'लोग उसे नहीं जानते जो आपके अन्दर है - लोग तो उसे जानते हैं जो दिखता है।'
बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर देती है ये बात। इसपर बहस करने वाले और लड़ने वाले इतने लोग खड़े हो जाते हैं कि हर कोई इसको फेल करने या कहने वाले को कोई ढंग का जवाब देने के लिये अपने - अपने शब्दों और ज्ञान के हथियार लेकर चले आते हैं। हर किसी के पास इतनी बातें और जवाब होती हैं कि जो इसे निस्तनाबूत कर सकती हैं। लेकिन जितनी भी बार ये युद्ध हुआ है। उस युद्ध में सभी से सिर्फ, "कारण" ही हाथ लगे हैं। 'इस बात का कोई मोल नहीं है' तो कोई कहता है 'ये बात बेमोल है।' स्कूल में पढ़ाया जाता था की अनमोल और बेमोल को समझो तो एक ही मायने बनाते हैं। जैसे - अजय और विजय के साथ है। एक जो कभी हार नहीं सकता और दूसरा जिसे कभी हराया नहीं जा सकता। यहाँ पर भी ये बात कुछ इसी तरह से अभी तक टिकी हुई है। एक जिसका कोई मोल ही नहीं है और दूसरा जिसका कोई मोल नहीं लगा सकता।
इसके साथ टक्कर लेने वाले कई डायलॉग है जो आसपास बहुत नज़र आते हैं। जैसे - "मैं आपकी रग़ - रग़ से वाकिफ हूँ।", “आप अन्दर से कुछ और हो और बाहर से कुछ और।" , "आप जैसे दिखते हो वैसे हो नहीं।"
किसी मे खाली अंदेशा महसूस होता है तो कोई दावे के साथ खुद को पेश करता है। मगर बात में इज़ाफा करने या बात को घटाने के अलावा क्या हो सकता है? वैसे ये खाली इस "बात" की ही बात नहीं हो रही। इसमें अनेकों लोग हैं, हम हैं, दोस्त हैं, हमारे टीचर हैं, वालदेन हैं, हमसफ़र हैं यहाँ तक की सरकार भी है। तो खाली हम बात से नहीं, खुद से बहस करने के लिये इस बात को उठा सकें तो ज़्यादा महत्वपूर्ण और लाभदायक बात हो सकती है।
अब इसका अहसास कैसे कर सकते हैं - कई बार हर किसी को पलट – पलट कर देखना होगा। उसे एक टक लगाये देखना होगा। उसको घण्टों सुनना होगा। उसके शब्दों को अपनी बनाई समाजिक और खुद की रची दुनिया से बाहर जाकर पढ़ना होगा। इससे ज़्यादा और हम क्या कर सकते हैं?
हाथ बढ़ाने से अगर चीज़ हासिल हो जाती तो कितना आसान हो जाता जीना! इस लाइन को गुज़रे हुए कई साल बीत गये हैं। वक़्त भाग गया है खुरदरी जमीन को छोड़कर। अपने ढंग और अपने अन्दाज बन गुजरे हैं यहाँ की हवाओ में। कैसे न कैसे लोग चीज़ों और अन्दाजों में घुस जाते हैं और बना ही लेते हैं कुछ सपने।
वैसे खुश रहने के लिये किसी को ज़्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ता। बस, रात नींद में नये सपने सजाओ, काम पर हुई बेज़्जती का मज़ाक बनाओ और रखलो अपनी जेब में खुशी की तमाम टिकटें। ये वे टिकटें हैं जिनको ब्लैक भी किया जा सकता है। इसके लिये तो लोग जैसे कतार में खड़े हैं बस, पहले हाथ बढ़ाने से डरते हैं। कहीं आसपास में कोई मुज़रिम करार कर देने वाला कर्मचारी न खड़ा हो और फिर न जाने क्या किमत लगाई है आपने इस ब्लैक में देने वाली टिकट की।
मजनू भाई भी कमाल के शख़्स हैं। वैसे तो कितना ही पूछ लो इनसे - इनके ही बारे में तो कभी कुछ नहीं कहते। नहीं तो मन के दिवाने मजनू भाई अपनी जीवन की दास्तानें पहली क्लास के किसी मासूम बच्चे बनकर कोई न कोई गाना या कविता की तरह ये दास्तानें सुनाने के लिये हर वक़्त उत्सुकता से भरे रहते हैं।
सारी कार्यवाहियाँ समाप्ती पर हैं। कोई भी नियम लागू नहीं है। लागू तो यहाँ पर कुछ और ही हो गया है। ये भी हो सकता है की यहाँ हर किसी को अपना कुछ लागू करने की ताकत मिल गई हो और मजनू भाई यहाँ पर हर किसी के लिये दौड़ लगाते फिरते हैं।
