Wednesday 9 October 2013

किरायेदार


सामने वाले घर की खिड़की पर न चाहकर भी ध्यान बार-बार जा रहा था। उस खिड़की से दिखाई देने वाले शीशे में झलकता मेरा अक्श, आज की हकीकत से रू--रू कराने की बेतोड़ कोशिश में था। तभी एक चेहरा उस शीशे के आगे आ खड़ा हुआ। उसकी घूरती आँखों ने पल भर के लिए कुछ खोजा फिर जैसे चुप्पी भरे अपमान को जाहिर करते हुए पलटकर खिड़की का परदा खिसका दिया।

वो छवि, वो हकीकत उस आइने के साथ मुझ से दूर हो गई। सोच फिर उसी इंतज़ार पर आ थमी। सिर रेलिंग पर टिक गया लेकिन ख्याल कुछ देर कहीं गली के छोर पर ही पसर गए। अब भीतर का अंधेरा सच में भीतर उतरने लगा था। अचानक बगल वाले मकान की चौथी मंजिल पर लुप से बल्ब जला और उसकी रोशनी का कतरा, घर की टूटी चादर से दीवार पर उतर आया। पलट कर आगे बढ़ी तो पाया, जिन्दगी के खुरदरे पलों से निकलकर कुछ नया था। कुछ अपना। सामने खड़ी दीवारें नयी दुनिया बसाने का न्यौता दे रही थी। नये कोने दोस्ती करने को उतावले थे। एक वो नयी आवाज़, वो भी शायद। एक सुकून गहराई तक उतर गया। रोशनी का वो कतरा यूंही दीवार झाँक रहा था। लग रहा था कुछ अपनी कहने और कुछ मेरी सुनने आया हो। एक पतली चंचल सी आवाज अचानक उस ओर से सुनाई दी, "काम इतना हो जाता है न आंटी, बस कोल्हू के बैल का तरह जुते रहो, न दिन को चैन है, न रात को आराम। माँ ठीक ही कहती थी कि जितनी मौज करनी है कर ले, दूसरे घर जाकर तो नानी याद आ जाएगी क्यूँ?”

Monday 7 October 2013

वो आई थी क्या

"अरे भाभी वो आई थी क्या?” घूंघराले बाल व बड़ी-बड़ी आंखों वाले उस लड़के की आवाज़ अभी गले से निकली ही थी कि अपने सारे काम को छोड़ भाभी ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा,"मत पूछो, बेचारी सुबह से कितने चक्कर लगा चुकी हैं कभी कपड़े प्रेस करवाने के बहाने, तो कभी मेरे बुलाने पर, अब तक 4बार आ चुकी है।" कहते हुए भाभी का चेहरा घूम गया और हिलती जुंबा कुछ पल उस लड़के के चेहरे पर खामोशी छोड़ गई जो ‘जे’ ब्लॉक तो कभी, ‘के’ ब्लॉक को ताड़ता हुआ दोबारा से उनकी ओर तांकने लगा। सिर से खिसकते अपने पल्लू को उठाते हुए उन्होने सिर पर रखा और फिर आँखों में आँखे डाल उससे बतियाने लगी। दोनों का यूं बतियाना दिल में एक ऐसा अहसास छोड़ने लगा था जिसका कोई अंत नही था।

"जरुर किसी लड़की की बात कर रहे होगें" मन में मचलते मेरे इस ख्याल ने अभी कुछ आगे जानना ही चाहा था कि अचानक उनके इशारो ने मुझे और गहराई में डुबो दिया। पलकों को उठाते हुए, प्रेस को साईड रख उनकी नजरें अपने ठीए के सामने पड़ते 4मंजिला बने उस टाईलों वाले मकान पर जा टिकी जिसकी बालकनी पर खड़ी कान पर फोन लगाए बतियाती वो लड़की ही शायद उनके बतियाने का विषय थी। कभी दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए बुदबुदाते, तो कभी हंसते हुए फिर से उसी ओर देखने लगते। दोनों की बातों को सुन पाना जितना मुश्किल था उतना ही उनके चेहरे पर उभरते भावों को देख बातचीत का मुद्दा जानना बेहद आसान। वो इस कदर आपस में खोए थे कि उन्हें अपने बगल में अष्टा-चक्कन खेलती उम्रदराज टोली तक का कोई अहसास न था। वाईट शर्ट व ब्लैक पैन्ट में खड़ा वो लड़का कान में हैन्डफ्री लगाए उनकी टेबल पर इस कदर झुका हुआ था कि जैसे अपने सालों के राज बता रहा हो। वो भी पूरी तरह से उसकी बातों के साथ बहने लगी थी। हाथ में थमी प्रेस अब हाथ में नहीं टेबल के साईड में रखी आराम फरमा रही थी। लोहे कि बिछी चारपाई पर रखे कपड़े जिनमें से कुछ सज-सवरकर करीने से तय दर तय लगे हुए थे, तो कुछ उन लाल, पीली गठरी में से झांकते हुए अपने निकलने का इंतजार कर रहे थे। जिनमें कुछ तो ऐसे भी शामिल थे जिन्हें शायद पानी की छींटे दे, मोड़कर रख वो भूल गई थी।


Thursday 3 October 2013

सुर्खियों में बटा मजाक

हर चर्चे निगाहें तांक कर शुरु होते और बातों में प्यार बनकर रह गुजरते। चाहें वो गली का माहौल हो या बाहर की सगंत या हो वो स्कूली दुनिया। जिसमें ये नज़ारा देखना व सुनना आम ही लगता है। जहां जब-जब इनकी सुर्खियां बढ़ती वहीं लोगों की दिल की बैचेनियां भी। किसी का नाम लब्जों पर लाकर थोड़ा मुस्कुराया तो सवाल सिर पर आ बरसते। कौन है ये? कहां रहती है? हमें नहीं मिलवाएगा क्या?

