Monday 8 August 2011

कहां रहते हैं और कहां जायेगें

दरवाजों की भीड़ लगी थी, सभी लोग उन दरवाजों को देख रहे थे। कोई उनके पीछे से कुछ सुना रहा था। सभी दरवाजे खुले थे। ये किस के है?, कहां से है?, कब से हैं और यहां पर कैसे आये? को कोई नहीं जानना चाहता था। हर दरवाजे पर अनगिनत नाम लिखे थे। सभी उन नामों मे अपने नामों को ढूंढ रहे थे। अब खुरचना चालू हुआ। दरवाजे के पीछे से वो सुनाई देने वाली आवाज़ भर्राने लगी। दरवाजें लुढ़कने लगे। जैसे व्याथा मे पुकार रहे हैं। धीरे धीरे बन्द होने लगे। वो सुनाई देने वाली आवाज़ भी गायब होने लगी। खुर्चना अब भी चालू था।


खुली बोरी, खुली अलमारी, खुला टीवी, खुला दरवाजा, बंद बक्सा, खुला बिस्तर सब कुछ सड़क के एक किनारे पर लदा पड़ा है। एक आदमी उनको भर रहा है। देखने वाली नज़रें उनमे कुछ तलाश रही है। जो खुले है वो सबके है और जो बंद है उनके किसी के होने की चाह बसी है। 


कई तस्वीरें दीवारें पर चिपकी हैं। कोई आदमी नहीं है और न ही कोई औरत। हर रात कोई इन तस्वीरों की भीड़ में कोई न कोई तस्वीर शामिल कर जाता है। कोई भी पुरानी तस्वीर नहीं है सब नई है जैसे कोई है जो सबके साथ है। मगर किसके साथ कब है ये पता नहीं।


वो दिवार के पीछे से कुछ बोल रहा था। उसके बोल मुझ तक नहीं आ रहे थे। मगर उसके कांपते लब्ज़ों के लहलहाहट मुझतक आ चुकी थी। ये कोई जीवन की दास्तान नहीं थी और ना ही कोई दर्द था। सब उसकी ओर कान लगाये थे। वो काफी दिन के बाद लौटा है। हर किसी के पास उसको देने और सुनाने के लिये एक नई दास्तान है।

वो सुनाते हुए अपने साथ लाये बक्शे को खोले जा रहा है। निगाहों को उसके इस खेल ने अपने वश मे कर लिया है। वो कहां से आया है, कहां जायेगा को लोग बिना जाने उसके अभी की बनाई दुनिया मे घूम रहे हैं। जैसे कोई नाव बहते समंदर की तेज लहरों पर गोते खा रही हो और वापसी आने की बजाये और अन्दर जाने के लिये जोर पकड़ रही हो।

यशोदा

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