Wednesday, 24 August 2011

छुपने से खोने तक




सड़क के किनारे लगी वे दुकानें को किसी को भी अपनी ओर खींच सकती है, बुला सकती हैं, रिझा सकती है और लालसा से भर सकती है। 

हर रोज दोपहर १२ बजे से यहां एक हुजूम लगता है। जो भी आता है वो इसी कोने का हो जाता है। कभी घंटों के हिसाब से यहां पर आवाजें गूंजती है तो कभी खामोशी भी इसकी एक आवाज बन जाती है। मगर इसका सांस लेना बड़ता जाता है। ये जगह असल मे छुपने के लिये बनी है या यूं कहे की गुम हो जाने के लिये इस जगह को बनाया जाता है। 

कोई किसी से छुप रहा है तो कोई यहां पर आकर किसी लुफ्त मे खो जाना चाहता है। ये उस मुसाफिर पर निर्भर करता है कि वे छुपने आया है खोने

यशोदा

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