कुछ न बोलते न सुनते बस एक छोटे से नाम कि इतनी लम्बी कहानी बना देते और यहां पर कहानी बनते देर भी नहीं लगती। चाहें वो नाम किसी दोस्त का हो या परिवार के सदस्यो का हो बस, जिसे देखते ही बस इशारे बाजी शुरु हो जाती। और उस नाम को अपने से जोड़ते हुए इतराते। इन्ही लम्हों की कहानियां कभी न कभी गलियो में शरीख हो जाती है।

हाल ही में पेपरों के चलते हम सभी दोस्त एक साथ स्कूल जाते थे। पेन्ट में पैन रख और एक गत्ता पेन्ट की लुप्पी में टंगा सभी दोस्त हम टशन से निकलते। क्लास में भी एक साथ बैठते। पूरी क्लास में बस मैं, अतुल, लीलू और विक्की सबसे शरारती लड़के हैं। जब चाहा किसी के पास बैठ उस पर कई तड़तडाके छाप मारते और उन्हे किलसा देते। और सबसे खास शौक था हमारा कि अगर कहीं चॉक पड़ी मिली तो ब्लैक बोर्ड या दिवारों पर हम सभी अपना-अपना नाम लिखते। एक बार हम सभी दोस्त काफी देर से पहुंचे। अफरा-तफरी में कही और नज़रें घुमाए बिना पेपर की सीट पर निगाहे गड़ाए बैठे रहे। पैन चलता रहा और नज़रें किसी और की सीट पर टिकी रही। एक सवाल का जवाब किसी को न मिला सभी इंतजार कर रहे थे। समाजिक के सर के आने का अब तो फिक्र नहीं था। क्योंकि पास होने तक के नम्बरों तक पेपर कर ही लिया था। तो फिर तो हम यारों की टोली बन बस सब को चिड़ाने का जरिया तलाशने लगे। आज तक की मशहुर फिल्म गदर जिसके डायलॉग मन को भावुक कर देते है। मगर हम कहां ऐसे दर्शक हैं। जो किसी फिल्म को फिल्म की तरह देखे। बस उसके डायलॉग को अपनी हॅंसी -ठिठोली में शामिल कर सबको हॅसने का मस्त मौका देते हैं। जैसे कि उस फिल्म के किरदार को अपने बाकि दोस्तों को बना उन्हे हंसाने के लिए उन डायलॉगों को अपनी जान डाल देते। ताकि ये यादे हमें याद करने के लिए बनी रहें। किसी को सनी देओल बनाते तो किसी को वो हिरोईन का किरदार सोचते। फिर कोने में खड़े होकर सभी एक दूसरे पर छाप मारते जैसे -

अरी साकिया बाहर मत जा। मगर क्यूं - क्यूं पाप्पे?
क्योंकि बाहर पंजाबी तुझे मुझसे छिन लेगें।   
सकिया -क्या पाप्पे?
सनी - तेरी गाड़ी की चाबी 11 जो तेरी मा ने दी थी।


हमारे पहली बार के मशहूर पराठें

मेरी  दोनों बड़ी बहनों की शादी हो गई थी। मम्मी नानी कें घर चली गई थी, यानी हम पर निगरानी रखने वाला कोई और हमारी फरमाइशें पूरी करने वाले लोगों में से उस दिन कोई घर पर नहीं था । उस वक्त मैं लगभग चार या पाच साल की थी। सुबह तो खेल कूद मैं कब गुजर गई पता भी नहीं चला लेकिन दोपहर होते होते हमने रसोई का एक एक बर्तन टटोलना शुरू कर दिया। अब पेट में चूहे कूद रहे थे। मुझसे 2 साल बड़ा मेरा भाई कार्तिक भी बार-बार फ्रिज़ से कुछ खाने के लिए  ढूँढ रहा था। लेकिन फ्रिज में भी कुछ नहीं था। बस एक टिफिन में आटा गूंदा हुआ रखा था। हम परेशान हो गए। इतने में हम दोनों से बड़ा भाई अनिकेत भी बाहर से घूम कर आ गया उसे भी भूख लगी थी तभी उदास कार्तिक कुर्सी पर से उछलकर खड़ा हो गया और अनिकेत के कंधे पर हाथ रखकर बोला, "सुन गदरू और अनिकेत भाई मुझे एक मस्त आईडिया आया है। क्यों ना हम पराठे बनाए वैसे भी आटा तो गूदा है ही और मैंने एक बार कन्चन बहन को पराठे बनाते हुए देख था।"
 
कार्तिक के आईडिये ने आनिकेत और मेरे अन्दर जोश जगा दिया और फिर?
 
