हर सुबह के शुरूआत जैसे एक नए अंदाज़ के साथ
होती कभी पापा के गुर्राते चेहरे के साथ तो कभी सूरज की चमक के साथ। इसी तरह हर
दिन एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता, कुछ पता ही नहीं चलता। हर रोज़ की तरह आज भी जब
कदम चारपाई से उतरकर उस सुनहरी मिट्टी पर टिके तो जैसे पलभर में ही मेरी आँखें खुल
गई। मैंने अंगड़ाई ली और चारों तरफ़ आसमान की सफेद चादर को निहारते हुए नज़र सामने
सड़क पर घुमाई जहाँ से गुज़रते कई लोग जिन्हें देख अहसास हुआ कि कुछ अभी ठीक से
सुबह हुई नहीं है। सड़क के कोने पर फेन, पापे वाले अंकल भी खड़े थे जो रोज़ाना छः बज से
पहले ही हमारी गली में आ जाते है। पूरी सड़क पर लोगों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी।
मैं उठी और अंदर वाले कमरे में जा ही रही थी कि मेरी नज़र जा टिकी पार्क के
नुक्कड़ पर, हमारे रिक्शे पर सोते हुए अपने मुँह को उधाये
एक छोटे से बच्चे पर जो इतने कोहरे के बीच भी रिक्शे पर एक पतला सा पर्दा ओढ़कर सो
रहा था। जिसे इस अंधेरे का कोई भी डर नहीं और न कोई एहसास वो तो जैसे गहरी नींद
में पड़ा था जिसे देखते ही मेरे मन में कई सवाल उमड़ने शुरु हो गया . अरे ये कौन
है? यही क्यों लेटा है? कहाँ
से आया?
क्या इसे डर नहीं लग रहा, अपने
आपसे ढेरों सवालों कर जब मुझे एक पल की राहत मिली, लगा कहीं ये सामने वाली भाभी का बेटा
तो नहीं। मैंने खुद से ही मना करते हुए कहा,
नहीं-नहीं वो यहाँ क्या करेगा। अपने
आपमें डूबी मैं कई सवाल करती और खुद ही उनका जवाब खोज निकालती। तभी अंदर वाले घर
से आती कुछ आवाज़ों ने मुझे चैकन्ना कर दिया। बाहर एक लड़का सो रहा है, पता
नहीं कौन है? जब ध्यान से सुना तो पता चला कि दीदी भी पापा
से उसी लड़के के बारे में बात कर रही थी। पापा चैंकते हुए बोले, ‘कौन? अपने
रिक्शे पर। पापा जैसे यकीन ही नहीं कर पा रहे थे तभी मैंने दीदी की हाँ में हाँ
मिलाते हुए कहा, ‘दीदी ठीक कह रही है, पापा।’ सुनते
ही पापा ने अपनी जेब से एक छोटा सा टॉर्च
निकाला जो एक महीने से पापा की जेब में है। बेशक उसकी कीमत पाँच रुपये की है पर
उसकी रोशनी इतनी है कि कितना भी घना अंधेरा हो उसे चीरते हुए रोशनी उभार देता है।
उसी टॉर्च को जलाते हुए पापा ने हमें दिया और कहा, ‘जाओ
देखकर आओ कौन है?’
हम टॉर्च को थामे अंधेरे के बीच उस नन्ही सी जान को
देखने चल दिए। जब टॉर्च जलाकर देखा तो वो सुजल नहीं कोई आठ-नौ साल का
लड़का था जो अपनी नन्हीं सी आँखों को बंद करे,
नाक को सिकोड़े, होंठों
को पिचकाए, गालों को फूला गहरी नींद में सो रहा था। हमने
फिर से पापा को उसकी खबर दी। अब तो हमें सभी के उठने का इंतज़ार था। मेरे अंदर तो
एक ही खलबली मची हुई थी कि आखिर ये कौन है?
