Sunday 28 August 2011

वो एक दिन, फिर से मिला मुझे


मैंने पूछा, "पूरी दुनिया में हर कोई सब कुछ भूल रहा है, दुनिया को अगर ऐसे देखे तो?”

छत्तर भाई ने कहा, “मैं मेले मे काम करता था, 10 दिन का ये काम मेरे लिये इस तरह का होता की, मैं पूरे शहर से, इलाके से और अपने आसपास से मिल भी लेता और उनसे दूर भी रहता। ये 10 दिन मेरे लिये दिन के जैसे नहीं होते थे। ये लगता था की मेरे लिये सारा समय उल्टा चल रहा है।

कई लोग किसी को ढूंढते हुये आते तो उन्हे मैं मिल जाता और कुछ जो अपनो से खो जाते तो मैं मिल जाता। मेरा तो सबको मिल जाना तय ही रहता था। कभी मेरी ड्यूटी मेले के भीतर लगती थी तो कभी गेट पर, गेट पर मुझे मेरी ड्यूटी पसंद नहीं थी, वहाँ पर जबरदस्ती रिश्तेदारी निभानी होती थी। लम्बी लाइन से बचने के लिये लोग मुझे खोजते हुये आते और सही बताऊं तो कभी - कभी मैं उनसे छूपने के लिये अपने मुहँ पर कपड़ा लपेट लेता। मेरे लिये उस लाइन मे कोई भी तो पराया नहीं था। मुझे तो ये भी नहीं मालुम था की इस लम्बी लाइन मे लगे लोग मेरे इलाके के है या उससे बाहर के। मेला का हर दिन मेरे लिये ऐसा लगता था कि मेरा काम 10 से 12 दिनों का नहीं है बल्कि बहुत लम्बे समय से चल रहा है। 10 दिन पूरा महीना लगने लगते। रात मे बस बिजली की रोश्नियों मे लोग मुझे जरूर तलाशते थे वो भी जो मुझे जानते थे और वो भी जो मुझे जानना चाहते थे। और मैं मेले में खड़ा यही सोचता था की, मैं तो यहाँ पर खुले मे खड़ा हूँ और फिर मुझे लोग ढूंढ रहे हैं। कभी - कभी होता है ना, हम बस स्टेंड पर खड़े जिस गाडी का इंतजारे करते है वही नहीं मिलती। उसके अलावा सब कुछ मिलता है। वैसे ही यहाँ मेले की जिन्दगी है, जिसे ढूंढों वही नहीं मिलता बाकी सब मिलते हैं और जिससे खो जाना चाहो वही सबसे पहले मिलता है। मैं गेट से अन्दर की तरफ हमेशा खिसक आता था। क्योंकि मेले के अन्दर रेहडी वालो, खोका मार्किट वालो से मेरी दोस्ती थी, वहाँ पर खड़ा होकर मैं पूरे मेले के मजे लूट लिया करता था। एक बार की बात बताता हूँ मेरी ड्यूटी मेले की बीच जगह पर लगी, जहाँ पर जमीन पर बैठकर लोग दुकान लगाया करते थे। ये वे लोग थे जो मेले मे दुकान लगाने का कुछ नहीं देते थे। वहाँ पर एक नाम गोदने वाला बन्दा था। उसके यहाँ पर बहुत भीड़ लगी थी, सभी नाम गुदवा रहे थे कोई किसी का नाम तो कोई किसी का, कोई भगवान का तो कोई अपने पति। वहीं पर भीड़ थी सबसे ज्यादा। एक लड़का सबसे पीछे आया और जल्दी से अपना काम करवाना चाहता था। मगर कुछ शरमा रहा था। इतने मे उसने अपनी कमीज उतारी और सीने पर नाम गुदवाने लगा। उसकी पूरी कमर पर नाम गुदे हुये थे। ये गजनी फिल्म तो अब आई है। यहाँ मेले मे कई ऐसे लड़के देख चुका हूँ जो अपने शरीर पर नामो का रेला लेकर चलते हैं। 10 दिन तक चलने वाला मेला, ऐसे लोगों से मिलवा देता था। मगर 10 दिन बीत जाने के बाद मे लगता की ये फिर नहीं मिलेगे। मैं भी सोचता था की अपने हाथों पर कुछ गुदवा लूँ, कम से कम पहली बार लगे मेले का साल ही। पर जब सब लोग भूल जाते हैं तभी तो मिलने का मज़ा था है। हमारी ड्यूटी मेला लगने के बाद और मेला उतरने से पहले ही खत्म हो जाती थी। तो वो उतरता हुआ मैं कभी नहीं देख पाया। सही बताऊँ तो इस विराट के मैदान मे मैं जब मेला नहीं लगता तब जाता हूँ तो मुझे सच मे ये नहीं पता रहता कि कौनसी दुकान कहाँ पर लगी थी और मैं कहाँ खड़ा होता था।"


मैंने पूछा, "खुद को कब आपने खोया हुआ पाया?”

