Tuesday 1 October 2013

खामोशी की लपटें

समंदर से सटे शहरों में अक्सर बाढ़ के ज़लज़ले आते रहते हैं। लहरे बह कर खामोश समंदर पर तैरती हैं।

आज भी रात ऐसे ही ढली थी जैसे रोज़ सूरज डूबता है। अपने मुख में शहर की तमाम धड़कनों का खोफ और बैखोफ समाये। राहो पर उन बेपरवाह भीड़ के कदम आज़ादी से निकल पड़ते हैं जो कभी बेशुमार होकर एक नये जमावड़े की तलाश में रहते हैं। आज भी खोये से ठिकाने अपने वक़्त पर ही लगे थे। खुशबूएं वही पुरानी थी। सैकड़ों आवाज़ों की आड़ी-तेड़ी कतारें आज भी घर से वैसे ही निकली थी जैसे रोज अपने को आजमाती हैं। और रोज़ तलाशती हैं अपने से दिखने वाले चेहरों को। नज़रे वहीं घुली थी जिनसे वासता रोज़ एक मुलाक़ात का था। वही चौक, वही चौहराहें, वही सड़कें, वही गलियारें। शाम की खामोशी किस कदर बीत जाएगी। इस रोजाना के आंगन में इस खामोशी की चिंगारियां कभी ऐसे भी भड़क जाएगी जहाँ शौर की जुबां कभी थमेगी नहीं। पैरो की दस्तक कभी रूकेगी नहीं। वो रास्ते जो सैकड़ों की तदात से लैस रहे थे। वो दरवाज़े जो कभी बंद नहीं होते थे। वो सारे ज़र्रे जो कभी एक समा थे। इस खामोशी को ऐसे भुगतेंगे कि मुसर्रत हवाओं के झोके, कभी शौक से भी बहेंगे। क्या पता? इस तारीख से हम इस तरह भी वाकिफ होंगे?

खामोशी की लपटें शौर की चिंगारियों को खा जाती है। मजा तो तब है जब इन दोनों के दरमियां हम अपनी पुकार को जीवित रखें।

गुड्डू 

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