कहाँ से आया है? मेरे
इन सवालों का जवाब, कहीं भी नहीं मिल पा रहा था। अपने इस जवाब को
खोजने के लिए मैंने स्कूल की भी छुट्टी कर ली। धीरे-धीरे सूरज भी अपनी रोेशनी को
आसमान के चारों तरफ़ फैला चुका था और आसपास के सब लोग भी उठ चुके थे। यहाँ तक की
वो बच्चा भी उठकर अपने बिस्तर पर बैठा, आते-जाते लोगों को तांक रहा था। जो भी आता एक
जोरदार आवाज़ के साथ कहता, ‘ये कौन है?’
ये कहते ही सभी की निगाहें उसी पर जा
थमती।
कुछ ही देर बाद पलक झपकते ही उसे घेरे लोगों का
जमघट लग गया। कुछ अपनी कमर पर हाथ रख कहने लगे,
‘अबे कहाँ का है तू?’ तो
कुछ बड़े प्यार से उसका नाम पूछ रहे थे। कुछ आपस में बातें कर रहे थे, ‘अरे
शीला देखियो, देखने में तो लगता है यहीं कहीं का है पर बताता
भी तो नहीं।’ सभी के बीच मानो धीरे से फुसफुसाहट चल रही थी
पर बच्चा जो लोगों की बातों को न सुनते हुए अपने में खोया नज़र आ रहा था लेकिन
लोगों को वहीं फुसफुसाहट जैसे अभी भी बरकरार थी। लोगों के बीच कई किस्से उभर रहे
थे, अरी आजकल तो बहुत बच्चे खो रहे है। हम तो अपने
बच्चों को अकेला नहीं छोड़ते।’
सामने वाली शीला आंटी बोली, ‘चलो
खो भी गया तो कम से कम घर का पता तो मालूम होना ही चाहिए इतना बड़ा हो गया, घर
का पता भी नहीं मालूम। हमारी पांच साल की कल्लो से ही पूछ लो, घर
के पते से लेकर पूरे परिवार का नाम तक बता देती है।
सभी जैसे अपनी सोच का दायरा पार करते हुए ढेरों
ख़्यालों में खोए हुए थे। इसी बीच एक ज़ोरदार आवाज़ सुनाई दी और सभी की निगाहें
पीछे जा टिकी। अरे, तुम सब इसे घेर के खड़े हो।’ पीछे
मुड़कर देखा तो कोई और नहीं बल्कि सोनू भइया थे यानी मेरी बहन की नंद के देवर, जो
अपने शहर से हमारे घर पर रहने आये है।
उन्हें रहते हुए चार महीने हो गए, उन्हें
यहीं पर रहना पसंद है। वो कहते है कि उनका वहाँ मन नहीं लगता। अब यहाँ इतने दोस्त
बन गए कि यहाँ से जाने का मन ही नहीं करता। अब तो वो यहाँ पर मेरे पापा के साथ
उनके टैंट हाउस के काम में मदद करवाते है। उस दिन को भी कुछ ऐसी ही बात है वो अपने
हाथों को हिलाते हुए इस लड़के के बारे में बोले, मैं लाया हूँ इसे। इसका नाम सौरव है।
जब मैं संजय कैम्प में रात को एक बजे अपना टैंट खोलने गया तो ये वहीं एक गली में
बैठकर रो रहा था। इसे देखकर मैं सोचने लगा इतनी रात को ये यहाँ क्या कर रहा है? ये
सोच मैं इसके पास गया और मैंने कहा, ओए क्यों रो रहा है? पर
इसके कोई जवाब नहीं दिया ये देख मैंने इसे छोड़ा और अपना टैंट खोलने के बाद मैंने