छत्तर भाई ने कहा, “आज कल मेरी ड्यूटी बीआरटी लाइन पर है, यहाँ पर मुझे कोई नहीं पहचानता, वो जो मेरे साथ काम करते हैं वो भी और जो सड़क से निकल रहा है वो भी। यहाँ पर तो आप आटोमेटिक खोये हुये हो और सही मायने मे ये बहुत अच्छा है, खोये हुये रहना, एक अलग से जीने को भी कहता है। जिसमें शर्म, किसी के पहचान लेने का डर नहीं होता, बैठो - उठों और खाओ पियो। वैसे कोई जानने वाला भी क्या रोक लेगा तुम्हे कुछ करने से। मगर किसी के कुछ पूछ लेने का जवाब नहीं देना चाहते तो क्या हो? मैं ट्रफिक के बीचों बीच होता हूँ, शुरू शुरू मे बहुत डर लगता था। ऐसा लगता था की जैसे अगर कोई ध्यान न देकर चल रहा होगा तो वो पहले मार ही देगा चाहे हल्की सी ही क्यों न लगे। मगर कुछ दिनों के बाद में सब कुछ अपने आप सख़्त होता गया। मैं खुद भी सख़्त हो गया। मैं इसी सड़क पर कई समय से काम कर रहा हूँ, जगह बदल जाती है, कभी सड़क के सीधे जाने वाले रोड़ पर होता हूँ तो कभी यू टर्न पर, कभी उल्टे हाथ की तरफ जाने वाले रोड़ पर होता हूँ तो कभी सीधे हाथ की तरफ, एक ही ये रोड़ हर साइड पर खड़े होने के बाद मे अलग लगता है। गाडियां सारी एक जैसी है जो पूरे सड़क पर भाग रही है, लेकिन कहीं पर कुछ कम जाती है तो कहीं पर कुछ ज्यादा। कोई लाइट छोटी कर रखी है तो कोई बड़ी। मैं जो चाहता हूँ वो हमेशा होगा ये तो मेरी भूल है पर मैं चाहता हूँ की सड़क के बीच मे रहूँ मगर फिर भी खोया हुआ रहूँ।मैं जब सड़क पर होता हूँ तो खोया रहता हूँ और जब मैं घर आता हूँ तब लगता है कि मैं उस छत्तर को खो आया जो सड़क पर खड़ा था। अच्छा नहीं लगता वहाँ से वापस आना। घर में आपको सभी प्यार बहुत करते हैं मगर उनका प्यार अपनी तरफ खींचता है, पकड़े रखता है। मैं विराट के मैदान मे पला बड़ा हूँ, वहीं पर मैं सब कुछ सीखा, कुश्ती, क्रिक्रेट और काम भी, गाड़ी चलाना भी पर आज तक उसको पहचान नहीं पाया हूँ, जब मुझे कोई नौकरी मिलती है वो विराट के मैदान से ही जुड़ी होती है और मैं फिर से उसमें एक अजांन आदमी तरह खड़ा हो जाता हूँ। ऐसा मेरे साथ मेरे घर मे कभी महसूस नहीं हुआ। घर काफी बार बदला, हर साल बदलता है लेकिन फिर भी लगता है कि मेरा है, मैं इसे जानता हूँ। परिवार वाले कभी - कभी खोये हुये लगते हैं लेकिन घर कभी नहीं लगता।


मैनें पूछा, “अपने को खो देना क्या है?”

छत्तर भाई ने कहा, “दुनिया बनाना है, ये मैं नहीं कहता मेरी बीवी कहती है - तब मुझे पता चलता है। वो बहुत किताब पढ़ती है, जब घर लौटता हूँ तो वो किताब पढ़ रही होती और जब वो घर मे नहीं होती तो किताब जमीन पर इस तरह रखी होगी की देखते ही लग जायेगा की अभी किताब पढ़कर गई है कहीं। उसको मैंने पूछा था ये कि तुझे लगता है कि तू किताब पढ़कर इन घरेलू झमेलो से दूर हो जाती है? तब उसने कहा था की मैं किताब इन झमेलो से दूर होने के लिये नहीं पढ़ती हूँ मैं तो ऐसा माहौल चाहती हूँ अपने पास में जो मुझे अपने मे लगाये रखे, इसलिये ये मैं खुद से बना लेती हूँ। किसी चीज़ से लगाव रखना बाकी चीज़ों से काटता नहीं है वो तो एक और चीज़ एड कर देता है। वो अपनी इस बनाई हुई दुनिया में लीन रहती है, जो सिर्फ उसके अकेले के लिये नहीं है, उसकी बहन भी इसमे शामिल हो जाती है। जब वो नई नई आई तो उसको देखने के लिये सब आये, वो कमरे मे बैठी हुई थी, अपने समान को दिखा रही थी, पहले तो सब उसे देखते और उसकी खूबसूरती की सब तारीफ करते। पूरे कमरे मे काफी औरते थी। पहले उसे देखती फिर समानों पर निगाह डालती, उसके समान को खोलकर सभी देख रही थी। फिर उसका छोटा बैग खोला तो उसमे कुछ किताबे थी, उसकी डायरियाँ की तो सभी चौंक गई, कहने लगी किताबे भी लाई है। बस यही बात सबकी जुबान पर चिपक गई,  क्या - क्या समान लाई है बहू हुआ तो सबसे पहले तो किताबों का जिक्र होता। सब कहते, बहुत समान लाई है बहू और पता है किताबे भी लाई है। पढ़ती होगी, टीचर होगी, पढ़ाती होगी न जाने क्या क्या बोलते गई। लेकिन उसने ऐसा समा बना दिया यहाँ कि सब उसमें घूस गये। फिर तो हमारे घर के बाकी सभी किताबों को देखने लगे। मैं भी देख रहा था।"

मैंने पूछा, “आप अपनी इस दुनिया में, एक और दुनिया बनाना चाहें तो वो किस तरह की होगी?