भूख तो क्या-क्या करने पर मजबूर नहीं कर देती। मैंने झट से फ्रिज खोल कर आटा बाहर निकाला। अनिकेत ने गैस पर तवा चढाया और कार्तिक ने लपक कर कुलर बन्द कर दिया। अब हम तीनों ने फटाफट अपनी जिम्मेदारी बांट ली। अनिकेत लोई बनाएगा। मैं पराठा बैलूगी। और कार्तिक घी लगाकर उसे सेकेगा।
 
योजना के मुताबिक हम तीनों ने कमर कस ली। अनिकेत ने अपने स्टाईल में लोई शुरू कर दि और मैं उस लोई को पूरी मेहनत के साथ बेलने लगी। वह कभी लम्बी हो जाती तो कभी चोकोर पर कम्बख्त गोल नहीं  होती। हमने बहुत कोशिश की और आखिरकार मैं कुछ हद तक गोल पराठा बेल पाई। अब बारी कार्तिक की थी। उसने पहले से ही तवे पर घी डाल दिया था और जब तक पराठा उसके पास पहुंचा तब तक घी काफी गरम हो चुका था। कार्तिक बड़े ही सलिखे से हथेलियों पर को नचाता हुआ खड़स हुआ और पूरी ताकत से पराठे को खोलते हुए तवे पर दे मारा और कूद कर पंलग पर चढ गया। पराठा जैसे ही तवे पर गिरा छुन सी आवाज के साथ सारा घी मेरे घुटनों पर और अनिकेत के हाथों पर आया। हम दोनों तेजी से चीखकर पीछे के तरफ खिसक गए। पूरे कमरे में तेल की घसक और घूआ फैल गया। थोडी देर के लिए तो लगा। सब एक सपना है पर फिर मेरी सिसकियां सुनाई दी और अनिकेत का चेहरा पीला पड़ गया। मानो उसे कुछ नहीं सुझा रहा था। जले पर पानी डालने वाली कहावत थोड़ी-थोड़ी याद आई तो वह जनाब उठा आधी बालटी भर कर पानी मुझपर उढेल दिया। मैं कपड़ों समेत पूरी गिली हो गई। इससे पहले कुछ समझ पाती। उसने मुझे प्यार से सहलाना शुरू कर दिया और बोला, "कुछ नहीं हुआ चुप हो जा। सब ठीक हो जाएगा।" कहकर उसने मुझे तैयार करना शुरू का दिया शायद उसे डर था कि मम्मी मेरी चोट देखेगी तो उसे बहुत डांट पड़ेगी इसलिए जब तक शाम के साढे चार भी बज गये थे और मम्मी का घर आना हुआ। उसने मुझे बिलकुल साफ और सुन्दर बनाकर चुपचाप बैठा दिया। मम्मी ने सबसे पहले मुझे देखा और फिर बाद में पूरे घर को। उन्हे पूरा घर साफ दिखा। वो हमें मुस्कुराता देख थोड़ा रूकी और फिर शक़ के कारण किचन में गई। वहां पर तो सारा उन्हे एक ही नज़र में मालुम पड़ने ही वाला था। तभी हमने सबसे पहले अपनी भूख की कहानी मम्मी को सुनाई और फिर बाद में सारे घर वाले यह पुरी कहानी सुनकर खुब हॅसे और हमारे पराठों की चर्चा सभी पर छाई रही।
 
रितिका

Tuesday 1 October 2013

खामोशी की लपटें

समंदर से सटे शहरों में अक्सर बाढ़ के ज़लज़ले आते रहते हैं। लहरे बह कर खामोश समंदर पर तैरती हैं।

आज भी रात ऐसे ही ढली थी जैसे रोज़ सूरज डूबता है। अपने मुख में शहर की तमाम धड़कनों का खोफ और बैखोफ समाये। राहो पर उन बेपरवाह भीड़ के कदम आज़ादी से निकल पड़ते हैं जो कभी बेशुमार होकर एक नये जमावड़े की तलाश में रहते हैं। आज भी खोये से ठिकाने अपने वक़्त पर ही लगे थे। खुशबूएं वही पुरानी थी। सैकड़ों आवाज़ों की आड़ी-तेड़ी कतारें आज भी घर से वैसे ही निकली थी जैसे रोज अपने को आजमाती हैं। और रोज़ तलाशती हैं अपने से दिखने वाले चेहरों को। नज़रे वहीं घुली थी जिनसे वासता रोज़ एक मुलाक़ात का था। वही चौक, वही चौहराहें, वही सड़कें, वही गलियारें। शाम की खामोशी किस कदर बीत जाएगी। इस रोजाना के आंगन में इस खामोशी की चिंगारियां कभी ऐसे भी भड़क जाएगी जहाँ शौर की जुबां कभी थमेगी नहीं। पैरो की दस्तक कभी रूकेगी नहीं। वो रास्ते जो सैकड़ों की तदात से लैस रहे थे। वो दरवाज़े जो कभी बंद नहीं होते थे। वो सारे ज़र्रे जो कभी एक समा थे। इस खामोशी को ऐसे भुगतेंगे कि मुसर्रत हवाओं के झोके, कभी शौक से भी बहेंगे। क्या पता? इस तारीख से हम इस तरह भी वाकिफ होंगे?

