सामने वाले घर की खिड़की पर न चाहकर भी ध्यान बार-बार जा रहा था। उस खिड़की से दिखाई देने वाले शीशे में झलकता मेरा अक्श, आज की हकीकत से रू-ब-रू कराने की बेतोड़ कोशिश में था। तभी एक चेहरा उस शीशे के आगे आ खड़ा हुआ। उसकी घूरती आँखों ने पल भर के लिए कुछ खोजा फिर जैसे चुप्पी भरे अपमान को जाहिर करते हुए पलटकर खिड़की का परदा खिसका दिया।
वो
छवि,
वो
हकीकत उस आइने के साथ मुझ से
दूर हो गई। सोच फिर उसी इंतज़ार
पर आ थमी। सिर रेलिंग पर टिक
गया लेकिन ख्याल कुछ देर कहीं
गली के छोर पर ही पसर गए। अब
भीतर का अंधेरा सच में भीतर
उतरने लगा था। अचानक बगल वाले
मकान की चौथी मंजिल पर लुप से
बल्ब जला और उसकी रोशनी का
कतरा,
घर
की टूटी चादर से दीवार पर उतर
आया। पलट कर आगे बढ़ी तो पाया,
जिन्दगी
के खुरदरे पलों से निकलकर कुछ
नया था। कुछ अपना। सामने खड़ी
दीवारें नयी दुनिया बसाने का
न्यौता दे रही थी। नये कोने
दोस्ती करने को उतावले थे।
एक वो नयी आवाज़,
वो
भी शायद। एक सुकून गहराई तक
उतर गया। रोशनी का वो कतरा
यूंही दीवार झाँक रहा था। लग
रहा था कुछ अपनी कहने और कुछ
मेरी सुनने आया हो। एक पतली
चंचल सी आवाज अचानक उस ओर से
सुनाई दी,
"काम
इतना हो जाता है न आंटी,
बस
कोल्हू के बैल का तरह जुते
रहो,
न
दिन को चैन है,
न
रात को आराम। माँ ठीक ही कहती
थी कि जितनी मौज करनी है कर
ले,
दूसरे
घर जाकर तो नानी याद आ जाएगी
क्यूँ?”