छत्तर भाई ने कहा, “मैं सर्वे के लिये पानीपत गया हुआ था। वहाँ पर हमें रात का सर्वे करना था गाड़ियों का, हमारा ठिकाना सड़क के किनारे पर किया गया था। वही पर टेंट लगाकर हमें रखा गया था। बहुत कड़ाके की सर्दी थी, हम सभी जागे रहते थे। ऐसा लगता था की हम फोजी जिन्दगी जी रहे हैं, पूरे इलाके को दूर से देखना मगर बहुत गहरे ढंग ( शार्प तरीके ) से देखना। कोई पूरी सड़क पर घूमता था, तो कोई पुलीस वाले की केप पहनकर रात मे सफर करने वालो के लिये कुछ और बन जाता था, कोई पास की जगह में घूमकर कुछ मांग लाता था तो कोई दुकान वालो को रात मे दुकान लगाने का न्यौता दे आता था। पूरी रात मे लगता था की सुबह हो ही ना, रात में हवा, सड़क और वहाँ का सन्नाटा कभी परेशान नहीं करता था वे तो जगाता था, सोने ही नहीं देता था, लगता था की सो गये तो बहुत कुछ गंवा देगें। हर रात दो लोगों की ड्यूटी लगती थी जागने की मगर सब जागते थे। जहाँ पर ये नहीं मालूम था कि दिल्ली मे क्या हो रहा होगा, कौन किससे लड़ रहा होगा, कौन घर से भाग गया होगा, एक महीना बस, लगता था सभी को एक और महीना मिल जाये। और लौटने के बाद मे लगता था की एक और महीना मिल जाये बस, मैं मेले में भी ऐसे ही दुआ मांगा करता था कि बस, 10 दिन और मिल जाये। ये होना चाहिये, भले ही दिन मिल जाये मगर वहाँ पर किसी बात का डर ना हो। सिर्फ लड़का पार्टी के ही या आदमियों के लिये नहीं उसमें सभी होने चाहिये, हाँ, मेरी बीवी भी। मैं तो अक्सर सोचता था की एक ग्रुप ऐसा बन जाना चाहिये जो हर तीन महीने के बाद में एक महीना बाहर जाये और किसी जगह पर रहकर आये। ऐसे ही सड़क पर अपना डेरा डाले और आसपास की जगहों से सब कुछ लाये मगर वापस आ जाये।"


मैंने पूछा, “अपनी बनाई हुई दुनिया मे कब लगता है कि मैं अकेला नहीं हूँ बल्कि अनगिनत रूप हैं मेरे?”

छत्तर भाई ने कहा, “मैंने बहुत नौकरियां बदली है, कहलो की जगहें भी बदली हैं। हर जगह पर नया काम और नई पहचान मिल ही जाती है। वहाँ पर सभी किसी वक़्त मे एक समान हो जाते हैं। सब कुछ चाहते हैं, पर किसी को पता नहीं होता की क्या? सब कहते हैं "अबे घर ही तो जाना है रूकजा आराम से चला जाइयों, जल्दी क्या है?” इसी बात मे सब आसानी से रूक जाते हैं। लगता है जैसे कोई भी घर नहीं जाना चाहता। उसी जगह पर बहुत देर तक बैठे रहते हैं कुछ भी बातें करते हैं, कोई कहीं की बताता है, कोई कहीं जाने की बस सभी लगे रहते हैं। मैं भी उन्ही के बीच मे बैठ जाता हूँ। कुछ नहीं करता, ना बोलता, बस सुनता रहता हूँ, कभी लगता है कि मैं यहाँ पर आसानी से बोल सकता हूँ और कभी लगता है कि ये लोग अपने बारे मे कहाँ बोलते हैं जो मैं अपने बारे मे बोलूं। या मैं क्या बोलू की उलझन मे रहता हूं। वो लोग मुझे देखते रहते हैं, कभी उकसाते हैं तो कभी नहीं। कभी हाथ पकड़कर खींच ही लेते हैं। मुझे लगता है कि मैं उनके बीच का ही एक हिस्सा हूँ। हमारी बातें एक समान सुनाई देती हैं, कोई दर्द या दुखी होने को बोलना यहाँ पर उसका मजाक बनवाने के जैसा है। बड़ी - बड़ी बातें करते हैं सब। कोई किसी की मदद शायद नहीं कर पाये लेकिन बातें करने मे उसका खुश कर देते हैं। ये सब बातें मुझे दुखी कर देती हैं क्योंकि मैं इनमे घूलाना नहीं चाहता, क्योंकि भइया हमारा काम तो डेलीवेज़ पर काम करने का है। कभी यहाँ तो कभी वहाँ पर, ऐसे मौके मिलना आसान नहीं होता। बीआरटी को, उसमे काम करने वालों को लोग गाली देते हैं, कोई नहीं लेकिन कभी रात मे देखना, मस्त हो जाता है पूरा रोड़। लगता है जैसे साला सच्ची का फोरनकंट्री है। अपनी ही जगह को भूल जाओंगे। लोग निकलते हैं इसे देखने के लिये, तब लगता है कि मैं अकेला दिवाना नहीं हूँ। बहुत लोग हैं।"

लख्मी

Wednesday 24 August 2011

छुपने से खोने तक




सड़क के किनारे लगी वे दुकानें को किसी को भी अपनी ओर खींच सकती है, बुला सकती हैं, रिझा सकती है और लालसा से भर सकती है। 

हर रोज दोपहर १२ बजे से यहां एक हुजूम लगता है। जो भी आता है वो इसी कोने का हो जाता है। कभी घंटों के हिसाब से यहां पर आवाजें गूंजती है तो कभी खामोशी भी इसकी एक आवाज बन जाती है। मगर इसका सांस लेना बड़ता जाता है। ये जगह असल मे छुपने के लिये बनी है या यूं कहे की गुम हो जाने के लिये इस जगह को बनाया जाता है। 

कोई किसी से छुप रहा है तो कोई यहां पर आकर किसी लुफ्त मे खो जाना चाहता है। ये उस मुसाफिर पर निर्भर करता है कि वे छुपने आया है खोने

यशोदा

Thursday 11 August 2011

जगह के किनारे से



सड़क के किनारे से दिखती जगह अपने भीतर कई विभिन्न असीमताएँ बसायें रखती हैं। अपनी ओर इशारा करके बुलाती हैं, रिझाती हैं, उकसाती हैं। वैसे ही ये सड़क का किनारा अपने अन्दर एक और जगह लिये जीता है।

राकेश

Monday 8 August 2011

कहां रहते हैं और कहां जायेगें

दरवाजों की भीड़ लगी थी, सभी लोग उन दरवाजों को देख रहे थे। कोई उनके पीछे से कुछ सुना रहा था। सभी दरवाजे खुले थे। ये किस के है?, कहां से है?, कब से हैं और यहां पर कैसे आये? को कोई नहीं जानना चाहता था। हर दरवाजे पर अनगिनत नाम लिखे थे। सभी उन नामों मे अपने नामों को ढूंढ रहे थे। अब खुरचना चालू हुआ। दरवाजे के पीछे से वो सुनाई देने वाली आवाज़ भर्राने लगी। दरवाजें लुढ़कने लगे। जैसे व्याथा मे पुकार रहे हैं। धीरे धीरे बन्द होने लगे। वो सुनाई देने वाली आवाज़ भी गायब होने लगी। खुर्चना अब भी चालू था।