हाथ में एक देसी दारू की बोतल लिये वो सड़क के किनारे खड़े थे। शायद किसी बात से बहुत नराज होगें। वहीं पर खड़े पेड़ की टहनियों को तोड़ रहे थे। बस, एक यही तो खामी मानते हैं उनमे लोग की वे जब पी लेते हैं किसी चीज़ से खफा होकर तो वो किसी ने नहीं रहते। सही मायने में कहे तो अपने भी नहीं। अगर किसी को नुक्सान पहुँचाया तो ठीक वरना खुद को तो नुक्सान पहुँचाना उनकी आदत में शामिल हो गया है। फिर पहुँच जाते हैं हरे पर्दे वाले डाक्टर के पास। इन डाक्टर साहब का नाम क्या है ये किसी को नहीं पता। बस, दुकान पर हरे रंग का परदा लगा है तो ये हरे परदे वाले डाक्टर बन गये। वैसे यहाँ पर हर किसी के नाम उनकी खुद की पहचान के साथ में नहीं जुड़े। ये तो समझलो कि कुछ ऐसे नामकरण है जो कब रख दिये जाते हैं पता ही नहीं चलता।
डाक्टर साहब और मजनू भाई का बहुत पक्का दोस्ताना है। चाहें मजनू भाई को कहीं पर भी कुछ भी हो ये फौरन पहुँच जाते हैं और इलाज करते - करते लग जाते हैं उन्हे खरी - खोटी सुनाने में। जब मजनू भाई के सिर पर वो लाल रंग सवार रहता है तब तो वो कुछ सुने या न सुने कुछ समझ में तो आने वाला नहीं होता। तो वो खमोश होकर सब कुछ सुनते चले जाते हैं। लेकिन जब वो उतर जाती है तब नज़र आते हैं अपने विराट व विकराल रूप में।
गली - गली उनका घूमना तो हमेशा तय रहता है। अपने काम के बहुत दिवाने हैं मजनू भाई। पुरानी चीज़ और किफायती चीज़ की जैसे परख है उनमें। चीज़ को हाथ लगाते ही अनुमान कर लेते हैं की इसमे कितनी जान बाकी है। चीज़ हाथ लगते ही उनकी हो जाती है। फिर शुरू होती है कशमकश उसके नये चेहरे के बारे में सोचने की जिसमें वो चीज़ को ऐसे देखते हैं जैसे कोई लड़की अपनी शादी का जोड़ा पसंद करने बाजार में निकली हो और हर जोड़े को छू-छूकर देख रही हो। वो नर्म और मजबूत हाथ उसपर कुछ इसी तरह से खेलते और लहराते नज़र आते हैं।
मजनू भाई की आदत भी कुछ ऐसी ही है। वो चीज़ को सामने रखी कोई बेजान वस्तू नहीं बल्कि खुद के साथ होता कोई नज़रों का सामना समझते हैं।
सड़क के किनारे खड़े वो हाथ में कुछ पेपरों को संभाल रहे थे। लेकिन बोतल इतनी भारी थी सिर पर की पेपर जी का जंजाल बन गये थे। कल उन्हे पानी वाले के दफ़्तर जाना है। आज ही तो सभी गली वालों से अर्जी पर हस्ताक्षर करवाये थे और आज ही माथे पर ये तमगा लगवा लिया।
"कभी - कभी समझ में नहीं आता की ये रात आखिर में आती क्यों है?” डाक्टर साहब को भनक लग गई थी उनके देश की मोहमाया में डूब जाने की। वो ये लाइन गुर्राते हुए वहाँ चले आये।
“डाक्टर साहब, वक़्त पर निर्भरकर करता है। हर वक़्त किसी का एक सा नहीं रहता। वो बदलता है।" मजनू भाई अपनी दोहराते हुए बोले।
डाक्टर साहब बोले, “मगर मजनू जी आपका वक़्त कब बदलेगा? अपनी तो सोचा करो।"
“आपको क्या लगता है सर की मेरा वक़्त नहीं बदला?” मजनू उनकी आँखों मे देखते हुए बोला।
“हमें तो नहीं लगता जनाब की आपका वक़्त बदला है?” डाक्टर साहब बोले।
“ये तो बताओ न सर की आपको लगेगा कैसे की हमारा वक़्त बदल गया है?” मजनू भाई बहुत होश मे बोले।
“कुछ करके तो दिखाओ भइया, तभी न दिखेगा।" डाक्टर साहब ताव मे आते हुए बोले।
मजनू भाई खड़े होते हुए बोले, “हाँ, ये की आपने बात करेक्ट। आप भी दिखने पर भरोसा करते हो। कहीं आप उस जाती के तो नहीं है जो कहती है - जो दिखता है वही बिकता है।"
ये कहकर वो बहुत जोर – जोर से हँसने लगे। डाक्टर साहब खामोश खड़े रहे। वो वहाँ पर लाये पुराने समान की तफतीस करने लगे। उस पुराने समान मे कुछ कुर्सियाँ, पटरे और बेलन और चकले थे। बेलन और चकलो पर तो घुऩ लगी हुई थी। जिसके कारण उनके छोटे - छोटे छेद हो गये थे। उनमे से सफेद बरूदा भी झड़ रहा था। वो उनको अलग – अलग करते हुए। समान को जमा करने लगे। अर्जी अब भी उनके हाथ मे थी। पिछले दिनो पानी ने उनके यहाँ बहुत दिक्कत मचाई थी तो वो अर्जी लिखवाकर और गली वालो से साइन करवाकर वहाँ जाने वाले हैं। जिस दिवार से सटकर उनकी छोटी सी दुकान है वहाँ पर नाले मे इतना पानी बहता की वहाँ हमेशा पानी खतरे के निशान से ऊपर रहता है और कभी भी कमेटी आकर उनकी दुकान को रास्ते पर फैंक जाती है। लेकिन इससे कोई ज्यादा फर्क उनको पड़ता नहीं है।