और लेबरों ने मिलकर सारा सामान रिक्शे पर लादा और घर आ गए। मेरे दिमाग में इसी को
लेकर कशमकश चल रही थी। मैंने सोचा पता नहीं कौन था? वहीं बैठकर क्यों रो रहा था? क्या
पता घरवालों के डाँटने पर रूठकर बैठ गया होगा ये सोच मैंने इसकी यादें टाल दी। हम
दोबारा रिक्शा लेकर दूल्हा-दुल्हन के लिए जयमाला लेने चले गए। वहीं मुझे ये रोता
हुआ मिला पर इस बार इसके पीछे काफी कुत्ते पड़े हुए थे। चारों तरफ़ कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आ रही थी। ये
देख मैंने नीचे ज़मीन पर से दो-चार पत्थर उठाए और तेजी से कुत्ते में दे मारे। इस
बार मैंने इससे कुछ नहीं पूछा और रिक्शे पर बिठाया और अपने साथ घर ले आया। यहाँ
आया तो सभी सो रहे थे। मैं और लेबर इसको लेकर बातचीत करने लगे।
पता नहीं किसका बच्चा हैए तभी राजू बोलाए बेकार
ही इसे ले आए।’
मैंने कहा,
‘पर ऐसे छोड़ भी तो नहीं सकते थे।’ बातचीत
के बीच हमारी रात काली होती जा रही थी। इसी बीच हमने देखा उसकी आँखों में नींद थी
इसलिए मैंने फटाफट रिक्शे पर बिस्तर लगाकर राजू के साथ इसको सुला दिया।
सोनू भइया की बात खत्म होने की देर नहीं हुई की
लोगों का बोलना शुरू हो गया, ‘अरे क्यों बैठे हो पुलिस को फ़ोन लगाओ। ये कोई
ज़रा सी बात नहीं है पुलिस ही इसे निपटा सकती है। पता नहीं कैसा है जो घर का पता
भी नहीं बताता। आजकल के माँ-बाप तो बच्चों को यूँही छोड़ देते है।’
इस तरह के कई ख्याल जिन्हें ज़ेहन से निकालते
हुए मैं इस छोटे से सौरव की ओर बढ़ी। वो चारपाई के कोने में बैठा सभी को अपनी
नन्हीं निगाहों से निहार रहा था। मानो लोगों की बातों से बिल्कुल अंजान था। घर से
कोई इससे कुछ पूछता भी तो कैसे ये तो कुछ बोल ही नहीं रहा था। बातों ही बातों में
दोपहर कब हो गई पता ही नहीं चला।
दीदी सबके लिए खाना भी परोस लाई। दीदी ने सौरव
से खाना खाने को कहा उसकी नज़रें ऊपर की ओर उठी। देखने में तो लग रहा था कि उसने
कल से खाना नहीं खाया हो। दीदी ने उसे एक प्लेट में दाल-चावल डालकर दिए।
वो चारों ओर बस देखे जा रहा था। लग रहा था जैसे
वो कुछ तलाश रहा है। खाने की प्लेट से पहला निवाला खाने में उसे काफी देर लगी।
लेकिन उसके बाद वो भी हमारे साथ खाना खाने लगा।
पूरा दिन सौरव को देखते और लोगों की बातों को
सुनते हुये ही कट गई। आज का दिन जैसे बीतते हुये मालूम ही नहीं पड़ा था। हम तो अपने
अपने काम में जुट गए लेकिन सौरव, जो अकेला ही पत्थर उछालकर लकड़ी से मारते हुए
खेलने लगा। वो अकेले खेलने मे मस्त था।
रात के करीब दस बज रहे थे तभी पापा ने कहा, ‘मधु