खुली बोरी, खुली अलमारी, खुला टीवी, खुला दरवाजा, बंद बक्सा, खुला बिस्तर सब कुछ सड़क के एक किनारे पर लदा पड़ा है। एक आदमी उनको भर रहा है। देखने वाली नज़रें उनमे कुछ तलाश रही है। जो खुले है वो सबके है और जो बंद है उनके किसी के होने की चाह बसी है। 


कई तस्वीरें दीवारें पर चिपकी हैं। कोई आदमी नहीं है और न ही कोई औरत। हर रात कोई इन तस्वीरों की भीड़ में कोई न कोई तस्वीर शामिल कर जाता है। कोई भी पुरानी तस्वीर नहीं है सब नई है जैसे कोई है जो सबके साथ है। मगर किसके साथ कब है ये पता नहीं।


वो दिवार के पीछे से कुछ बोल रहा था। उसके बोल मुझ तक नहीं आ रहे थे। मगर उसके कांपते लब्ज़ों के लहलहाहट मुझतक आ चुकी थी। ये कोई जीवन की दास्तान नहीं थी और ना ही कोई दर्द था। सब उसकी ओर कान लगाये थे। वो काफी दिन के बाद लौटा है। हर किसी के पास उसको देने और सुनाने के लिये एक नई दास्तान है।

वो सुनाते हुए अपने साथ लाये बक्शे को खोले जा रहा है। निगाहों को उसके इस खेल ने अपने वश मे कर लिया है। वो कहां से आया है, कहां जायेगा को लोग बिना जाने उसके अभी की बनाई दुनिया मे घूम रहे हैं। जैसे कोई नाव बहते समंदर की तेज लहरों पर गोते खा रही हो और वापसी आने की बजाये और अन्दर जाने के लिये जोर पकड़ रही हो।

यशोदा

ज़िन्दगी की कुछ झलकियाँ


लाला उर्फ मनोज ने जब जुड़ो - कराटें खेलना शुरू किया तब उन्हे उस खेल का नाम तक नहीं पता था। वो तो हाथों में कपड़ा बांधकर नाक बहते हुए लड़ाई के खेल में मस्त रहते थे। कभी कभी तो उन्हे बहुत चोट लगती। कभी हाथ में मोच आती तो कभी पांव में। इन्ही सब के चलते दोस्तों के घरवाले शिकायतें लेकर घर पर आ धमकते। इधर मेरा भाई जो मुझसे चार साल बड़े होने का पूरा फर्ज निभाता वो मेरा ही पक्ष लेते हुए उल्टा उन लोगों पर चड़ जाता।

अपने बच्चों को संभालकर रखो, जब खेलेगें तो लड़ाई भी होगी। हम तो तुम्हारे पास शिकायत लेकर नहीं जाते।"

ये सिलसिला हर दूसरे दिन का बन गया था। लेकिन मुझपर इस बात का कोई भी असर नहीं था। क्योंकि ये ओरों के लिये लड़ाई थी। लेकिन मेरे लिये मोज़मस्ती वाला खेल। इस खेल में मुझे ना तो धूप, ना छांव, ना भूख प्यास। किसी भी चीज का कोई असर नहीं होता था।



उस समय ब्रूसली की फिल्में देखने का बड़ा चाव था मुझे। यूं समझ लिजिये की जैसे वो मेरा आदर्श थे। फिल्म देखते देखते कई बार तो मुझमें ऐसा कुछ भर जाता कि मुझे पता ही नहीं चलता की मैं कब फाइट करने लगा। इस वज़ह से मैं घर में कई बार पिटा हूँ। लेकिन मुझे बिना फाइट वाली फिल्में बोर भी लगती थी। ये खेल धीरे धीरे पता नहीं कब मेरा जूनून बन गया। जिस समय मैंने जूडो - कराटें खेलना शुरू किया था। उस समय मेरी उम्र महज़ 8 या 9 साल की थी। जिस समय बच्चे बिस्तरों में छुपे सोये रहते थे। उस समय मैं अपने से बड़े लड़कों के साथ सुबह जल्दी उठकर दौड़ लगाते हुए पुष्पाभवन तक जाता था। वहां सुधीर भईया जूडो - कराटें सिखाया करते थे। वो मेरे पहले गुरू रहे। उनको मुझसे और मुझे उनसे एक लगाव सा होने लगा था। जब मैं उनको सिखाते हुए देखा तो मेरा मन भी करता कि मैं उनकी टीम में शामिल हो जाऊँ। लेकिन छोटा होने की वज़ह से मैं बोल नहीं पाता था। मैं रोज़ दौड़ लगाकर जाता और सब से पीछे खड़े होकर सबको प्रेक्टिक्स करते हुए देखता। ऐसा कई दिन तक चला।

एक दिन सुधीर भईया मेरे पास आए और मुझे दोनों मे हाथों में पकड़कर हवा में उछाल दिया। नीचे उतारते हुए बोले, “क्या तुम भी जूडो सिखना चाहते हो?”

वो मेरे मन की बात बोल रहे थे। मैंने भी झट से कहा, “हाँ।"



एक दिन किसी लड़के ने मुझे "नेहरू स्टेडियम" के बारे में बताया। उसने कहा वहां पर सभी खेल सिखाये जाते हैं। मैनें उसकी पूरी बात सुने बिना ही अपना सवाल रख दिया "वहाँ जूडो - कराटें भी सिखाते हैं? वहाँ जाने के लिये क्या करना पड़ता है? क्या वहां पर मेरा नाम भी लिख जायेगा?”