इन दिनों ये बड़ा स्कूल नया - नया बना था तो टीचर और स्कूल कमेटी जगह को गंदा समझ रही थी। बच्चो पर खराब असर पड़ेगा। ये सोचकर दुकाने जब मर्जी हटा दी जाती। मगर शायद ये पता करना वो हर बार भूल जाते की जिनके लिये सारा प्रोग्राम चलता है। वही इन्ही दुकानो के मालिक हैं। रात मे रेहड़ी पर कोई न कोई नई स्कूल के वर्दी पहने ग्राहको को जी भर कर खिला रहा होगा और शहर मे बातें करने के नये - नये हथकण्डे सीख रहा होगा। वो क्या कहते हैं - पब्लिक डीलिंग।
डाक्टर साहब के साथ – साथ मजनू भाई के और दोस्त भी उनका साथ निभाने के लिये चले आये हैं। उनके रखवाले, दूध की फटी थैली से बने दोस्त। ये वो दोस्त हैं जो रात की तनहाई को जगाये रखते हैं। साथ ही साथ अन्जान शख़्सियतों को इधर – उधर हाथ मारने पर डराये रखते हैं। अगर मजनू भाई को रात मे कभी डर लगता है तो उनसे इतनी बातें करते हैं कि आसपास के चार घर और जाग जाये। लेकिन जब उनको पता लग जाता है कि सभी जागने वाले हैं तो फौरन खामोश हो जाते हैं और सड़क पर निकल जाते हैं घूमने। लेकिन जहाँ पर भी जाते हैं वहीं पर किन्ही और अपने ही जैसे रात के दिवानों से कभी बातें तो कभी झगड़ने के लिये खड़े हो जाते हैं।
“ले भइया आ गये तेरे रखवाले।" डाक्टर साहब बोले।
“यही तो साथी हैं मेरी रात के। जो मुझे अंधेरे का कभी मालुम ही नहीं होने देते।" मजनू भाई बोले।
“पर एक बात तो गलत है, तू तो देसी पीता है। देस के इतना करीब रहता है और इन्हे दूध पिलाता है। वो भी फटी हुई थैली का।" डाक्टर साहब मजाक के मुड़ मे बोले।
मजनू भाई मज़िका अन्दाज मे बोले, “कोई तो हो जो देस मे बाघी बने। सारे भगत ठीक नहीं होते डाक्टर साहब।"
थोड़ी देर चुप्पी के बाद मे मजनू भाई ने अपने नीचे बिछी बोरी मे से एक अखबार का टुकड़ा निकाला और उसमे से एक पन्ना निकालते हुए कहा, “यहाँ आईये डाक्टर साहब तुम्हे एक ख़बर सुनाता हूँ। दक्षिणपुरी दिल्ली - 62, पिछली रात तकरीबन 2 बजे एक अन्जान युवक के साथ छीना - छपटी में काफी चोट आई। जिसको पिछली रात ही पकड़ लिया गया। उसके साथ के साथियों को पकड़ा जायेगा। जिन्होने दो साल पहले एक शख़्स की हत्या कर दी थी। लो अब दूसरी सुनो दक्षिणपुरी दिल्ली - 62 कल शाम 5 बजे हाई स्कूल के एक छात्र ने खुदखुशी की। तीसरी सुनो - दक्षिणपुरी दिल्ली - 62, दिल्ली मे होने वाली छोटी प्रतियोगिता YMCA के बॉडी बिल्डिंग कॉप्टीशन मे एक युवक दूसरे नम्बर पर। अब आपको क्या दिखता है?”
वो यूहीं अखबार निकालते गये और उनको कई ख़बर सुनाते गये। जिससे डाक्टर साहब तो कुछ नहीं कहते लेकिन मजनू भाई खुद के होश मे होने का अच्छा खासा सबूत पैश करते जाते। वो बोले, “डाक्टर साहब कम से कम रात मे किसी को आजाद रहने का हक होता है ना! पूरा दिन सबके काम करवाते - करवाते यूँ वक़्त फिसल जाता है कि पता ही नहीं चलता। मगर साला रात तो हमारी है ना!”
रात का ज़िक्र तो मजनू भाई कुछ इस तरह से कहते हैं कि जैसे वो ही उनकी ज़िन्दगी की सबसे हसीन ज़ायदाद है जिसका बटवाँरा वो किसी किमत पर नहीं करना चाहते। इसलिये हर मे वो क्या बनेगें और कैसे बनेगें इसका फैसला खुद से लेते हैं।
मजनू भाई डाक्टर साहब की तरफ देखते हुए बोले, “क्यों डाक्टर साहब आप क्यों नहीं बनते यहाँ पर किसी परिवार के फैमिली डाक्टर। जैसे बाकि बन गये हैं और छोटी सी दुकान से बड़े नर्सिंगहोम तक बना लिये हैं। ये पूरी है डाक्टर साहब, यहाँ पर हर काम बड़े फास्ट होते हैं।"
डाक्टर साहब मज़ाक करते हुए बोले, “तुम्हारी नज़र में कोई किन्नर फैमिली?”
मजनू भाई बोले, “अरे डाक्टर साहब, तुम तो कम से कम कोई और ढूँढो ना!”
डाक्टर साहब बोले, “भईये, पुर्नरवास कॉलोनियों मे इनसे ज्यादा मालदार आदमी कौन होता है?”