खामोशी की लपटें शौर की चिंगारियों को खा जाती है। मजा तो तब है जब इन दोनों के दरमियां हम अपनी पुकार को जीवित रखें।

गुड्डू 

Wednesday 31 July 2013

शहर अब भी अपना ही है

'लोग उसे नहीं जानते जो आपके अन्दर है - लोग तो उसे जानते हैं जो दिखता है।'

बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर देती है ये बात। इसपर बहस करने वाले और लड़ने वाले इतने लोग खड़े हो जाते हैं कि हर कोई इसको फेल करने या कहने वाले को कोई ढंग का जवाब देने के लिये अपने - अपने शब्दों और ज्ञान के हथियार लेकर चले आते हैं। हर किसी के पास इतनी बातें और जवाब होती हैं कि जो इसे निस्तनाबूत कर सकती हैं। लेकिन जितनी भी बार ये युद्ध हुआ है। उस युद्ध में सभी से सिर्फ, "कारण" ही हाथ लगे हैं। 'इस बात का कोई मोल नहीं है' तो कोई कहता है 'ये बात बेमोल है।' स्कूल में पढ़ाया जाता था की अनमोल और बेमोल को समझो तो एक ही मायने बनाते हैं। जैसे - अजय और विजय के साथ है। एक जो कभी हार नहीं सकता और दूसरा जिसे कभी हराया नहीं जा सकता। यहाँ पर भी ये बात कुछ इसी तरह से अभी तक टिकी हुई है। एक जिसका कोई मोल ही नहीं है और दूसरा जिसका कोई मोल नहीं लगा सकता।

इसके साथ टक्कर लेने वाले कई डायलॉग है जो आसपास बहुत नज़र आते हैं। जैसे - "मैं आपकी रग़ - रग़ से वाकिफ हूँ।", “आप अन्दर से कुछ और हो और बाहर से कुछ और।" , "आप जैसे दिखते हो वैसे हो नहीं।"

किसी मे खाली अंदेशा महसूस होता है तो कोई दावे के साथ खुद को पेश करता है। मगर बात में इज़ाफा करने या बात को घटाने के अलावा क्या हो सकता है? वैसे ये खाली इस "बात" की ही बात नहीं हो रही। इसमें अनेकों लोग हैं, हम हैं, दोस्त हैं, हमारे टीचर हैं, वालदेन हैं, हमसफ़र हैं यहाँ तक की सरकार भी है। तो खाली हम बात से नहीं,  खुद से बहस करने के लिये इस बात को उठा सकें तो ज़्यादा महत्वपूर्ण और लाभदायक बात हो सकती है।

अब इसका अहसास कैसे कर सकते हैं - कई बार हर किसी को पलट – पलट कर देखना होगा। उसे एक टक लगाये देखना होगा। उसको घण्टों सुनना होगा। उसके शब्दों को अपनी बनाई समाजिक और खुद की रची दुनिया से बाहर जाकर पढ़ना होगा। इससे ज़्यादा और हम क्या कर सकते हैं?

हाथ बढ़ाने से अगर चीज़ हासिल हो जाती तो कितना आसान हो जाता जीना! इस लाइन को गुज़रे हुए कई साल बीत गये हैं। वक़्त भाग गया है खुरदरी जमीन को छोड़कर। अपने ढंग और अपने अन्दाज बन गुजरे हैं यहाँ की हवाओ में। कैसे न कैसे लोग चीज़ों और अन्दाजों में घुस जाते हैं और बना ही लेते हैं कुछ सपने।


वैसे खुश रहने के लिये किसी को ज़्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ता। बस, रात नींद में नये सपने सजाओ, काम पर हुई बेज़्जती का मज़ाक बनाओ और रखलो अपनी जेब में खुशी की तमाम टिकटें। ये वे टिकटें हैं जिनको ब्लैक भी किया जा सकता है। इसके लिये तो लोग जैसे कतार में खड़े हैं बस, पहले हाथ बढ़ाने से डरते हैं। कहीं आसपास में कोई मुज़रिम करार कर देने वाला कर्मचारी न खड़ा हो और फिर न जाने क्या किमत लगाई है आपने इस ब्लैक में देने वाली टिकट की।

Monday 22 July 2013

मेरे घर की रेलिंग

रे, रे, रे, लि, लि, लि, ग, ग, ग,  रेलिंग...
सब मुझको कहते हैं रेलिंग

जब भी कोई गली में जादू दिखाने आता
भाग के हम जाते
रेलिंग से देखते वो सब जादू

रे, रे, रे, लि, लि, लि, लि, ग, ग, ग, रेलिंग
सब मुझको कहते हैं रेलिंग

का, का, का, हि, हि, हि,
कहीं तरह का मिलता, जैसे मरजी ले लो
लम्बे, सीधे, उल्टे
म, म, म मिलता हूं

दि, दि, दि, वा, वा, वा, लि, लि, लि,
दीवाली को मुझ पर सब पेंट करते हैं,
घर से ज़्यादा मुझको लड़ियों से सजाते हैं

रे, रे, लि, लि, लि, ग, ग, ग - रेलिंग
सब मुझको कहते हैं रेलिंग


लता, तानिया

Monday 15 July 2013

दादी का बक्सा

दोपहर का समय था। मेरी दादी यहाँ-वहाँ बिखरे अपने कपड़ों को लेकर बहुत परेशान हो रही थी। वह कई दिनों से सोच रही थी कि वो एक बक्सा खरीदेंगी लेकिन कभी वो दिन या मौक़ा नहीं आ रहा था। कभी वो ही अपनी छोटी सी पोटली में बंधे पैसों को गिनकर चुप हो जाती क्योंकि वो कम लगते तो कम ज़्यादा होने पर उनमें उन्हें और जोड़ने का मन होने लगता पर उनके लिए बक्सा कभी जैसे नहीं आने वाला था।

