लाला उर्फ मनोज ने जब जुड़ो - कराटें खेलना शुरू किया तब उन्हे उस खेल का नाम तक नहीं पता था। वो तो हाथों में कपड़ा बांधकर नाक बहते हुए लड़ाई के खेल में मस्त रहते थे। कभी कभी तो उन्हे बहुत चोट लगती। कभी हाथ में मोच आती तो कभी पांव में। इन्ही सब के चलते दोस्तों के घरवाले शिकायतें लेकर घर पर आ धमकते। इधर मेरा भाई जो मुझसे चार साल बड़े होने का पूरा फर्ज निभाता वो मेरा ही पक्ष लेते हुए उल्टा उन लोगों पर चड़ जाता।
“अपने बच्चों को संभालकर रखो, जब खेलेगें तो लड़ाई भी होगी। हम तो तुम्हारे पास शिकायत लेकर नहीं जाते।"
ये सिलसिला हर दूसरे दिन का बन गया था। लेकिन मुझपर इस बात का कोई भी असर नहीं था। क्योंकि ये ओरों के लिये लड़ाई थी। लेकिन मेरे लिये मोज़मस्ती वाला खेल। इस खेल में मुझे ना तो धूप, ना छांव, ना भूख प्यास। किसी भी चीज का कोई असर नहीं होता था।
उस समय ब्रूसली की फिल्में देखने का बड़ा चाव था मुझे। यूं समझ लिजिये की जैसे वो मेरा आदर्श थे। फिल्म देखते देखते कई बार तो मुझमें ऐसा कुछ भर जाता कि मुझे पता ही नहीं चलता की मैं कब फाइट करने लगा। इस वज़ह से मैं घर में कई बार पिटा हूँ। लेकिन मुझे बिना फाइट वाली फिल्में बोर भी लगती थी। ये खेल धीरे धीरे पता नहीं कब मेरा जूनून बन गया। जिस समय मैंने जूडो - कराटें खेलना शुरू किया था। उस समय मेरी उम्र महज़ 8 या 9 साल की थी। जिस समय बच्चे बिस्तरों में छुपे सोये रहते थे। उस समय मैं अपने से बड़े लड़कों के साथ सुबह जल्दी उठकर दौड़ लगाते हुए पुष्पाभवन तक जाता था। वहां सुधीर भईया जूडो - कराटें सिखाया करते थे। वो मेरे पहले गुरू रहे। उनको मुझसे और मुझे उनसे एक लगाव सा होने लगा था। जब मैं उनको सिखाते हुए देखा तो मेरा मन भी करता कि मैं उनकी टीम में शामिल हो जाऊँ। लेकिन छोटा होने की वज़ह से मैं बोल नहीं पाता था। मैं रोज़ दौड़ लगाकर जाता और सब से पीछे खड़े होकर सबको प्रेक्टिक्स करते हुए देखता। ऐसा कई दिन तक चला।
एक दिन सुधीर भईया मेरे पास आए और मुझे दोनों मे हाथों में पकड़कर हवा में उछाल दिया। नीचे उतारते हुए बोले, “क्या तुम भी जूडो सिखना चाहते हो?”
वो मेरे मन की बात बोल रहे थे। मैंने भी झट से कहा, “हाँ।"
एक दिन किसी लड़के ने मुझे "नेहरू स्टेडियम" के बारे में बताया। उसने कहा वहां पर सभी खेल सिखाये जाते हैं। मैनें उसकी पूरी बात सुने बिना ही अपना सवाल रख दिया "वहाँ जूडो - कराटें भी सिखाते हैं? वहाँ जाने के लिये क्या करना पड़ता है? क्या वहां पर मेरा नाम भी लिख जायेगा?”
उसने कहा, “ऐसे नहीं पहले एक फॉर्म भरना पड़ता है। फीस देनी पड़ती है।"
मेरा ध्यान उसकी किसी बात पर नहीं गया। बस, एक ही बात पर अटक गया। 'फीस क्या होगी?'
मैंने पूछा, “बिना फीस के काम नहीं चल सकता क्या?”
उसने कहा, “पागल हो गये हो क्या? तीन महीने के तीस रूपये फीस लगती है।"
ये सुनकर मेरा मन उदास हो गया। मुझे लगा शायद अब मैं जूडो नहीं सीख पाऊंगा। कई दिन तक मेरे दिमाग मे ये सब चलता रहा। फीस का जुगाड़ किस तरह किया जाये?
धर्मेंद्र
No comments:
Post a Comment