मजनू भाई की बोलती थोड़ी देर के लिये कुछ बन्द पड़ गई। वो बस, यही सोचते रहे की क्या वो कुछ नहीं है। फिर हँसे और यहाँ - वहाँ देखने लगे। रात के सवा बारह बज गये थे और यहाँ पर बातों की रफ़्तार कुछ यूँ थी के लगता ही नहीं था की कभी बीच रास्ते मे पस्त भी पड़ेगी। दोनों के पास कुछ ऐसी - ऐसी पंच लाइने थी कि दोनों एक दूसरे के सामने खड़े। एक दूसरे के चैलेंजकर्ता साबित हो रहे थे। जमीन मे डंडा मारने की काफी तेज आवाज़ आई। एक पूलीस वाला उस डंडे की आवाज़ के साथ मे उनके घेरे मे दाखिल हुआ। कोई नया ही था जो जमीन मे डंडा मार रहा था। नहीं तो पूलिस के डंडे की आवाज़ को सुने तो जैसे अरसा बीत गया है। ये वक़्त ऐसा नहीं था की पुलिस का कोई कार्यकर्ता आता दिखाई दिया और सड़क पर खड़े सभी तितर – बितर हो लिये या फिर देखते ही भाग लिये। जिसमें कुछ न करने वाला भी कभी - कभी इस जगह का बहुत बड़ा मुज़रिम बन जाता। कुछ वक़्त तक चलता ये सारा माज़रा। कोई दिखा और भगदड़ शुरू हो जाती। इसमे सबसे ज्यादा फायदा अधेड़ उम्र के लोगों के लिये था। वो अगर सड़क पर पूरी रात भी खड़े रहे तो भी कोई बात नहीं थी। वो चाहें किसी लड़की या अपनी उम्र की औरत को देखकर उसे खूबसूरत कहे तब भी। नुकसान तो था नौजवान लड़कों का। वो तो रात आठ बजे के बाद मे सड़क पर खड़े ही नहीं हो सकते थे। नहीं तो पूरी रात ही नये - नवेले थाने मे बितानी पड़ती और साथ ही साथ पूरी रात बीवी से पिटकर आये पुलिस वाले के गुस्से का सामना करना पड़ता। न जाने किस बात पर ख़फा हो जाये और पूरी भड़ास निकाल दे। इसलिये भागना ही सबको मुनासिब लगता।
पुलिस वाले उनको देखते ही कहा, “इतनी रात गये आप लोग यहाँ पर क्या कर रहे हो? रहते कहाँ हो?”
मजनू भाई बोले, “क्या बात है सर?, अपनी गली के बाहर बैठना भी मना है क्या?”
"इतनी रात तक तो ठीक बात नहीं है। कोई मौके का फायदा उठा ले जाये तो!” पुलिस वाले ने कहा।
“फिर तो आपको इतनी रात मे नहीं घूमना चाहिये।" मजनू भाई बोले।
पुलिस वाला हँसने लगा और बोला, “मुझे कोई कुछ नहीं कर सकता बेटा।"
मजनू भाई बोले, “सर, वो पोस्टर देख रहे हैं आप?”
पुलिस वाला ऊपर देखकर बोला, “ओ, तभी आप रात मे जाग रहे हैं। जनता पार्टी के कार्यकर्ता है आप।"
"हाँ सर, जनता की सेवा करना हमारा कर्तव्य है। इसलिये हमें कोई कुछ नहीं कहता।" मजनू भाई ने मुस्कुराते हुए कहा।
पुलिस वाले ने वहीं उनकी खाट पर बैठते हुए कहा, “एक बात बताइये, यहाँ पर क्या सारे नेता हैं? अगर हर कोई यहाँ पर किसी न किसी पार्टी का कार्यकर्ता है तो आप काम किसके लिये करते हैं?”