मगर आज वह अपने पुराने कपड़ों को काफी देर से देखे जा रही थी! कभी हाथों को बड़े प्यार से ऊपर घुमाती तो कभी आँखें। जैसे एक-एक कपड़ा उनके लिए एक-एक दास्तान बना हो। थोड़ी देर उसे निहारने के बाद वो उठी और इस काम को करने की ठान ली शायद इसका दूसरा कारण ये भी रहा कि आज वो अपनी नौकरी से रिटायर भी हो रही थी। बड़े दिनों बाद उन्हें घर में रहकर अपनी चीज़ें सँवारने का मौक़ा भी मिला था। उन्होंने जोरों से कहा मैं एक बक्सा खरीदूँगी मगर कौन सा लेना है? कैसा होगा, कहाँ से लेंगे, कितने का होगा, क्यों ले, क्या रखना है, कहाँ रखना है, बेकार है, अच्छी कम्पनी का, न जाने अनेक तरह की बातों में दिन कब गुजर गया पता ही नहीं चला लेकिन शाम होते ही दादी को फिर अपने बक्से की याद सताने लगी। बस फिर क्या था दादी ने मम्मी से कहा, ‘सुन शकुन्तला तुझे मेरे साथ चलना है।’ मम्मी दादी की बात पर हमेशा सतर्क व चैकन्ना हो जाती हैं। वो तुरंत ही बोलीं, ‘हाँ, चलिए!’ और वो ही क्या घर, गली, रिश्तेदार सभी हिल पड़ते है उनकी आवाज़ पर।

मैं और मेरे घर की घड़ियां

वैसे तो मेरा नाम सिमरन है और 13 साल की हूँ पर ज़ेहन में पनपते वो ख्याल जिन्हें चाहते हुए भी मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती अक्सर मैं खुद से ही इतनी बहस में लगी रहती हूं कि कई बार मुझे दादी भी डांट देती है कि तू किस दुनिया में खोई है पर पता नहीं कब मैं इस आदत से छुटकारा पाऊंगी। घर में दादी हो या छोटा भाई (पवन) या पापा जिनके साथ मेरा बहुत करीबी रिश्ता है।

पवन, जो चौथी क्लास में पढ़ता है। कहने को तो मुझसे छोटा है पर लड़ने में मुझसे भी तेज़ है। कई बार मैं कुछ खेलने के लिए सामान उठाती हूं तो वो उसी वक्त उस सामान को लेने के लिए उठेगा। अगर मैं नहीं दूंगी तो मुझे दादी से डांट खिलवाएगा। गुस्से में कई बार मैं उसे चांटा भी मार देती हूं। जब लड़ने के बाद हम दोनों अलग हो जाते है तो मुझे अफसोस भी होता है कि मैंने क्यों उसे मारा आखिर मेरा एक ही तो छोटा भाई है जिसे मैं अपनी हर बात बताती हूं। अपने स्कूल के किस्सों को लेकर कोई भी बात हो हम मजे से बैठकर करते है लेकिन हम दोनों का लड़ने का केवल एक बहाना है क्योंकि लड़ने के तुरंत बाद वो फिर से कुछ न कुछ शैतानी करने लगता है और मैं तेजी से उसकी उन हरकतों पर हंसने लगती हूं।

उसका सपना है कि वो बड़ा होकर खूब पैसे कमाएं। खेलने में वो बहुत ही तेज़ है। कई बार अगर हम दोनों गली में रेस लगाते है तो वो मुझे भी हरा देता है। हम दोनों रात को दादी के साथ सोने के लिए खूब झगड़ा भी करते है फिर भी वही दादी के पास सोता है। कभी-कभार अगर वो भूल जाता है तो मैं जल्दी से जाकर दादी के पास सो जाती हूँ।

दादी जो हम दोनों को रात में सोते वक्त कहानी सुनाती है मुझे उनकी एक कहानी बहुत अच्छी लगती है। अक्सर जब भी मैं नाराज़ हो जाती हूँ या कई बार गुस्से से खाना खाने से मना कर देती हूँ तो मुझे दादी प्यार से सहलाते हुए हाथ में एक रुपया थमाते हए कहती है, ‘सुन... एक था राजा, एक थी रानी। एक बार राजा शिकार के लिए जा रहा था रानी उससे पूछती है, तुम कहां जा रहे हो? राजा बोलता है अभी आ रहा हूं। रानी पूछती रह जाती है और राजा चला जाता है। इस बीच दादी एक सवाल पूछती है, ‘कहां गया राजा?’ मैं अपने आंसूओं को पोंछते हुए कहती हूं, दादी जंगल गया शिकार करने! सुनकर झुर्रियों से भरे उनके चेहरे पर धीमी सी मुस्कुराहट जो मेरे उन आंसूओं की धारा को रोकती आ जाती है। दादी जो एक मम्मी की तरह हमें प्यार करती है दादी के हाथ के बने कड़ी-चावल और गाजर का हलवा मैं बड़े शौक से खाती हूँ। कई बार जब दादी की तबीयत खराब हो जाती है तब मैं खाना पकाती हूं लेकिन हमेशा दादी ही पकाती है। साठ साल की उम्र में भी दादी खूब फुर्तीली है। सुबह जब स्कूल जाती हूं तो दादी ही मुझे प्यार से उठाते हुए कहती है, ‘उठ जा सिमरन!’ फिर मुझे नाश्ता कराकर स्कूल भेजती है। वैसे तो घर में सभी मुझे कहते है लेकिन स्कूल व दोस्तों में मुझे जानवी कहकर पुकारते है। मैं पांचवीं क्लास में पढ़ती हूँ। मेरा सपना है कि मैं बड़ी होकर टीचर बनूं। वैसे तो हर किसी के सपने होते है कुछ न कुछ बनने के लेकिन पता नहीं उनके वो सपने पूरे भी होते है या नहीं। पर मैं अपने इस सपने को पूरा करने के लिए अभी से ही जुगत में लगी हूं। पापा, घड़ी का काम करते है। पुरानी घड़ियों को नया बना देते हैं। टूटी, फूटी, बेकार ये शब्द उनके लिये कुछ भी नहीं है। इसलिये हमारे घर में घड़ियों की कोई कमी नहीं है। साथ ही साथ उनमे से कुछ बोलती घड़ियां तो हर एक घंटे के बाद में जुगलबंदी करती है। जैसे बताती हो की मेरी आवाज़ में तुझसे ज्यादा दम है। मुझे उन्हे सुनना अच्छा लगता है। पापा सुबह जाते है और रात को आते है। वैसे तो पापा हमारी हर बात मानते है लेकिन जब उन्हें गुस्सा आता है तो सभी शांति से बैठ जाते है। मम्मी जिनकी तो आज तक न मैंने शक्ल देखी है, न कभी मां का प्यार पाया है। कई बार जब औरों की मम्मी को देखती हूं तो आंखों में आंसू तो आ जाते है लेकिन देखकर मन खुश भी हो जाता है।  सोचती हूं काश मां होती और वो भी मुझे इतना ही प्यार करती। मां की कमी पहले ज्यादा खलती थी पर अब नहीं। दादी और पापा ने मां से भी बढ़ कर प्यार दिया है। शायद अगर वो भी होती तो भी दादी और पापा से बढ़कर प्यार न दे पाती। मां मुझे छोड़कर चली गई। कई बार सोच-सोच कर दम घुटता है कि वो हम दोनों भाई-बहन को छोड़कर कैसे चली गई। महीने में बुआ चक्कर लगाती रहती है। जब कभी मां की बहुत याद आती है तो बुआ से फोन पर बात कर लेते है। वैसे दादी मेरे और पवन की आंखों में आंसू आने ही नहीं देती। पापा हमारी हर ख्वाहिश को पूरा करते है।