जा, आरती, पूजा और सौरव को खाना दे दे, रात
हो रही है।’
अभी ला रही हूँ! कहते हुए दीदी उठीं और हमारे लिए खाना ले आई। खाना
खाते ही मुझे तो नींद आ रही थी। लेकिन अब हमारे घर में जैसे आज एक मेम्बर और जुड़
गया था। उसे बाहर तो सुला नहीं सकते थे। हमारा घर तो पहले से छोटा है। जिसमे हम
घरवालो के भी जगह नहीं हो पाती थी। पर तभी दीदी ने हमारी बड़ी सी बिछी टेबल के
नीचे सौरव का बिस्तर लगाया और उसे सोने को कह दिया। सौरव यहाँ से वहाँ बस देखे ही
जा रहा था और हम सब उसे।
एक दिन आँखें खुली और होंठ अपने आप में बड़बड़ाए, ‘सौरव
कहाँ है?’ एक पल के लिए लगा कहीं मैं ख्वाब तो नहीं देख
रही पर तभी मैंने दीदी को धीरे से दोबारा पूछा,
‘सौरव कहाँ है?’ दीदी
ने कहा, ‘वो टेबल के नीचे सो रहा है।’ आँखें
मसलते हुए मैं उठी और एक बंद व खुली आँख से उसे देखने लगी। वो कम्बल ओढ़कर सो रहा
था। उसे देख एहसास हुआ कि कोई तो है अब हमारे साथ रहने वाला। ये एहसास लेते हुए
मैं फिर से चारपाई पर लेट गई। अब भी ज़ेहन में सौरव का ही ख्याल था। बार-बार लगता
कि सौरव कितना अच्छा लड़का है। चलो कोई तो आया हमारे साथ खेलने वाला। अब हम सौरव
के ही साथ खेला करेंगे। आज नही तो कल वो हमारे साथ घुल-मिल जायेगा। पर मैं तो सौरव
को किसी के साथ भी बाहर नहीं जाने दूंगी। मैं इसे हमेशा ही अपने साथ पढ़ाया करूंगी
लेकिन इसके माँ-बाप आकर इसे ले गए तो। ये सवाल जो एक ही पल में मेरे ख़्वाबों को
तोड़ते हुए मुझे डराता हुआ गुज़र गया। तभी एक आवाज़ सुनाई दी, ‘ये
कौन सो रहा है?’ आवाज़ सुनते ही मैं उठी तो देखा तो मेरी सहेली
प्रीति थी। उठते हुए मैं सौरव के बारे में बताने लगी, ‘ये
सोनू भइया को संजय कैम्प में मिला था। चौंकते हुए उसने भौंहे चढ़ाई और अपने घर चली गई।
जो भी आता मैं सभी को बड़े मजे से सौरव के बारे
में बताती। तभी सौरव खड़ा हुआ और काफी देर तक अपनी आँखों को बड़ा करते हुए मुझे
देखने लगा। मैं भी उसे देख मुस्कुराई और वो भी हँस पड़ा, मानो
उसके हँसते ही यहीं से हमारी बातचीत शुरू हो गई। मैंने उसे अपने पास बुलाया और कहा, ‘ऐ
तेरे घर में कौन-कौन था?’
पहले वो सोचने लगा फिर बोला, मेरे
घर में मेरी पूजा भाभी और राहुल भइया है। हमारा एक छोटा सा काका भी है, कुणाल
जिसके साथ मैं खेलता पर वो चलता ही नहीं। मैं तो अपनी भाभी के साथ सब्जी लेने भी
जाऊँ। हम तो वहाँ आइसक्रीम भी खावे।
अच्छा तू कभी स्कूल गया है?
मैं तो कभी स्कूल ही नहीं गया और न ही मेरे
भइया। भाभी ने मेरा कभी स्कूल में नाम लिखवाया।
क्या तेरे मम्मी-पापा नहीं हैं?