मजनू भाई बोले, “सर, मिलजुल कर ही तो काम होता है।"
“पहले यहाँ का नाम तो बड़ा फैमस था। सबसे ज्यादा तबादले हुआ करते थे पुलिस वालो के। अब तो सब कुछ शांत हो गया है। ये समझ मे नहीं आता। कुछ तो होता होगा। लेकिन अब कोई पकड़ मे नहीं आता बस।" पुलिस वाले ने अपनी हैरानी व्यक्त करते हुए कहा।
डाक्टर साहब बोले, “सर, होता होगा हमें तो पता नहीं है। लेकिन जो पहले कभी इस जगह को फेमस कर रहे थे। अब उन सबकी शादी हो गई और सबके घर मे बेटियाँ पैदा हो गई तो सब सुधर गये।"
पुलिस वाला बोला, “भगवान सबके घर मे एक बेटी दे।"
"जी, हम भी यही दुआ करते हैं।" मजनू भाई उन्हे छेड़ते हुए बोले।
“लेकिन ठंड बहुत है, ये सोचकर तो आप घर मे जाइये।" पुलिस वाले ने कहा।
“अच्छा ये बात है फिर तो हम जरूर जायेगें सर मगर जायेगें कब ये मालूम नहीं है। सर सिर्फ रात ही तो अपनी है।"
मजनू भाई ये बात बोलते हुए खड़े हुए और डाक्टर साहब का हाथ थामे गली की तरफ देखते रहे और गाते रहे अपनी धुन में कुछ अटका सा हल्का सा गीत। आग अब वहीं पर जल रही थी मगर अकेली नहीं थी।
लख्मी
बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर देती है ये बात। इसपर बहस करने वाले और लड़ने वाले इतने लोग खड़े हो जाते हैं कि हर कोई इसको फेल करने या कहने वाले को कोई ढंग का जवाब देने के लिये अपने - अपने शब्दों और ज्ञान के हथियार लेकर चले आते हैं। हर किसी के पास इतनी बातें और जवाब होती हैं कि जो इसे निस्तनाबूत कर सकती हैं। लेकिन जितनी भी बार ये युद्ध हुआ है। उस युद्ध में सभी से सिर्फ, "कारण" ही हाथ लगे हैं। 'इस बात का कोई मोल नहीं है' तो कोई कहता है 'ये बात बेमोल है।' स्कूल में पढ़ाया जाता था की अनमोल और बेमोल को समझो तो एक ही मायने बनाते हैं। जैसे - अजय और विजय के साथ है। एक जो कभी हार नहीं सकता और दूसरा जिसे कभी हराया नहीं जा सकता। यहाँ पर भी ये बात कुछ इसी तरह से अभी तक टिकी हुई है। एक जिसका कोई मोल ही नहीं है और दूसरा जिसका कोई मोल नहीं लगा सकता।
इसके साथ टक्कर लेने वाले कई डायलॉग है जो आसपास बहुत नज़र आते हैं। जैसे - "मैं आपकी रग़ - रग़ से वाकिफ हूँ।", “आप अन्दर से कुछ और हो और बाहर से कुछ और।" , "आप जैसे दिखते हो वैसे हो नहीं।"
किसी मे खाली अंदेशा महसूस होता है तो कोई दावे के साथ खुद को पेश करता है। मगर बात में इज़ाफा करने या बात को घटाने के अलावा क्या हो सकता है? वैसे ये खाली इस "बात" की ही बात नहीं हो रही। इसमें अनेकों लोग हैं, हम हैं, दोस्त हैं, हमारे टीचर हैं, वालदेन हैं, हमसफ़र हैं यहाँ तक की सरकार भी है। तो खाली हम बात से नहीं, खुद से बहस करने के लिये इस बात को उठा सकें तो ज़्यादा महत्वपूर्ण और लाभदायक बात हो सकती है।
अब इसका अहसास कैसे कर सकते हैं - कई बार हर किसी को पलट – पलट कर देखना होगा। उसे एक टक लगाये देखना होगा। उसको घण्टों सुनना होगा। उसके शब्दों को अपनी बनाई समाजिक और खुद की रची दुनिया से बाहर जाकर पढ़ना होगा। इससे ज़्यादा और हम क्या कर सकते हैं?
हाथ बढ़ाने से अगर चीज़ हासिल हो जाती तो कितना आसान हो जाता जीना! इस लाइन को गुज़रे हुए कई साल बीत गये हैं। वक़्त भाग गया है खुरदरी जमीन को छोड़कर। अपने ढंग और अपने अन्दाज बन गुजरे हैं यहाँ की हवाओ में। कैसे न कैसे लोग चीज़ों और अन्दाजों में घुस जाते हैं और बना ही लेते हैं कुछ सपने।
वैसे खुश रहने के लिये किसी को ज़्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ता। बस, रात नींद में नये सपने सजाओ, काम पर हुई बेज़्जती का मज़ाक बनाओ और रखलो अपनी जेब में खुशी की तमाम टिकटें। ये वे टिकटें हैं जिनको ब्लैक भी किया जा सकता है। इसके लिये तो लोग जैसे कतार में खड़े हैं बस, पहले हाथ बढ़ाने से डरते हैं। कहीं आसपास में कोई मुज़रिम करार कर देने वाला कर्मचारी न खड़ा हो और फिर न जाने क्या किमत लगाई है आपने इस ब्लैक में देने वाली टिकट की।
मजनू भाई भी कमाल के शख़्स हैं। वैसे तो कितना ही पूछ लो इनसे - इनके ही बारे में तो कभी कुछ नहीं कहते। नहीं तो मन के दिवाने मजनू भाई अपनी जीवन की दास्तानें पहली क्लास के किसी मासूम बच्चे बनकर कोई न कोई गाना या कविता की तरह ये दास्तानें सुनाने के लिये हर वक़्त उत्सुकता से भरे रहते हैं।