मैं और मेरी घड़ियां अब बातें करते हैं। वो म्यूज़िक बचाती हैं और मैं उनपर अपना गाना गुनगुनाती हूँ। मैंने घड़ियों के ऊपर एक कविता भी लिखी है। पर अपने दोस्तों के अलावा कभी पापा को नहीं सुनाई। पर एक दिन सुनाऊगीं जरूर

सिमरन

स्कूल में कुछ ऐसी जगहें भी

हर जगह स्कूल रूटीन में अपनी एक पहचान लिए हुए है। ये साइंस लेब है, ये लाइब्रेरी, ये ड्राइंगरुम और ये मैदान। इससे आगे कुछ नहीं पर इन जगहों की सीमा से बाहर भी कुछ ठिकाने है जो हमारी बेचैनियों को बाँटने का अड्डा बनते हैं। जहां हम एक-दूसरे से बतियाते, खेलते और वक्त बिताते हैं।

जब क्लास की नीरस खाली दीवारें बोर कर देती तो हम इन जगहों की तरफ़ बढ़ चलते। गैलरी के पास बड़े-बड़े गोल छेदों वाली वो दीवार मुझे भी कुछ ऐसे ही बुलाती है। गर्मियों में उन छेदों से ठंडी हवा के झोंके अंदर आते है और सर्दियों में धूप उस दीवार से छनकर फर्श पर एक खूबसूरत डिजाइन में फैल जाती है। हम ठिठुरते हुए उस धूप में गुट बनाकर बैठ जाते है। फर्श की धूल को फूँक मार कर उड़ाते और एक घेरा बना लेते। कभी-कभी लूडो बीच में रखकर एक-दूसरे से शर्त लगाते "चल देखते है कौन जीतेगा?”

आधी छुट्टी का पूरा समय और कई बार तो खाली पीरियड भी वही गुजरता। पेपरों के वहाँ अपनी किताबें लिए कुछ बच्चे बैठकर पढ़ते दिखाई देते तो कुछ बातें करते हुए अपना काम पूरा कर लेते। जगह पर जाए बिना तो अब मन ही नहीं लगता। जब कभी हाउसवाली लड़कियाँ वहां ड्यूटी देती है और हम अपनी क्लासों में कैद हो जाते है। बस तब ही वो जगह सूनी नज़र आती है वरना तो चढ़ने उतरने वाली और दीवार के झरोखे से बाहर का नज़ारा देखने वालों का तांता वहाँ लगा ही रहता है।

मुझे आज भी याद है एक रोज़ हम सब वहीं बैठे थे हमारे बीच 16 पर्ची का खेल चल रहा था। खेलते-खेलते हमें काफी देर हो गई थी। आधी छुट्टी कब बंद हो गई पता ही नहीं चला। हमारे पास बातों की एक बड़ी सी पोटली थी जिसमें से हम कुछ न कुछ बांटते भी जा रहे थे कि अचानक रेखा मैडम ने दूर खड़े होकर जोर से सीटी बजाई। हम सब जैसे अपनी जगह पर खड़े-खड़े हिल गए। पीछे मुड़कर देखा तो उनके हाथ में एक मोटा सा डंडा था जिसे लिए वो हमारी तरफ़ ही बढ़ रही थीं। फिर तो हमने भी जो रफ़्तार पकड़ी की एक-दूसरे को भी भूल गए और धक्का-मुक्की करते हुए वहाँ से फ़रार हो लिए। बाद में क्लास में जाकर हम खूब हँसे।