उसने कहा, “ऐसे नहीं पहले एक फॉर्म भरना पड़ता है। फीस देनी पड़ती है।"
मेरा ध्यान उसकी किसी बात पर नहीं गया। बस, एक ही बात पर अटक गया। 'फीस क्या होगी?'

मैंने पूछा, “बिना फीस के काम नहीं चल सकता क्या?”
उसने कहा, “पागल हो गये हो क्या? तीन महीने के तीस रूपये फीस लगती है।"

ये सुनकर मेरा मन उदास हो गया। मुझे लगा शायद अब मैं जूडो नहीं सीख पाऊंगा। कई दिन तक मेरे दिमाग मे ये सब चलता रहा। फीस का जुगाड़ किस तरह किया जाये?

धर्मेंद्र

Saturday 6 August 2011

मैं नीलम


उसने मुझसे पुछा, "आप यहाँ नये हो?”
मैंने पूरी जगह मे नज़रें घुमाते हुये कहा, “मेरी यहाँ पर तीसरी मुलाकात है, पहले भी कई बार आ चुकी हूँ पर कई साल पहले।"
उसने पूछा, “यहाँ क्यों आई हो कुछ सिखाने?”
हमारे साथ बैठे एक शख़्स ने मेरी तरफ देखा और मुस्कुरा दिया। मैंने कहा, “कुछ सिखाने नहीं आ‍ई बल्कि इस जगह पर आना मुझे अच्छा लगता है।"
तुम यहाँ पर कबसे आ रही हो?” मैंने उससे फिर सवाल किया।
उसने अपने पोलीबैग को एक तरफ रखते हुए कहा, “दो दिन हुए है मुझे यहाँ आते हुए।"
"यहाँ पर क्या चीज़ है जो तुम्हे यहाँ तक ले आई" मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूछा।
उसने कहा, “मैंने कई से, यहाँ के बारे मे सुना है पर समय ही नहीं मिलता था की यहाँ पर आ पाऊँ। लेकिन अब बच्चे की छुट्टियाँ हैं तो समय मेरे पास बच गया है। इसलिये सोचा की इन दो महीने मे कुछ सिखा जाये।"
"यहाँ पर क्या करोगी?” मैंने उससे पुछा।
मुझे सोफ्टवेयर सिखना है।" उसने कहा।
सोफ्टवेयर मे क्या?” मैंने पूछा।
वो कुछ रूक गई सोचने लगी और फिर बोली, “मुझे कुछ नहीं पता कम्पयूटर के बारे में, मैं कुछ नहीं जानती। बस लोगों के मुहँ से सुना है, सोफ्टवेयर, हार्डवेयर, लिखा हुआ देखा है सोफ्टवेयर हार्डवेयर। मैंने ये भी सुना है कि कहीं जोब करों तो इससे जुड़ी चीजें मागते हैं, लेकिन मुझे इसका जीरो भी नहीं पता, क्या सिखना है मुझे, ये मैं नहीं जानती।"
मैंने कहा, “टाइपिंग से स्टार्ट करोगी?”
उसने कहा, “हाँ, हिन्दी या अंग्रेजी दोनों ही मैं सिखना चाहती हूँ।"
मैंने उसकी पोलीबेग देखते हुए कहा, “तुम्हारी नोटबुक कहाँ है?”
उसने कहा, “उसका क्या करना है?”
मैंने कहा, “हिन्दी की टाइपिंग करोगी तो क्या टाइप करोगी?”
उसने कहा, “कहीं से भी कोई भी पेज उठा लुंगी, कर लुंगी।"
मैंने कहा, “कहीं से भी कुछ क्यो उठाओंगी? अपना लिखकर टाइप करों, उसी मे तो मज़ा है।"
उसने कहा, “नहीं बाबा, मुझे लिखना अच्छा नहीं लगता। मैं लिखना नहीं चाहती।"
मैंने कहा, “क्यों लिखना क्यों नहीं चाहती, क्यों अच्छा नहीं लगता?”
उसने कहा, “मुझे लिखना बोर लगता है। अपने बेटे को पढ़ाती हूँ उतना ही बहुत है।"
मैंने उससे कहा, “अच्छा, तुम करती क्या हो?”
उसने कहा, “मैं 5 बजे उठ जाती हूँ।"
मैंने कहा, “ये तो आपका रूटीन है। आप करती क्या हो?”
उसने कहा, “मैं अपने बेटे को स्कूल छोड़कर आती हूँ, घर का काम करती हूँ, खाना बनाती हूँ।"
मैंने कहा, “ये तो बना बनाया रूटीन है, जो किसके लिये है, कौन करवा रहा है पता ही नहीं है, ये तो एक से दूसरे मे शिफ्ट हो रहा है। तुम क्या करती हो?”

फिर उसने सोचा, वो कुछ देर चुप रही।

मैंने उससे कहा, “आपका बेटा आपको कैसे जानता है?”
उसने कहा, “कैसे जानता है क्या? मैं उसकी माँ हूँ उसे पता है।"
मैंने कहा, “इस रिश्ते से नहीं।"
उसने कहा, “फिर?”
मैंने कहा, “आपकी सास आपको बहू के रिश्ते से जानती है, पती पत्नी के, बेटा मां के क्या ये बहुत है जीने के लिये? इसके अलावा कुछ नहीं चाहिये?”
उसने कहा, “मै खुश हूँ इसमें, मुझे अच्छा लगता है ये।"
मैंने कहा, “जब आपका बेटा बड़ा होगा और आपका परिचय किसी को देगा तो आप क्या चाहोगे की वो आपके बारे मे क्या बोले? कि ये मेरी मां है, इसने मुझे पालपोस कर बड़ा किया है बस, या इसके अलावा भी कुछ और होगा?”