सारी कार्यवाहियाँ समाप्ती पर हैं। कोई भी नियम लागू नहीं है। लागू तो यहाँ पर कुछ और ही हो गया है। ये भी हो सकता है की यहाँ हर किसी को अपना कुछ लागू करने की ताकत मिल गई हो और मजनू भाई यहाँ पर हर किसी के लिये दौड़ लगाते फिरते हैं।
हाथ में एक देसी दारू की बोतल लिये वो सड़क के किनारे खड़े थे। शायद किसी बात से बहुत नराज होगें। वहीं पर खड़े पेड़ की टहनियों को तोड़ रहे थे। बस, एक यही तो खामी मानते हैं उनमे लोग की वे जब पी लेते हैं किसी चीज़ से खफा होकर तो वो किसी ने नहीं रहते। सही मायने में कहे तो अपने भी नहीं। अगर किसी को नुक्सान पहुँचाया तो ठीक वरना खुद को तो नुक्सान पहुँचाना उनकी आदत में शामिल हो गया है। फिर पहुँच जाते हैं हरे पर्दे वाले डाक्टर के पास। इन डाक्टर साहब का नाम क्या है ये किसी को नहीं पता। बस, दुकान पर हरे रंग का परदा लगा है तो ये हरे परदे वाले डाक्टर बन गये। वैसे यहाँ पर हर किसी के नाम उनकी खुद की पहचान के साथ में नहीं जुड़े। ये तो समझलो कि कुछ ऐसे नामकरण है जो कब रख दिये जाते हैं पता ही नहीं चलता।
डाक्टर साहब और मजनू भाई का बहुत पक्का दोस्ताना है। चाहें मजनू भाई को कहीं पर भी कुछ भी हो ये फौरन पहुँच जाते हैं और इलाज करते - करते लग जाते हैं उन्हे खरी - खोटी सुनाने में। जब मजनू भाई के सिर पर वो लाल रंग सवार रहता है तब तो वो कुछ सुने या न सुने कुछ समझ में तो आने वाला नहीं होता। तो वो खमोश होकर सब कुछ सुनते चले जाते हैं। लेकिन जब वो उतर जाती है तब नज़र आते हैं अपने विराट व विकराल रूप में।
गली - गली उनका घूमना तो हमेशा तय रहता है। अपने काम के बहुत दिवाने हैं मजनू भाई। पुरानी चीज़ और किफायती चीज़ की जैसे परख है उनमें। चीज़ को हाथ लगाते ही अनुमान कर लेते हैं की इसमे कितनी जान बाकी है। चीज़ हाथ लगते ही उनकी हो जाती है। फिर शुरू होती है कशमकश उसके नये चेहरे के बारे में सोचने की जिसमें वो चीज़ को ऐसे देखते हैं जैसे कोई लड़की अपनी शादी का जोड़ा पसंद करने बाजार में निकली हो और हर जोड़े को छू-छूकर देख रही हो। वो नर्म और मजबूत हाथ उसपर कुछ इसी तरह से खेलते और लहराते नज़र आते हैं।
मजनू भाई की आदत भी कुछ ऐसी ही है। वो चीज़ को सामने रखी कोई बेजान वस्तू नहीं बल्कि खुद के साथ होता कोई नज़रों का सामना समझते हैं।
सड़क के किनारे खड़े वो हाथ में कुछ पेपरों को संभाल रहे थे। लेकिन बोतल इतनी भारी थी सिर पर की पेपर जी का जंजाल बन गये थे। कल उन्हे पानी वाले के दफ़्तर जाना है। आज ही तो सभी गली वालों से अर्जी पर हस्ताक्षर करवाये थे और आज ही माथे पर ये तमगा लगवा लिया।
"कभी - कभी समझ में नहीं आता की ये रात आखिर में आती क्यों है?” डाक्टर साहब को भनक लग गई थी उनके देश की मोहमाया में डूब जाने की। वो ये लाइन गुर्राते हुए वहाँ चले आये।
“डाक्टर साहब, वक़्त पर निर्भरकर करता है। हर वक़्त किसी का एक सा नहीं रहता। वो बदलता है।" मजनू भाई अपनी दोहराते हुए बोले।
डाक्टर साहब बोले, “मगर मजनू जी आपका वक़्त कब बदलेगा? अपनी तो सोचा करो।"
“आपको क्या लगता है सर की मेरा वक़्त नहीं बदला?” मजनू उनकी आँखों मे देखते हुए बोला।
“हमें तो नहीं लगता जनाब की आपका वक़्त बदला है?” डाक्टर साहब बोले।
“ये तो बताओ न सर की आपको लगेगा कैसे की हमारा वक़्त बदल गया है?” मजनू भाई बहुत होश मे बोले।
“कुछ करके तो दिखाओ भइया, तभी न दिखेगा।" डाक्टर साहब ताव मे आते हुए बोले।
मजनू भाई खड़े होते हुए बोले, “हाँ, ये की आपने बात करेक्ट। आप भी दिखने पर भरोसा करते हो। कहीं आप उस जाती के तो नहीं है जो कहती है - जो दिखता है वही बिकता है।"