अब हम जब भी उस जगह बैठते थे बड़े होशियार रहते थे। हमेशा ये खबर रखते थे कि कहीं मैडम तो नहीं आ रही पर कुछ भी हो हमने वहाँ जाना नहीं छोड़ा जिस तरह स्कूल के बाकी ठिकानों पर एक रौनक लगी रहती उसी तरह हम अपनी इस जगह को भी जिंदा रखते। आधी छुट्टी के समय बच्चों की भीड़ से घिर जाने वाला वो कोना भी कुछ ऐसी ही रंगत लिए रहता है। जहाँ बैठने के लिए टाइलों वाला एक बढिया सा सीढ़ीदार चबूतरा और शहतूत का बड़ा सा पेड़ है।

यहाँ सभी अक्सर घनी और ठंडी छाया तलाशते हुए पहुंचते है। पहले जब यहाँ मठरी की दुकान हुआ करती थी तब तो बात ही कुछ ओर थी। ग्रिल के उस पार हथेलियाँ ताने चिल्लाते हुए, ‘आँटी मेरी चार मठरी, आँटी पहले मुझे छः दे दो, नहीं मेरी तीन, अरे भाई सात पकड़ा दे इधर’ ढेरों वो जमघट तब तक वहां बना रहता जब तब कि दुकान पर मठरी खत्म न हो जाती। उसके बाद अपनी सहेलियों के गुट में या किसी खास जोड़ीदार के साथ बच्चे उसी चबूतरे पर बैठ जाते। कोई बातें करता, कोई गाने गाता तो कोई खेल में लग जाता।

आधी छुट्टी बंद होने के बाद भी कुछ लड़कियाँ क्लास में न जाकर दीवार की आड़ में छुपकर वहीं बैठी रहती क्योंकि वहाँ किसी टीचर का आना-जाना कम ही होता है इसलिए एक बेखौफ़ निडर ठिकाने के रुप में वो जगह ज़्यादातर साथियों की पसंदीदा है लेकिन इस पसंद को वे सिर्फ़ क्लास से बाहर की जगहों पर ही कायम नहीं रखते, क्लास के भीतर भी कई ऐसे कोने है जहाँ बातचीत की महफिल सजती है। इस महफिल में और भी क्लासों के साथी आकर जुड़ जाते है। यहाँ खिड़कियाँ सिर्फ़ रोशनदान का काम नहीं करती सिर्फ कमरों की हवादार नहीं बनती बल्कि एक नई और खुली दुनिया को ताकने का ज़रिया बनती है। इन खिड़कियों से जैसे बाहर के नज़ारे स्कूल में उतर आते है या स्कूल में बैठी एक नज़र दूर किसी सफ़र पर निकल पड़ती है तभी तो सुबह क्लास में झगड़े का विषय यही होता है कि खिड़की के साथ वाले डेस्क पर कौन बैठेगा!

गदरु अक्सर अपनी सहेलियों से इसी विषय पर बहस करती नज़र आती है। सुबह एक बेंच खिसकाकर वह खिड़की के पास लगाती है और शान से वहाँ बैठ जाती है। उस खिड़की से स्कूल के पीछे की गली नज़र आती है। उस गली से गुजरने वाले फेरीवालों व लोगों को गदरू दिनभर देखती रहती है। वहाँ की आवाज़ों को ध्यान से सुनती रहती है। उसे लगता है माना वह अपनी ही गली में बैठी है। ऐसे में स्कूल उसके लिए जरा ज़्यादा मजेदार बन जाता है जहाँ वो खुद को बँधा हुआ महसूस नहीं करती।

अलीशा

Tuesday 9 July 2013

उनका बार-बार आना

"अरे बेटा, ऐसे ही बोलते है ये! इन्हें कुछ याद नहीं।" कहते हुए अपने दोनों हाथों से साड़ी के पल्लू को उठा सर पर रखती हुई वह बाबा की ओर निहारने लगी। जिनकी मोटी-मोटी आंखें और सिकुड़ती हुई सी सफेद भौंहे बिल्कुल स्थिर सी बस सामने ही उस हरी सी दीवार को देखे जा रही थी जिस पर पड़े ढेरों निशान और मटमैला सा रंग शायद उन्हें अपने और उनके सफ़र का अहसास करवा रहा था । फूले हुए होंठों के ऊपर से गुजरती सफेद मूंछे अपने अंदरुनी गुस्से को और तेजी से बयां कर रही थी जिसके साथ दिखाई पड़ता वो फूला हुआ चेहरा जो न जाने उनके गुस्से का कारण था या फिर अपनी खुद की उस तन्हाई का जिसे मैं पूरी तरह से तन्हा तो नहीं कह सकती क्योंकि उनकी उस तन्हाई में उनकी हमनवां भी शामिल है पर फिर भी इस दरमियां रिश्ते के बीच कुछ खामोशी है जिसे ये लफ़्ज बयां कर रहे थे। कोई मेरे पास नहीं बैठता, "क्यों मैं क्या अब इतना बुरा हो गया हूं जो मेरे ही बच्चों को मेरे पास आने से शर्म आने लगी है?”

"पूछो तो जरा इनसे क्या कमी है मुझमें?” एक ही सांस में बोलते हुए उनका पूरा शरीर  हिल गया और हाथों में थमी लाठी को पैरों के बीच टिकाते हुए वह दोबारा से बोल उठे, "बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ा था इन्हें मैंने। मुझे गांव छोड़कर आ गए थे ये। दोपहर का वक्त था। मैं अपने घर के बाहर चारपाई डाले लेटा हुआ था। लेटे-लेटे आंख ऐसी लगी कि एक बजे का सोया हुआ सात बजे सोकर उठा। सीधा इन्हें आवाज़ मारी।"

चारपाई के बगल में सिकुड़कर बैठी हुई अपने हमराही की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "पर उस पल इनकी भी आवाज़ न आई। यह माहौल देख मैं थोड़ा घबरा गया क्योंकि अक्सर मेरे आवाज़ न मारते ही ये तुरंत ही निकलकर आ जाया करती थी पर उस दिन इनकी आवाज़ आई और न ही मेरे दोनों बड़े बेटे व बहु दिखाई दिए। खड़ा होता हुआ मैं पूरे कमरे में घूम आया पर कहीं पर भी कोई नहीं था। पता है क्यों?”