वो थोड़ी रूक गई और सोचने लगी।

उसने कहा, “मैं अपने बेटे की बहुत अच्छी दोस्त हूँ।"
मैंने कहा, “कब तक, 20 साल तक, 22 साल तक उसके बाद क्या?”
उसने एक जिन्दादिली के साथ कहा, “मैं हमेशा रहूँगी।"
मैंने कहा, “हर माँ बाप ये सोचते हैं कि वे अपने बच्चे के बहुत अच्छे दोस्त हैं पर एक उम्र तक आते आते बच्चा अपने रिश्ते और अपनी जगह खुद तलाशने और बनाने लगता है।"
उसने कहा, “वो मुझसे कुछ नहीं छुपाता और न कभी छुपायेगा।"
मैंने कहा, “अभी तो सब कुछ बताता है लेकिन जब बड़ा होगा, उसके दोस्त बनेगे, उसका दायरा बड़ेगा तब वो शेयरिग के लिये खास लोग तलाशेगा शायद उसमे आप न हो। घर और परिवार से दूर वो अपनी चीज़ें बांटने की जगह बनाये। क्योंकि बहुत सी बातें होगी जो वो आपको नहीं बताना चाहेगा।"
उसने कहा, “हाँ मैं मानती हूँ ऐसा होगा।"
मैंने कहा, “फिर अपने आपको आप कैसे तलाश रही हो, एक ही रिश्ता क्यों चाहती हो की सब आपको एक ही रिश्ते से जाने? क्या कभी लगता नहीं है के शायद अब अपने जीने के तरीके पर हमें सोचना होगा?'
उसने कुछ सोचते हुए बोला, “मैं ज्वैलरी बनाना सिखाती हूँ, मुखे ब्यूटीशियन का कोर्स भी आता है और सिलाई भी।"
मैंने कहा, “आपसे जो लडकियाँ सिखने आती हैं उनसे आप क्या चाहते हो की वो आपको कैसे जाने? मां, बीवी, बहू इस रिश्ते से या कुछ और है?”
उसने कहा, “मैं नहीं चाहती और न ही इस बारे मे मैं उनसे कोई बात करती। वो मुझे मेरे हूनर से जाने बस, मैं यही चाहती हूँ।"
"कोई हमें हमारे हुनर से जाने, ये कितना उत्साह भर देता है हममें?” मैंने कहा।
वो बहुत एनर्जी के साथ बोली, “हाँ, अपने आपको एक नई पहचान मिलती है। मैं पहले बाहर नहीं निकलती थी, नौ साल हो गये हमारी शादी को, मैं सिर्फ अपने बेटे को स्कूल छोडने और लेने जाती थी। मगर अभी दो महीनो से, मैंने जो सीखकर छोड दिया था। उसी को अपने जीने के तरीके मे ले आई हूँ। अब मुझसे लड़कियाँ घर में सीखने भी आती हैं और मैं बाहर जाकर भी सिखाती हूँ।"
"आपको लगा है कि इससे दायरा बड़ा है?” मैंने पूछा।
उसने कहा, “हाँ, मुझे काफी लोग जानने लगे हैं मेरे सिखाने के रिश्ते से।"
घर में सभी इस बदलाव से खुश होगें?” मैंने कहा।
उसने कहा, ““हां सास,ससुर को तो इतना क्या पता लेकिन जब मैं इन्हें फोन पर बताती हूँ तो ये बहुत खुश होते हैं।"
मैंने कहा, “फोन पर क्यों?”
उसने कहा, “वो बाहर रहते हैं ना।"
कहाँ?” मैंने कहा।
उसने कहा, “कलकत्ता। हमारी शादी के दूसरी साल ही वो काम के सिलसिले में वहां चले गये।"
मैंने कहा, “तो उन्हें ख़त लिखती हो?”
नहीं। हमारी तो फोन पर बात हो जाती हो।" उसने कहा।
मैंने कहा, “तुम्हें नही लगता की तुम्हें ख़त लिखना चाहिये?”
उसने कहा, “मैंने कहा तो मुझे लिखना अच्छा नही लगता।"
मैंने कहा, “मैं लिखने के लिये नही बोल रही मैं ख़त के लिये बोल रही हूँ।"
उसने कहा, “नही मुझे तो फोन बेहतर लगता है।"
मैंने कहा, “पर मुझे तो लगता है कि खत के जरिये हमारे पास सारी बातें सैव हो जाती हैं जिन्हे जब चाहो पढ़कर ताज़ा कर लो।"
उसने कहा, “नही फोन पर हुई बातों में भी बहुत मज़ा होता है। मैं कभी खाना बना रही होती हूं और इनकी कोई भी बात याद आ जाती है तो हंस देती हूँ।"
मैंने कहा, “क्या दो महीने पहले हुई बात जस की तस आपको याद रहती है?”
उसने कहा, “नही कुछ-कुछ भूल जाते है।"
मैंने कहा, “और छह महीने बाद कुछ-कुछ से ज्यादा भूल जाते हैं शायद।"
हाँ ऐसा तो होता है।" उसने कहा।
मैंने कहा, “ये जो भूलने की क्षमता है वो कमाल की है तभी तो हमारे साथ हुई घटना ज्यादा समय तक ताज़ी नही रहती अगर ऐसा न हो तो शायद हम उसी दर्द में अकेले रह जाये।"
उसने कहा, “हाँ ये तो सही है अगर ऐसा न हो तो हम कोई रिश्ता भी नही बना पायेगें।"

उसने बहुत देर देखने के बाद मे मुझसे पूछा, “आपका नाम क्या है?”
मेरा नाम यशोदा है। और आपका?
वो बोली, “मै नीलम।"


दक्षिणपुरी 23 मई 2011
यशोदा

करता कोई है, भरता कोई है


अंदर ही अंदर लहराते अक्षर और बड़ी-बड़ी लहराती हुई लिखी लाईनें हर आती निगाहों का आर्कषण बनती जा रही थी। जैसे ही कदम गेट पर आकर टिकते तभी सामने दीवार पर लाल रंग के मार्कर से लिखी लाईनें नज़रों को चौका जाती हैं - जिसे देखों वही इन लाईनों को पढ़ते ही थम-सा जा रहा था, ‘‘आई लव यू प्रीति, फ्रोम रंजीत।’’


गेट पर झुण्ड बनाए खड़े होकर कुछ पढ़ते हुए मुस्कुराकर बस्ते के बोझ की थकावट उतारने ऊपर क्लास में चल दिए। कुछ पढ़ते ही हल्ला काटने लगे, ‘‘ओए प्रीति आजकल तो तु भी फुल तरक्की कर रही है, भई किसने लिखा है? कौन है ये नया आशिक?  आखिर हम भी तो जाने कि कैसे है ये रंजीत जी? क्या हमसे नही मिलवाएगी?’’