मेरे मम्मी-पापा नहीं है। वो तो मर गए हैं।
जैसे ही उसने ये कहा मुझे अपनी मम्मी की याद आ गई। मेरे पापा तो है पर मम्मी नहीं
है। आज भी कहीं न कहीं मुझे माँ की कमी महसूस होती है। लेकिन सौरव की जिंदगी में
तो माँ-बाप दोनों की ही कमी है। ये सुनकर लगा कहीं उसके भइया-भाभी ने तो उसे नहीं
भगा दिया। पर वो कहने लगा, ‘मैं तो अपने भइया-भाभी के साथ रहूँ। वहाँ तो
मेरे बहुत दोस्त हैं - कुनाल, इशू और निखिल। हम सभी पूरा दिन अपने घर में ही
रहा करते थे और रात को गली में छुपन-छुपाई खेला करते थे। जब भी उससे कुछ पूछती तो
वो बड़े प्यार से हँस-हँसकर बताता पर जब उसका पता पूछती तो कहता, ‘कह
दिया न मन्ने नहीं पता।’
उसकी ये बोली जो सभी को बेहद पसंद आती। अब वो
दिन-ब-दिन हमारे साथ घुलमिल गया था। रात को जब मैं चारपाई पर सोती और वो टेबल के
नीचे तो बार-बार मेरे बाल खींचता। कभी मुझे जीभ चिढ़ा-चिढ़ाकर भाग जाता। उसकी
शरारतें भी बढ़ती जा रही थी पर फिर भी बच्चा समझकर घर में कोई भी उसे कुछ नहीं
कहता। कभी कभी उसकी शरारतें मुझसे सहीं नहीं जाती। लेकिन फिर भी मुझे बहुत पसंद
था। जब वो नहा-धोकर गली में निकलता तो लोग कहते, ‘तुम्हें तो भाई मिल गया’ ये
सुनकर मुझे अटपटा सा लगता। लगता की लोग सोचेंगे मिले लड़के को अपना भाई बना लिया
पर कभी-कभार ये सोच इसे अपना भाई मान लेती कि वैसे भी ये भाई तो लगेगा जब किसी और
को अपना भाई मान सकती हूँ तो इसे क्यों नहीं। हर पल इसके साथ हमारा और सामने वालों
का रिश्ता जुड़ता ही जा रहा था पर पापा को इसकी टेशन भी लगी हुई थी। वो सोच रहे थे
मुझे एक बार थाने में इसकी रिपोर्ट लिखवा देनी चाहिए, दूसरे
का बच्चा है। अगर कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगा।
इसी सोच के साथ एक दिन सामने वाले दयाचंद अंकल
और पापा सौरव को लेकर थाने गए थे। घर में एक हलचल सी मची हुई थी-सौरव कब आएगा? क्या
पता पापा उसे छोड़ आये? मेरी दोनों बहनें भी यहीं बात कर रही थी। मेरे
मन में भी कुछ अजीब से ख्याल ढेरा डाले हुए थे कि पता नहीं वहाँ क्या हो रहा होगा? क्या
पता पुलिसवाले उसे रख लें। कई ख़्याल जो मुझे बैचेन किये जा रहे थे, कहीं
उसके भाई-भाभी उसे ले न जाए।
अंदर से दीदी बोली, ‘बाहर
जाकर देख क्या वो लोग आ गए?’
नहीं सुनते ही सभी के चेहरे पर चुप्पी छा गई पर
पीछे से दूसरी आवाज़ सुनाई दी, ‘ऐ आरती। तेरे पापा आ गए?’ नहीं
बहन कहते हुएए मैं गली में झाँकने लगी। देखा तो पापा और दयाचंद अंकल स्कूटर में
सौरव के साथ आ रहे थे। उन्हें देखते ही मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं
उछलती-कूदती, चिल्लाती हुई घर की ओर भागी, ‘पापा
आ गए...!’ ये सुनकर सभी के चेहरे खिल गए। पापा आए और एक
सुकुन के साथ चारपाई पर बैठ गए। पापा के बैठने के देर थी सभी ने उन्हें घेर लिया
और पूछा, ‘क्या हुआ,
क्या हुआ?’ चारों
तरफ़ यही अल्फाज़ गूंजने लगे। दीदी ने पापा को पानी दिया। पानी पीते हुए पापा बोले, अब
बताता हूँ जब हम थाने पहुँचे तो पुलिस अफसर ही नहीं थे। हमने काफी देर तक उनका
इंतज़ार किया। करीब सवा ग्यारह बजे वो आए। जब हम उनके पास गए तो वो बोले, ‘बोलो
आपको क्या काम है?’