ये कहकर वो बहुत जोर – जोर से हँसने लगे। डाक्टर साहब खामोश खड़े रहे। वो वहाँ पर लाये पुराने समान की तफतीस करने लगे। उस पुराने समान मे कुछ कुर्सियाँ, पटरे और बेलन और चकले थे। बेलन और चकलो पर तो घुऩ लगी हुई थी। जिसके कारण उनके छोटे - छोटे छेद हो गये थे। उनमे से सफेद बरूदा भी झड़ रहा था। वो उनको अलग – अलग करते हुए। समान को जमा करने लगे। अर्जी अब भी उनके हाथ मे थी। पिछले दिनो पानी ने उनके यहाँ बहुत दिक्कत मचाई थी तो वो अर्जी लिखवाकर और गली वालो से साइन करवाकर वहाँ जाने वाले हैं। जिस दिवार से सटकर उनकी छोटी सी दुकान है वहाँ पर नाले मे इतना पानी बहता की वहाँ हमेशा पानी खतरे के निशान से ऊपर रहता है और कभी भी कमेटी आकर उनकी दुकान को रास्ते पर फैंक जाती है। लेकिन इससे कोई ज्यादा फर्क उनको पड़ता नहीं है।
इन दिनों ये बड़ा स्कूल नया - नया बना था तो टीचर और स्कूल कमेटी जगह को गंदा समझ रही थी। बच्चो पर खराब असर पड़ेगा। ये सोचकर दुकाने जब मर्जी हटा दी जाती। मगर शायद ये पता करना वो हर बार भूल जाते की जिनके लिये सारा प्रोग्राम चलता है। वही इन्ही दुकानो के मालिक हैं। रात मे रेहड़ी पर कोई न कोई नई स्कूल के वर्दी पहने ग्राहको को जी भर कर खिला रहा होगा और शहर मे बातें करने के नये - नये हथकण्डे सीख रहा होगा। वो क्या कहते हैं - पब्लिक डीलिंग।
डाक्टर साहब के साथ – साथ मजनू भाई के और दोस्त भी उनका साथ निभाने के लिये चले आये हैं। उनके रखवाले, दूध की फटी थैली से बने दोस्त। ये वो दोस्त हैं जो रात की तनहाई को जगाये रखते हैं। साथ ही साथ अन्जान शख़्सियतों को इधर – उधर हाथ मारने पर डराये रखते हैं। अगर मजनू भाई को रात मे कभी डर लगता है तो उनसे इतनी बातें करते हैं कि आसपास के चार घर और जाग जाये। लेकिन जब उनको पता लग जाता है कि सभी जागने वाले हैं तो फौरन खामोश हो जाते हैं और सड़क पर निकल जाते हैं घूमने। लेकिन जहाँ पर भी जाते हैं वहीं पर किन्ही और अपने ही जैसे रात के दिवानों से कभी बातें तो कभी झगड़ने के लिये खड़े हो जाते हैं।
“ले भइया आ गये तेरे रखवाले।" डाक्टर साहब बोले।
“यही तो साथी हैं मेरी रात के। जो मुझे अंधेरे का कभी मालुम ही नहीं होने देते।" मजनू भाई बोले।
“पर एक बात तो गलत है, तू तो देसी पीता है। देस के इतना करीब रहता है और इन्हे दूध पिलाता है। वो भी फटी हुई थैली का।" डाक्टर साहब मजाक के मुड़ मे बोले।
मजनू भाई मज़िका अन्दाज मे बोले, “कोई तो हो जो देस मे बाघी बने। सारे भगत ठीक नहीं होते डाक्टर साहब।"
थोड़ी देर चुप्पी के बाद मे मजनू भाई ने अपने नीचे बिछी बोरी मे से एक अखबार का टुकड़ा निकाला और उसमे से एक पन्ना निकालते हुए कहा, “यहाँ आईये डाक्टर साहब तुम्हे एक ख़बर सुनाता हूँ। दक्षिणपुरी दिल्ली - 62, पिछली रात तकरीबन 2 बजे एक अन्जान युवक के साथ छीना - छपटी में काफी चोट आई। जिसको पिछली रात ही पकड़ लिया गया। उसके साथ के साथियों को पकड़ा जायेगा। जिन्होने दो साल पहले एक शख़्स की हत्या कर दी थी। लो अब दूसरी सुनो दक्षिणपुरी दिल्ली - 62 कल शाम 5 बजे हाई स्कूल के एक छात्र ने खुदखुशी की। तीसरी सुनो - दक्षिणपुरी दिल्ली - 62, दिल्ली मे होने वाली छोटी प्रतियोगिता YMCA के बॉडी बिल्डिंग कॉप्टीशन मे एक युवक दूसरे नम्बर पर। अब आपको क्या दिखता है?”
वो यूहीं अखबार निकालते गये और उनको कई ख़बर सुनाते गये। जिससे डाक्टर साहब तो कुछ नहीं कहते लेकिन मजनू भाई खुद के होश मे होने का अच्छा खासा सबूत पैश करते जाते। वो बोले, “डाक्टर साहब कम से कम रात मे किसी को आजाद रहने का हक होता है ना! पूरा दिन सबके काम करवाते - करवाते यूँ वक़्त फिसल जाता है कि पता ही नहीं चलता। मगर साला रात तो हमारी है ना!”
रात का ज़िक्र तो मजनू भाई कुछ इस तरह से कहते हैं कि जैसे वो ही उनकी ज़िन्दगी की सबसे हसीन ज़ायदाद है जिसका बटवाँरा वो किसी किमत पर नहीं करना चाहते। इसलिये हर मे वो क्या बनेगें और कैसे बनेगें इसका फैसला खुद से लेते हैं।
मजनू भाई डाक्टर साहब की तरफ देखते हुए बोले, “क्यों डाक्टर साहब आप क्यों नहीं बनते यहाँ पर किसी परिवार के फैमिली डाक्टर। जैसे बाकि बन गये हैं और छोटी सी दुकान से बड़े नर्सिंगहोम तक बना लिये हैं। ये पूरी है डाक्टर साहब, यहाँ पर हर काम बड़े फास्ट होते हैं।"
डाक्टर साहब मज़ाक करते हुए बोले, “तुम्हारी नज़र में कोई किन्नर फैमिली?”
मजनू भाई बोले, “अरे डाक्टर साहब, तुम तो कम से कम कोई और ढूँढो ना!”
डाक्टर साहब बोले, “भईये, पुर्नरवास कॉलोनियों मे इनसे ज्यादा मालदार आदमी कौन होता है?”
