Monday, 15 July 2013

स्कूल में कुछ ऐसी जगहें भी

हर जगह स्कूल रूटीन में अपनी एक पहचान लिए हुए है। ये साइंस लेब है, ये लाइब्रेरी, ये ड्राइंगरुम और ये मैदान। इससे आगे कुछ नहीं पर इन जगहों की सीमा से बाहर भी कुछ ठिकाने है जो हमारी बेचैनियों को बाँटने का अड्डा बनते हैं। जहां हम एक-दूसरे से बतियाते, खेलते और वक्त बिताते हैं।

जब क्लास की नीरस खाली दीवारें बोर कर देती तो हम इन जगहों की तरफ़ बढ़ चलते। गैलरी के पास बड़े-बड़े गोल छेदों वाली वो दीवार मुझे भी कुछ ऐसे ही बुलाती है। गर्मियों में उन छेदों से ठंडी हवा के झोंके अंदर आते है और सर्दियों में धूप उस दीवार से छनकर फर्श पर एक खूबसूरत डिजाइन में फैल जाती है। हम ठिठुरते हुए उस धूप में गुट बनाकर बैठ जाते है। फर्श की धूल को फूँक मार कर उड़ाते और एक घेरा बना लेते। कभी-कभी लूडो बीच में रखकर एक-दूसरे से शर्त लगाते "चल देखते है कौन जीतेगा?”

आधी छुट्टी का पूरा समय और कई बार तो खाली पीरियड भी वही गुजरता। पेपरों के वहाँ अपनी किताबें लिए कुछ बच्चे बैठकर पढ़ते दिखाई देते तो कुछ बातें करते हुए अपना काम पूरा कर लेते। जगह पर जाए बिना तो अब मन ही नहीं लगता। जब कभी हाउसवाली लड़कियाँ वहां ड्यूटी देती है और हम अपनी क्लासों में कैद हो जाते है। बस तब ही वो जगह सूनी नज़र आती है वरना तो चढ़ने उतरने वाली और दीवार के झरोखे से बाहर का नज़ारा देखने वालों का तांता वहाँ लगा ही रहता है।

मुझे आज भी याद है एक रोज़ हम सब वहीं बैठे थे हमारे बीच 16 पर्ची का खेल चल रहा था। खेलते-खेलते हमें काफी देर हो गई थी। आधी छुट्टी कब बंद हो गई पता ही नहीं चला। हमारे पास बातों की एक बड़ी सी पोटली थी जिसमें से हम कुछ न कुछ बांटते भी जा रहे थे कि अचानक रेखा मैडम ने दूर खड़े होकर जोर से सीटी बजाई। हम सब जैसे अपनी जगह पर खड़े-खड़े हिल गए। पीछे मुड़कर देखा तो उनके हाथ में एक मोटा सा डंडा था जिसे लिए वो हमारी तरफ़ ही बढ़ रही थीं। फिर तो हमने भी जो रफ़्तार पकड़ी की एक-दूसरे को भी भूल गए और धक्का-मुक्की करते हुए वहाँ से फ़रार हो लिए। बाद में क्लास में जाकर हम खूब हँसे।

अब हम जब भी उस जगह बैठते थे बड़े होशियार रहते थे। हमेशा ये खबर रखते थे कि कहीं मैडम तो नहीं आ रही पर कुछ भी हो हमने वहाँ जाना नहीं छोड़ा जिस तरह स्कूल के बाकी ठिकानों पर एक रौनक लगी रहती उसी तरह हम अपनी इस जगह को भी जिंदा रखते। आधी छुट्टी के समय बच्चों की भीड़ से घिर जाने वाला वो कोना भी कुछ ऐसी ही रंगत लिए रहता है। जहाँ बैठने के लिए टाइलों वाला एक बढिया सा सीढ़ीदार चबूतरा और शहतूत का बड़ा सा पेड़ है।

यहाँ सभी अक्सर घनी और ठंडी छाया तलाशते हुए पहुंचते है। पहले जब यहाँ मठरी की दुकान हुआ करती थी तब तो बात ही कुछ ओर थी। ग्रिल के उस पार हथेलियाँ ताने चिल्लाते हुए, ‘आँटी मेरी चार मठरी, आँटी पहले मुझे छः दे दो, नहीं मेरी तीन, अरे भाई सात पकड़ा दे इधर’ ढेरों वो जमघट तब तक वहां बना रहता जब तब कि दुकान पर मठरी खत्म न हो जाती। उसके बाद अपनी सहेलियों के गुट में या किसी खास जोड़ीदार के साथ बच्चे उसी चबूतरे पर बैठ जाते। कोई बातें करता, कोई गाने गाता तो कोई खेल में लग जाता।

आधी छुट्टी बंद होने के बाद भी कुछ लड़कियाँ क्लास में न जाकर दीवार की आड़ में छुपकर वहीं बैठी रहती क्योंकि वहाँ किसी टीचर का आना-जाना कम ही होता है इसलिए एक बेखौफ़ निडर ठिकाने के रुप में वो जगह ज़्यादातर साथियों की पसंदीदा है लेकिन इस पसंद को वे सिर्फ़ क्लास से बाहर की जगहों पर ही कायम नहीं रखते, क्लास के भीतर भी कई ऐसे कोने है जहाँ बातचीत की महफिल सजती है। इस महफिल में और भी क्लासों के साथी आकर जुड़ जाते है। यहाँ खिड़कियाँ सिर्फ़ रोशनदान का काम नहीं करती सिर्फ कमरों की हवादार नहीं बनती बल्कि एक नई और खुली दुनिया को ताकने का ज़रिया बनती है। इन खिड़कियों से जैसे बाहर के नज़ारे स्कूल में उतर आते है या स्कूल में बैठी एक नज़र दूर किसी सफ़र पर निकल पड़ती है तभी तो सुबह क्लास में झगड़े का विषय यही होता है कि खिड़की के साथ वाले डेस्क पर कौन बैठेगा!

गदरु अक्सर अपनी सहेलियों से इसी विषय पर बहस करती नज़र आती है। सुबह एक बेंच खिसकाकर वह खिड़की के पास लगाती है और शान से वहाँ बैठ जाती है। उस खिड़की से स्कूल के पीछे की गली नज़र आती है। उस गली से गुजरने वाले फेरीवालों व लोगों को गदरू दिनभर देखती रहती है। वहाँ की आवाज़ों को ध्यान से सुनती रहती है। उसे लगता है माना वह अपनी ही गली में बैठी है। ऐसे में स्कूल उसके लिए जरा ज़्यादा मजेदार बन जाता है जहाँ वो खुद को बँधा हुआ महसूस नहीं करती।

अलीशा

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