हमने उन्हें सौरव के मिलने के बारे में सबकुछ
बताया। उन्होंने इसे अपने पास बुलाया और पूछा,
‘कहाँ
से आया तू?’ उनकी रौबीली आवाज़ सुनते ही ये डरा-सहमा और चुप
हो गया। तभी उन्होंने बड़े प्यार से इससे पूछा,
‘अच्छा बता तू यहाँ कैसे आया? ये
सुनकर इसे यहाँ आने के बारे में भी बड़ी मुश्किल से बताया।
एक दिन की बात है मैं अपने भइया-भाभी के साथ
बारात में जा रहा था कि तभी बीच रास्ते में मुझे आइस्क्रीम वाला दिखाई पड़ा।
आइस्क्रीम मुझे बहुत अच्छी लगती है। मुझ पे दस रुपये भी थे। मैंने जल्दी से अपनी
भाभी के हाथों से अपना हाथ छुड़ाया और पीछे जा रहा हूँ ये कहकर आइस्क्रीम लेने चला
गया। वहाँ पहुँचा तो देखा काफी भीड़ हो रही थी। मैंने उससे नू कहीं अंकल मौ को भी
एक आइस्क्रीम दे दो। उसने नू कही अभी रूक जा।’
मैं रूक गया। जब वाके ग्राहक गए तो
उसने भी दस रुपये लेकर मौकू को एक आइस्क्रीम दी। मैं आइस्क्रीम लेकर पीछे मुड़ा तो
देखा भाभी वहाँ न थी। ये देख मैं वहीं बैठकर रोने लगा।
सौरव की बात सुनते हुए पुलिस अफसर ने कहा, ‘ठीक
है हम ही इसे अपने पास रख लेते हैं।’ ये सुनते ही सौरव ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और बोला, ‘मैं
ना रहूँगा या के पास। रोता हुआ तेज़ी से बोल रहा था। मेरी निगाहें तो पुलिस अफसर
पर थी। मैंने सोचा कहीं वो इसके ज़्यादा बोलने पर इसे बंद न कर दे। इस डर से मैंने
कहा, ‘रहने दीजिए इसे मैं ही अपने पास रख लूँगा पर
अगर कोई भी सूचना मिले तो मुझे बता देना।
सभी कई विचारों में डूबे हुए थे पर सौरव जो एक
कोने में बैठा सभी को देख रहा था।
अब तक तो सभी के साथ उसका ऐसा रिश्ता बन चुका
था की कोई भी उसे खोना ही नहीं चाहता था। उसके हर घर में जाकर बैठनाए खेलना खाना
उसके साथ बनते रिश्ते को गाढ़ा करता जा रहा था। पापा जब भी हम तीनों को पैसे देते
तो उनके सामने कहता, ‘दीदी हम तो जूस पीने जायेंगे न।’ जब
भी कोई चीज़ वाला आता तो मिनट-मिनट पर पापा से पैसे माँगता। कोई अपने बच्चो के
पुराने कपड़े उसे दे जाताए कोई जूते तो कोई कुछ और। बस सौरव इसी में खिलखिला रहने
लगा था।
मैं ये सब देखकर सोचती थी की कहीं सौरव न खो
जाए? उसे कोई लेकर न चला जाये। पता नहीं क्यों आज
बार-बार यही शब्द मुझे सता रहे थे जैसे ही किसी से बात भी करती तो दिमाग में यही
शब्द उभर आते और फिर से मुझे बैचेन कर देते। हर पल यही लगता अगर सौरव खो गया तो।
नहीं-नहीं ऐसा कभी भी न हो, उसके बगैर तो हमारा घर में वैसे ही मन नहीं
लगता। एक पल के लिए वो कहीं जाता भी है तो जैसे पलभर में ही मायूसी सी छा जाती है।
एक दिन जब सुबह हुईए पापा हड़बड़ाते हुए बोले, ‘ऐ
आरती सौरव को देखकर ला।’
आरती ओ आरती देखा तो पापा झंझोड़ रहे थे। मैने
धीरे से हां कहा। पापा ने पूछा-‘‘तूने सौरव को देखा?’’ सौरव
को? जैसे पल भर में ही मेरी आंख खुल गई और मै उठ
बैठी। पापा के चेहरे से साफ पता चल रहा था कि वो चितिंत है। वो कहने लगे, जा
आरती तू और पूजा सौरव को देखकर आओ, पता नही कहां चला गया?