मजनू भाई की बोलती थोड़ी देर के लिये कुछ बन्द पड़ गई। वो बस, यही सोचते रहे की क्या वो कुछ नहीं है। फिर हँसे और यहाँ - वहाँ देखने लगे। रात के सवा बारह बज गये थे और यहाँ पर बातों की रफ़्तार कुछ यूँ थी के लगता ही नहीं था की कभी बीच रास्ते मे पस्त भी पड़ेगी। दोनों के पास कुछ ऐसी - ऐसी पंच लाइने थी कि दोनों एक दूसरे के सामने खड़े। एक दूसरे के चैलेंजकर्ता साबित हो रहे थे। जमीन मे डंडा मारने की काफी तेज आवाज़ आई। एक पूलीस वाला उस डंडे की आवाज़ के साथ मे उनके घेरे मे दाखिल हुआ। कोई नया ही था जो जमीन मे डंडा मार रहा था। नहीं तो पूलिस के डंडे की आवाज़ को सुने तो जैसे अरसा बीत गया है। ये वक़्त ऐसा नहीं था की पुलिस का कोई कार्यकर्ता आता दिखाई दिया और सड़क पर खड़े सभी तितर – बितर हो लिये या फिर देखते ही भाग लिये। जिसमें कुछ न करने वाला भी कभी - कभी इस जगह का बहुत बड़ा मुज़रिम बन जाता। कुछ वक़्त तक चलता ये सारा माज़रा। कोई दिखा और भगदड़ शुरू हो जाती। इसमे सबसे ज्यादा फायदा अधेड़ उम्र के लोगों के लिये था। वो अगर सड़क पर पूरी रात भी खड़े रहे तो भी कोई बात नहीं थी। वो चाहें किसी लड़की या अपनी उम्र की औरत को देखकर उसे खूबसूरत कहे तब भी। नुकसान तो था नौजवान लड़कों का। वो तो रात आठ बजे के बाद मे सड़क पर खड़े ही नहीं हो सकते थे। नहीं तो पूरी रात ही नये - नवेले थाने मे बितानी पड़ती और साथ ही साथ पूरी रात बीवी से पिटकर आये पुलिस वाले के गुस्से का सामना करना पड़ता। न जाने किस बात पर ख़फा हो जाये और पूरी भड़ास निकाल दे। इसलिये भागना ही सबको मुनासिब लगता।
पुलिस वाले उनको देखते ही कहा, “इतनी रात गये आप लोग यहाँ पर क्या कर रहे हो? रहते कहाँ हो?”
मजनू भाई बोले, “क्या बात है सर?, अपनी गली के बाहर बैठना भी मना है क्या?”
"इतनी रात तक तो ठीक बात नहीं है। कोई मौके का फायदा उठा ले जाये तो!” पुलिस वाले ने कहा।
“फिर तो आपको इतनी रात मे नहीं घूमना चाहिये।" मजनू भाई बोले।
पुलिस वाला हँसने लगा और बोला, “मुझे कोई कुछ नहीं कर सकता बेटा।"
मजनू भाई बोले, “सर, वो पोस्टर देख रहे हैं आप?”
पुलिस वाला ऊपर देखकर बोला, “ओ, तभी आप रात मे जाग रहे हैं। जनता पार्टी के कार्यकर्ता है आप।"
"हाँ सर, जनता की सेवा करना हमारा कर्तव्य है। इसलिये हमें कोई कुछ नहीं कहता।" मजनू भाई ने मुस्कुराते हुए कहा।
पुलिस वाले ने वहीं उनकी खाट पर बैठते हुए कहा, “एक बात बताइये, यहाँ पर क्या सारे नेता हैं? अगर हर कोई यहाँ पर किसी न किसी पार्टी का कार्यकर्ता है तो आप काम किसके लिये करते हैं?”
मजनू भाई बोले, “सर, मिलजुल कर ही तो काम होता है।"
“पहले यहाँ का नाम तो बड़ा फैमस था। सबसे ज्यादा तबादले हुआ करते थे पुलिस वालो के। अब तो सब कुछ शांत हो गया है। ये समझ मे नहीं आता। कुछ तो होता होगा। लेकिन अब कोई पकड़ मे नहीं आता बस।" पुलिस वाले ने अपनी हैरानी व्यक्त करते हुए कहा।
डाक्टर साहब बोले, “सर, होता होगा हमें तो पता नहीं है। लेकिन जो पहले कभी इस जगह को फेमस कर रहे थे। अब उन सबकी शादी हो गई और सबके घर मे बेटियाँ पैदा हो गई तो सब सुधर गये।"
पुलिस वाला बोला, “भगवान सबके घर मे एक बेटी दे।"
"जी, हम भी यही दुआ करते हैं।" मजनू भाई उन्हे छेड़ते हुए बोले।
“लेकिन ठंड बहुत है, ये सोचकर तो आप घर मे जाइये।" पुलिस वाले ने कहा।
“अच्छा ये बात है फिर तो हम जरूर जायेगें सर मगर जायेगें कब ये मालूम नहीं है। सर सिर्फ रात ही तो अपनी है।"
मजनू भाई ये बात बोलते हुए खड़े हुए और डाक्टर साहब का हाथ थामे गली की तरफ देखते रहे और गाते रहे अपनी धुन में कुछ अटका सा हल्का सा गीत। आग अब वहीं पर जल रही थी मगर अकेली नहीं थी।
लख्मी
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