आंखों को घुमाते हुए मेरी ओर देखकर वो कुछ पल शांत हो गए। शायद इसलिए कि वो मेरे बोलने का इंतज़ार कर रहे थे। उनकी विनम्रमा सी आंखें मुझे ही ताड़ने लगी थी पर मैं तो खामोश सी बैठी हुई कुछ अजीब से ही ख्यालों में जी रही थी लेकिन उनका मेरी ओर ही देखे जाना मुझे अहसास करवा रहा था कि वह अब मुझसे सुनना चाहते है पर बातचीत नहीं सवाल!

‘क्यों’ जिज्ञासा को जगाते हुए मैंने पूछा।

"ये सारे मुझे गांव में अकेला छोड़कर दिल्ली भाग आए थे। दुःख इस बात का नहीं है कि ये क्यों आए, दुःख तो इस बात का है कि इन्होंने मुझे क्यों नहीं बताया।"

"अरे बेटी, इनकी यादस्त चली गई है। भूल गए है ये सब कुछ, हम तो चाली साल से यहां रह रहे है। भला इन्हें छोड़कर कहां जायेंगे। सब बीमारी का असर है, ये!” पीछे से बुड़बुड़ाती हुई अम्मा, उनकी हर एक बात के आगे अपनी ज़बान खोल बैठती। आंखों को मिचती हुई घुटनों पर हाथ टिकाए वो हर बार उनकी बीमारी का इज़हार किए जा रही थी। जैसे ही मेरा सवाल उन तक पहुंचता वैसे ही वो मेरे बतौर उन्हें समझाने लगती- "पूछ रही है कब आए थे, तुम यहां?”

उन्हें बोलने के लिए लगातार निहारे जा रही थी। चश्मे के अंदर से झांकती छोटी-छोटी आंखों को कभी मेरी ओर मटका कर अपनी ताकत का अहसास करवाती, तो कभी हाथों का चलता इशारा उन्हें अपने हमसफ़र को उनकी यादों में ढकेलने पर मजबूर कर देता।

"अभी बताया तो था 50 साल की उम्र में आया था मैं यहां! वो भी अपने इस परिवार की खोज में। धोखा दिया था इन्होंने मुझे, वो तो ईष्वर की कृपा है जो मैं यहां चला आया। प्रेम है मुझे अपने इस परिवार से, पर अब किसी को मेरी परवाह नहीं। कोई नहीं बैठता मेरे पास!”

हर पल उठता उनका ये सवाल मुझे खामोशी में डूबोता जा रहा था। मेरे खुद के लिए ये समझना मुश्किल था कि मैं उन्हें क्या जवाब दूं जहां ये पेचीदा सवाल मेरी चुप्पी बन गया था। वहीं बाबा की कुर्सी के साथ टेक लगाए बैठी अम्मा आंखों को झुकाती हुई सर पर हाथ टिकाए उनके बोलने के साथ खुद खामोशी में डूबने लगी थी।

उनका बोलना शायद अम्मा के लिए बेहद आरामदायक था क्योंकि अक्सर अपने इन हमसफ़र की खामोशी उन्हें बेहर परेशान करती है। वो नहीं चाहती कि बाबा खामोश, बिल्कुल चुप रहे। हमारे बीच पनपती खामोशी से पहले ही वह उसे तोड़ चुकी थी।

"बेटी किताब भी लिखी है इन्होंने। पूछो इनसे।" अचानक से मुझे छूते उनके इस सवाल ने मेरी जिज्ञासा को बढ़ा दिया।

"किताब... कौन सी?” आश्चर्य के साथ कहते हुए मैं बाबा की ओर निहारने लगी। मेरी ललक को देख शायद वो ही नहीं अंदर किचन में काम कर रही हेमा दीदी भी उत्तेजना से भर चुकी थी। दरअसल हेमा कोई और नहीं उनकी सबसे बड़ी पोती है, जो अपने काम को छोड़ मुस्कुराती हुई अंदर से बाहर निकली और मेरे हाथ में एक लाल रंग की किताब थमाते हुए बोली, "ये हमारे दादा की है।"

"अच्छा" कहते हुए मैंने बड़ी हैरानी के साथ उस क्रीम कलर की किताब की ओर देखा जिसमें ऊपर नीले रंग से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था ‘कुषवाहा वंश परिचय’ और बीच में बना राम-लक्ष्मण व घोड़े का चित्र जिसे देखकर तो लग रहा था कि जरूर इसमें रामायण की गाथा होगी। ये सोचते हुए पलकें झपकी तो और गहरे अक्षरों में लिखा हुआ पाया ‘राधे श्याम कुषवाहा’ यानी उनका नाम। यह सब पढ़कर मैं बड़ी हैरानी के साथ उस किताब को ही देखे जा रही थी जिसे लिखने वाला मेरे सामने ही है। ये सोचकर मेरे लिए अपने कानों पर विश्वास करना थोड़ा ही नहीं काफी मुश्किल था!

आरती