एक हड़बड़ाहट के साथ उन्होने मुझसे कहा। मै भी
जल्दी से उठी और साथ में पूजा को ले गली की गेम की दुकान की ओर चल दी क्योंकि मुझे
अच्छी तरह मालूम था कि वह वहीं जाता है। वहां पहुंचकर मैने पूरी दुकान में उसे
ढूंढा पर वो वहां मौजूद नही था। यह देख खामोशी के साथ मै वापस घर लौट आई। रास्ते
में पूजा ने भी पूछा क्या हुआ? पर मैने कुछ जवाब नही दिया। अब तो जैसे मेरी
उम्मीद एक ही पल में टूट चुकी थी। घर आते ही पापा ने पूछा क्या हुआ मिला? नही
कहते हुए खामोशी से बैठ गई। दीदी कहने लगी-‘‘कहा था अपने साथ रखा करो, बच्चा
है खो जाएगा पर ये तो सुनती ही नही।’’ दूसरी तरफ पापा भी बोले जा रहे थे-‘‘ये
तो लापरवहा है, अपना खेल ले बहुत है।’’ दोनों
की बाते मै कान खड़े करके सुन रही थी पर उन्हें ये अहसास बिल्कुल भी नही था। -जा
मधू अब तू ही उसे विराट तक देखकर आा’’ पापा ने दीदी से कहा। दीदी भी उसके मिलने की
आशा लिए उसे विराट पर खोजने चल दी। सौरव के खोने की बात अब हमारे बीच नही आसपास के
लोगो तक भी पहुंच चुकी थी। सभी के बीच एक चिंता की लहर दौड़ती हुई नजर आ रही थी-
शाम 7 बजे का निकला अभी तक नही आया, कहां
चला गया वो?, पहले तो कभी नही जाता था, कहीं
कोई उसे उठाकर तो नही ले गया?’’ वही मंडली फिर से घेरा डाले हमारे यहां खड़ी
थी। ‘कहीं भी नही मिला’’ ये
अल्फाज जो सभी को चौंका गए। पीछे मुड़कर देखा तो दीदी ही थी जो पूरे
विराट तक घूम आई थी पर वो नही मिला। पापा ने समय देखा तो 9 बज
रहे थे। उन्होने जल्दी से रिक्शेवाले को फोन किया और कहा-‘‘अरे
धर्मू जल्दी से रिक्शा लेकर आ जा पूष्पा भवन तक जाना है, यार
हमारा वो छोटा सा लड़का था न पता नही कहां गया,
चल उसे देखना है।’’ रिक्शेवाला
जल्दी से आया और पापा उस पर बैठ पुष्पा भवन की ओर चल दिए। घर में सब आपस में बाते
कर रहे थे-‘‘ अरे मिल जाएगा, यहीं कहीं होगा, वैसे
भी वो कहीं भी जाकर खड़ा हो जाता है।’’ बाते हर पल जारी थी। सभी बस उम्मीद पर उम्मीद
बनाने में लगे थे पर वो नही मिला। अब तो मै जिसे भी देखती सभी में वही उम्मीद नजर
आती -मिल जाएगा’’ पर मेरी उम्मीद तो जैसे गेम की दुकान पर ही टूट
चुकी थी फिर भी मन में थोड़ा सा अहसास था-हे भगवान बस वो मिल जाए’’ यही
लव्ज़ जो अब मेंरी आखिरी उम्मीद बने हुए थे।
इसी बीच पापा आए पता चला वो तो कनॉट प्लेस तक देख आए पर वो कहीं नही मिला। पापा ने
अपने हर जानने वाले को भी कह दिया-अगर सौरव कहीं भी मिले तो हमे खबर कर देना।’ उसके
बिना तो जैसे घर बिल्कुल सूना हो गया है। मन तो अब कहीं लगाने पर भी नही लगता।
सुबह उसकी उम्मीद में बितती और शाम होते ही
लोगों का जमघट बातों में उनकी उम्मीद को झलका देता। आज तो हर वक्त जब भी सौरव जैसे
किसी लड़के को देखते हैं तो लगता है-कहीं ये सौरव तो नही’’ सौरव
को घर से गायब हुए 2 हफते हो गए है पर अभी भी सबकी उम्मीद बरकरार
है कि - वो मिल जाएगा।
आरती
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