Saturday 6 August 2011

करता कोई है, भरता कोई है


अंदर ही अंदर लहराते अक्षर और बड़ी-बड़ी लहराती हुई लिखी लाईनें हर आती निगाहों का आर्कषण बनती जा रही थी। जैसे ही कदम गेट पर आकर टिकते तभी सामने दीवार पर लाल रंग के मार्कर से लिखी लाईनें नज़रों को चौका जाती हैं - जिसे देखों वही इन लाईनों को पढ़ते ही थम-सा जा रहा था, ‘‘आई लव यू प्रीति, फ्रोम रंजीत।’’


गेट पर झुण्ड बनाए खड़े होकर कुछ पढ़ते हुए मुस्कुराकर बस्ते के बोझ की थकावट उतारने ऊपर क्लास में चल दिए। कुछ पढ़ते ही हल्ला काटने लगे, ‘‘ओए प्रीति आजकल तो तु भी फुल तरक्की कर रही है, भई किसने लिखा है? कौन है ये नया आशिक?  आखिर हम भी तो जाने कि कैसे है ये रंजीत जी? क्या हमसे नही मिलवाएगी?’’

देखते ही देखते सभी के बनते झुण्ड ने एक-दूसरे को छेड़ना शुरू कर दिया, ‘‘भई अब तो हमें भी पता चल गया, अरे हम तो वो इंसान है जो खंजर को बंजर बना दे। लोग क्या सोचते हैं कि बातें छुपाने से छुप जाएगी। आखिर सुर्खियाँ तो कानों से टकरा ही जाती है- भई कुछ तो है वरना ये नाम भला यहॉं मौजूद कैसे हो सकता है?’’

हॅंसी-मज़ाक करते हुए एक-दूसरे को छेड़ते ये साथी जिनका झुरमुट अब गेट तक ही नहीं बल्कि टीचरों के भी कानों का हिस्सेदार बन चुकी थी। पूरे स्कूल में मॅंडराती एक ही लाईन सभी को नीचे की ओर खीचें चली जा रही थी।

‘‘ऐ पता है नीचे एक लड़के-लड़की का नाम लिखा है।"
"चल नीचे चलते है।"
"जा मत जा,  तु तो यहीं पर रह ले।"
"मै तो जा रही हूँ मजा आएगा।’’

ये कहते हुए बस कदमों की रफ्तार नीचे जाकर थम रही थी यहां तक की प्रिंसिपल भी आ चुकी थी। जैसे ही प्रिंसिपल ने माईक को थामते हुए यह अनाउस किया, ‘‘बेटा, सारी क्लास ऊपर चली जाओं।" बस जिन बच्चों का नाम प्रीति है वोही यहां रुकेगीं। मुझे उनसे कुछ बात करनी है।’’

टीचर की ये बात सुनते ही सभी प्रीतियों के चेहरे की रंगत ही उड़ गई - खामोश डरा-सहमा चेहरा, ऑंखों से झलकते आँसू और सावधान सा टिका बदन। आसपास बच्चों की फूसफूसाहट के अलावा और कुछ भी नज़र न आ रहा था, जो नही जान रहे थे वे पूछ रहे थे,  ‘‘ऐ क्यों रोका है मैडम ने प्रीतियों को? कहीं कुछ चक्कर तो नहीं? हमें तो भगा दिया फिर इन्हें क्यों रोक लिया? क्या इनाम देगी इन्हें? अगर हमको भी रोक लेती तो हम कौन सा कुछ बिगाड़ लेते?”

सभी क्लास की लड़कियां अपने में फुसफुसाती हुई ऊपर अपनी-अपनी क्लासो में चल दी। यहाँ प्रीतियॉं जिनका चेहरा तो अभी भी ज्यों का त्यों लटका हुआ दिखाई पड़ रहा था। डर के मारे कुछ प्रीतियों  की कॅंपकपी छुट रही थी तो कुछ की तो ज़ुबां पर ताला ही लग चुका था। आज तो सुबह-सुबह ही प्रिंसिपल ने सभी प्रीतियों को हल्ले में ले लिया था।

‘‘क्या बत्तमीजी है ये? पढ़ने आते हो या आशकी करने? क्या कभी सुधरना भी है या बस यहीं के लोगों की तरह कबाड़ी-बाज बनना है? क्यों घरवालों को कहकर शादी दिलवा दूं? वैसे भी क्या औकात है तुम्हारी? इससे अच्छा तो स्कूल छोड़ों और कोठियों में काम कर लो, कम से कम मॉं को तो सहारा मिलेगा। खबरदार! जो आज के बाद दोबारा से ऐसी लाईनें लिखी हुई भी मिली।’’ ये कहते हुए प्रिंसिपल का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ चुका था। अब प्रिंसिपन ने इन प्रीतियों पर चाँटें बरसाने लगी।

