगा।“ और मुझे फिर से उसी दुकान पर लाकर बैठा दिया। मैं जब भी साइकिल के टायर को देखता तो जी करता की बस इन्हे लेकर दूर कहीं भाग जाऊ। मगर नहीं जा सकता था। जब मेरी पिटाई हुई तो उसी समय मैंने सोचा कि अगर फिर मैं साइकिल टायर से खेलूँगा तो मार पड़ेगी और दोस्त मज़ाक उड़ाएँगे।
 
मैं अपनी छत पर गया और देखा कि एक नया टायर और उसके पास छड़ी पड़ी है। टायर उठाया और छत पर घुमाने लगा। लेकिन टायर के लिए छत छोटी थी। वह दीवार पर टकराकर गिर जाता। मैं छुप-छुप कर टायर चलाता और जब जी भर जाता तो उसे फिर से छत पर फेंक देता। 

अगले दिन फिर से उतार कर इस नायाब खेल का मज़ा लेता।


कार्तिक