देखते ही देखते सभी के बनते झुण्ड ने एक-दूसरे को छेड़ना शुरू कर दिया, ‘‘भई अब तो हमें भी पता चल गया, अरे हम तो वो इंसान है जो खंजर को बंजर बना दे। लोग क्या सोचते हैं कि बातें छुपाने से छुप जाएगी। आखिर सुर्खियाँ तो कानों से टकरा ही जाती है- भई कुछ तो है वरना ये नाम भला यहॉं मौजूद कैसे हो सकता है?’’

हॅंसी-मज़ाक करते हुए एक-दूसरे को छेड़ते ये साथी जिनका झुरमुट अब गेट तक ही नहीं बल्कि टीचरों के भी कानों का हिस्सेदार बन चुकी थी। पूरे स्कूल में मॅंडराती एक ही लाईन सभी को नीचे की ओर खीचें चली जा रही थी।

‘‘ऐ पता है नीचे एक लड़के-लड़की का नाम लिखा है।"
"चल नीचे चलते है।"
"जा मत जा,  तु तो यहीं पर रह ले।"
"मै तो जा रही हूँ मजा आएगा।’’

ये कहते हुए बस कदमों की रफ्तार नीचे जाकर थम रही थी यहां तक की प्रिंसिपल भी आ चुकी थी। जैसे ही प्रिंसिपल ने माईक को थामते हुए यह अनाउस किया, ‘‘बेटा, सारी क्लास ऊपर चली जाओं।" बस जिन बच्चों का नाम प्रीति है वोही यहां रुकेगीं। मुझे उनसे कुछ बात करनी है।’’

टीचर की ये बात सुनते ही सभी प्रीतियों के चेहरे की रंगत ही उड़ गई - खामोश डरा-सहमा चेहरा, ऑंखों से झलकते आँसू और सावधान सा टिका बदन। आसपास बच्चों की फूसफूसाहट के अलावा और कुछ भी नज़र न आ रहा था, जो नही जान रहे थे वे पूछ रहे थे,  ‘‘ऐ क्यों रोका है मैडम ने प्रीतियों को? कहीं कुछ चक्कर तो नहीं? हमें तो भगा दिया फिर इन्हें क्यों रोक लिया? क्या इनाम देगी इन्हें? अगर हमको भी रोक लेती तो हम कौन सा कुछ बिगाड़ लेते?”

सभी क्लास की लड़कियां अपने में फुसफुसाती हुई ऊपर अपनी-अपनी क्लासो में चल दी। यहाँ प्रीतियॉं जिनका चेहरा तो अभी भी ज्यों का त्यों लटका हुआ दिखाई पड़ रहा था। डर के मारे कुछ प्रीतियों  की कॅंपकपी छुट रही थी तो कुछ की तो ज़ुबां पर ताला ही लग चुका था। आज तो सुबह-सुबह ही प्रिंसिपल ने सभी प्रीतियों को हल्ले में ले लिया था।

‘‘क्या बत्तमीजी है ये? पढ़ने आते हो या आशकी करने? क्या कभी सुधरना भी है या बस यहीं के लोगों की तरह कबाड़ी-बाज बनना है? क्यों घरवालों को कहकर शादी दिलवा दूं? वैसे भी क्या औकात है तुम्हारी? इससे अच्छा तो स्कूल छोड़ों और कोठियों में काम कर लो, कम से कम मॉं को तो सहारा मिलेगा। खबरदार! जो आज के बाद दोबारा से ऐसी लाईनें लिखी हुई भी मिली।’’ ये कहते हुए प्रिंसिपल का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ चुका था। अब प्रिंसिपन ने इन प्रीतियों पर चाँटें बरसाने लगी।

हमारी प्रिसिपल,  जिनका नाम सुनते ही दूर से ही कॅंपकपी छुटनी शुरू हो जाती है उनका रौबीला पन पूरे स्कूल में अपनी दहशत फैलाए हुए था। आज के दिन बच्चे तो बच्चे टीचरें भी उनसे डरी हुई थी। उस वक़्त भी तो हमारी पूरी क्लास वहां से गायब हो चुकी थी वो तो सब सीढ़ियों से नीचे छुपकर सुन रहे थे वरना कानों को कहां नसीब होती ये बातें? लेकिन सच कहूं  तो उस वक़्त प्रीतियों का चेहरा देखने लायक हो रहा था। कुछ तो इतनी बुरी तरह से फूट-फूट कर रो रही थी कि जैसे कोई छोड़कर चल बसा हो या कहे सब कुछ लुट गया हो। कुछ तो ऐसी कठोर थी कि उनकी निडर आँखें अभी भी प्रिंसिपल को ताके जा रही थीं। चाहें जो भी हो प्रिंसिपल के ये दरदरे अल्फ़ाज़ अभी भी मेरे कानों में चुभ रहे थे। ढेरों सवालों का जमघट अपने उफान पर खड़ा था।

एक नाम के पीछे सभी को क्यों घसीटा गया? क्या जरुरी है कि यहीं की प्रीतियों के लिए लिखा हो? क्या और प्रीती नहीं हो सकती? क्या हर प्रीती एक जैसी होती है? अगर स्कूल की दीवारों पर किसी का भी नाम लिखा जाएगा तो उसमें प्रीतियों की ही गलती क्यों होगी? जरूरी कोई है कि यहीं की प्रीतियों के लिए ही लिखा हो?  क्या एक नाम ढेरों लोगों के नहीं हो सकते? आखिर एक लाईन के पीछे क्यों हर प्रीति को मुज़रिम बनाया जा रहा है? 