हमारी प्रिसिपल,  जिनका नाम सुनते ही दूर से ही कॅंपकपी छुटनी शुरू हो जाती है उनका रौबीला पन पूरे स्कूल में अपनी दहशत फैलाए हुए था। आज के दिन बच्चे तो बच्चे टीचरें भी उनसे डरी हुई थी। उस वक़्त भी तो हमारी पूरी क्लास वहां से गायब हो चुकी थी वो तो सब सीढ़ियों से नीचे छुपकर सुन रहे थे वरना कानों को कहां नसीब होती ये बातें? लेकिन सच कहूं  तो उस वक़्त प्रीतियों का चेहरा देखने लायक हो रहा था। कुछ तो इतनी बुरी तरह से फूट-फूट कर रो रही थी कि जैसे कोई छोड़कर चल बसा हो या कहे सब कुछ लुट गया हो। कुछ तो ऐसी कठोर थी कि उनकी निडर आँखें अभी भी प्रिंसिपल को ताके जा रही थीं। चाहें जो भी हो प्रिंसिपल के ये दरदरे अल्फ़ाज़ अभी भी मेरे कानों में चुभ रहे थे। ढेरों सवालों का जमघट अपने उफान पर खड़ा था।

एक नाम के पीछे सभी को क्यों घसीटा गया? क्या जरुरी है कि यहीं की प्रीतियों के लिए लिखा हो? क्या और प्रीती नहीं हो सकती? क्या हर प्रीती एक जैसी होती है? अगर स्कूल की दीवारों पर किसी का भी नाम लिखा जाएगा तो उसमें प्रीतियों की ही गलती क्यों होगी? जरूरी कोई है कि यहीं की प्रीतियों के लिए ही लिखा हो?  क्या एक नाम ढेरों लोगों के नहीं हो सकते? आखिर एक लाईन के पीछे क्यों हर प्रीति को मुज़रिम बनाया जा रहा है? 

सवाल तो इतने थे कि जिनके जवाब प्रिंसिपल मैम भी नहीं दे सकती थी। प्रिंसिपल मैम ने तो अपनी भड़ास निकाल ली थी पर ये प्रीतियां तो किसी से भी नजरें नहीं मिला पा रही थी। बेशक प्रिंसीपल मैम के लिए एक रोज का अनुसासन रहा होगा  पर उन सारी प्रीतियों के लिए तो जिंदगी भर के तानों की बौछार बन गई थी। कुछ तो गम मे डूबी खामोश ही रहने लगी तो कुछ ने बोलना ही बंद कर दिया। अब हर दिन जब भी क्लास में टीचरों की निगाहों से उनका सामना होता तभी उन सभी प्रीतियों की नजरें नीचे को झुक जाती और चेहरे पर गंभीरता छा जाती। अब तो हर दिन उनका ये रूप उनके लिए एक नई सी भूमिका अदा कर चुका था। जहॉं सब प्रीतियों का ये हाल था वहीं मेरी क्लास की प्रीति भी सभी के तानों का शिकार बन रही थी।

‘‘अई मॉं, कितना गंदा पिटी थी तू। अब तो पता चल गया। उतर गया सारा फैशन?  जा जाकर कोने में जाकर बैठ जा। मिल गया होगा चैन।‘‘

क्लास का हर साथी प्रीति को छेड़ती जा रही थी पर किसी पर भी उसकी उस खामोशी का कोई असर नहीं था। प्रीति की ये खामोशी दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी। दिन भर दौड़ते कदम, मस्ती से खिलखिलाती पूरी क्लास को एनर्जी देते उसके ये खेल पकड़न-पकड़ाई, छुपन-छुपाई और पाली खेलता उसका गोल-मटोल से चेहरा अब खामोशी ओढ़े हुए था। 

जब से ये दीवार पर लिखी लाइन का किस्सा आया तब से तो प्रीति इतनी बदल गई कि जैसे कल ही दाखिला लिया हो। हमारी क्लास की प्रीति की खामोशी कई क्लासों की प्रीतियों की खामोशी को बयां कर रही थी।

"ऐ पता है, 9वीं क्लास की प्रीति बहुत रो रही है।”  

आरती    

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