सवाल तो इतने थे कि जिनके जवाब प्रिंसिपल मैम भी नहीं दे सकती थी। प्रिंसिपल मैम ने तो अपनी भड़ास निकाल ली थी पर ये प्रीतियां तो किसी से भी नजरें नहीं मिला पा रही थी। बेशक प्रिंसीपल मैम के लिए एक रोज का अनुसासन रहा होगा  पर उन सारी प्रीतियों के लिए तो जिंदगी भर के तानों की बौछार बन गई थी। कुछ तो गम मे डूबी खामोश ही रहने लगी तो कुछ ने बोलना ही बंद कर दिया। अब हर दिन जब भी क्लास में टीचरों की निगाहों से उनका सामना होता तभी उन सभी प्रीतियों की नजरें नीचे को झुक जाती और चेहरे पर गंभीरता छा जाती। अब तो हर दिन उनका ये रूप उनके लिए एक नई सी भूमिका अदा कर चुका था। जहॉं सब प्रीतियों का ये हाल था वहीं मेरी क्लास की प्रीति भी सभी के तानों का शिकार बन रही थी।

‘‘अई मॉं, कितना गंदा पिटी थी तू। अब तो पता चल गया। उतर गया सारा फैशन?  जा जाकर कोने में जाकर बैठ जा। मिल गया होगा चैन।‘‘

क्लास का हर साथी प्रीति को छेड़ती जा रही थी पर किसी पर भी उसकी उस खामोशी का कोई असर नहीं था। प्रीति की ये खामोशी दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी। दिन भर दौड़ते कदम, मस्ती से खिलखिलाती पूरी क्लास को एनर्जी देते उसके ये खेल पकड़न-पकड़ाई, छुपन-छुपाई और पाली खेलता उसका गोल-मटोल से चेहरा अब खामोशी ओढ़े हुए था। 

जब से ये दीवार पर लिखी लाइन का किस्सा आया तब से तो प्रीति इतनी बदल गई कि जैसे कल ही दाखिला लिया हो। हमारी क्लास की प्रीति की खामोशी कई क्लासों की प्रीतियों की खामोशी को बयां कर रही थी।

"ऐ पता है, 9वीं क्लास की प्रीति बहुत रो रही है।”  

आरती    

Friday 5 August 2011

बदलने का दौर था

सन् 1975


                        तस्वीर दक्षिणपुरी एलबम से, यशोदा

सन् 1975 - शहर को फैलाया जा रहा था। ये दौर दिल्ली शहर के नक्शे को बदलने का था। उस नक्शे में 20 नए नाम जुड़े। मंगोल-पुरी, त्रिलोकपुरी, सुलतानपुरी, जहाँगीरपुरी, कल्याणपुरी, सुन्दरनगरी, नदनगरी, खिचड़ीपुर, शकुरपुर, खानपुर। ये सभी जे.जे कालोनी के नाम से जाने गए और उनमें से एक नाम था दक्षिणपुरी।

दक्षिणपुरी में दिल्ली के अलग-अलग कोनों से आए लोगों को बसाया गया। तालकटोरा गार्डन, मालवीय नगर, कोटला, हिमायूपुर, ग्रीन पार्क, कृष्णा नगर, बंगाली कलोनी, शहीद कैंप, गोविंद पुरी, बेग़म पुर और इन्द्रा कैंप। ऐसी ही कई जगहों से झुग्गियों को तोड़कर बसाया गया। इस जगह को अपने रहने लायक बनाने में लोगों ने काफी मेहनत की। इन जगहों से लोगों कि काफी यादें जुड़ी हैं। मगर सबसे ज्यादा दिलचस्प बात ये थी कि अक्सर टूटकर आने वाले लोगों के लिये नई जगह और काम की जगह के बीच की दूरी बेइंतिहा होती है। कई काम छूट जाते हैं, स्कूल छूट जाते हैं, नई जगह बसावट के दौरान पुरानी यादों के साथ पुरानी जमी यातायात और कमाई भी निगल जाती है। लेकिन यहां पर अपनी सुविधाओं के हिसाब से दक्षिणपुरी वे जगह थी जो काफी नज़दीक रही।

शहर जितना जगह बनाने को याद रखता है उतना ही जगह विस्थापित करने को भूल जाता है। जहाँ बनी बनाई किसी जगह को उजाड़ने में वक़्त नहीं लगता वहीं किसी नई जगह को बनाने व बसने में कई साल लग जाते हैं। 1973 के दौर में सरकार से ज़मीन लेना उतना कठीन नहीं था जितना आज के दौर में है। आज जितने सरकारी दस्तावेज़ों कि जरूरत व मांग कि जाती है उतना शायद उस समय में नहीं था। बस्तियों के लिये कागजातों का शहर नहीं था। कागजात खाने की चीजों, पानी स्कूल के लिये होते थे। लेकिन आज कागज़ातों का सफ़र जीवन के सफ़र से ज्यादा हो गया है। हर कागज़ात अपने साथ एक सवाल लिये चलता है जैसे इस बस्ती में कितने समय से रह रहे हो? कितने पुराने राशन-कार्ड? पहचान-पत्र कब बनवाये? उपभोग में आने वाली चीज़ों का बिल और कितनी बड़ी झुग्गी है। कई शर्तों के आधार पर प्लॉट दिये जाते हैं। सर्वे के दौरान ही सबको यह मालूम हो जाता की उन्हे कहाँ जाना है? और कब जाना है? विस्थापन के वक़्त मे जैसे-जैसे झूग्गी तोड़ी जा रही थी उसी वक़्त मे सरकारी ट्रक बाहर सबके समान लोड करके बसावट की जगहों पर ले जा रहे थे। हर किसी को अपना कुछ भी समान ले जाने की आजादी थी। पहले के वक़्त मे एक ट्रक मे 10 घरों का समान आ जाया करता था।


धर्मेन्द्र