Monday 15 July 2013

दादी का बक्सा

दोपहर का समय था। मेरी दादी यहाँ-वहाँ बिखरे अपने कपड़ों को लेकर बहुत परेशान हो रही थी। वह कई दिनों से सोच रही थी कि वो एक बक्सा खरीदेंगी लेकिन कभी वो दिन या मौक़ा नहीं आ रहा था। कभी वो ही अपनी छोटी सी पोटली में बंधे पैसों को गिनकर चुप हो जाती क्योंकि वो कम लगते तो कम ज़्यादा होने पर उनमें उन्हें और जोड़ने का मन होने लगता पर उनके लिए बक्सा कभी जैसे नहीं आने वाला था।

मगर आज वह अपने पुराने कपड़ों को काफी देर से देखे जा रही थी! कभी हाथों को बड़े प्यार से ऊपर घुमाती तो कभी आँखें। जैसे एक-एक कपड़ा उनके लिए एक-एक दास्तान बना हो। थोड़ी देर उसे निहारने के बाद वो उठी और इस काम को करने की ठान ली शायद इसका दूसरा कारण ये भी रहा कि आज वो अपनी नौकरी से रिटायर भी हो रही थी। बड़े दिनों बाद उन्हें घर में रहकर अपनी चीज़ें सँवारने का मौक़ा भी मिला था। उन्होंने जोरों से कहा मैं एक बक्सा खरीदूँगी मगर कौन सा लेना है? कैसा होगा, कहाँ से लेंगे, कितने का होगा, क्यों ले, क्या रखना है, कहाँ रखना है, बेकार है, अच्छी कम्पनी का, न जाने अनेक तरह की बातों में दिन कब गुजर गया पता ही नहीं चला लेकिन शाम होते ही दादी को फिर अपने बक्से की याद सताने लगी। बस फिर क्या था दादी ने मम्मी से कहा, ‘सुन शकुन्तला तुझे मेरे साथ चलना है।’ मम्मी दादी की बात पर हमेशा सतर्क व चैकन्ना हो जाती हैं। वो तुरंत ही बोलीं, ‘हाँ, चलिए!’ और वो ही क्या घर, गली, रिश्तेदार सभी हिल पड़ते है उनकी आवाज़ पर।




दोनों उसी शाम खानपुर की सबसे पुरानी मार्किट की ओर चल पड़े। मेरी मम्मी बताती हैं जब दक्षिणपुरी बस रही थी तो यहां आसपास में कोई मार्किट नहीं है। बस यहां से थोड़ी दूरी पर खानपुर में ही सबसे पुरानी एक मार्किट थी। ज्यादा बड़ी नहीं थी। रास्ते में दादी मम्मी से बातें भी करी हुई चल रही थी। उन्होंने मम्मी की ओर देखते हुए कहा, ‘शकुन्तला, जरा बक्सा ध्यान से देख लियो। ऐसा छाँटियों की मेरे सारे कपड़े उसमें आराम से आ जाए। मैं तो रोज़ सोचती थी कि आज जाऊँ, कल जाऊँ पर मैडम आने नहीं देती थी। आज तो मैं बड़ी मुश्किल से झूठ बोल कर निकली हूँ। कहा था मेरी ननद बीमार है, तब उन्होंने जल्दी आने की इज़ाजत दे दी। चल जो भी हो अब मेरा काम तो निपटेगा।’ सर पर चुन्नी खिसकाते हुए दादी ने कहा। उनकी बातों को घूंघट की आड़ से सुनती हुई मम्मी भी दादी के तेज कदमों के साथ खुद के कदमों को बढ़ाती हुई चल रही थी। चलते-चलते रास्ता भी कट गया और दादी दुकान में जा पहुँची। दुकान के अन्दर ही दुकानदार बोला, ‘आइए अम्मा जी! कहिए क्या दिखाऊँ?’
दादी बोलीं, ‘मुझे एक मज़बूत, टिकाऊ मोटी चादर का बक्सा दिखा दो। न ज़्यादा छोटा न ज़्यादा बड़ा। दरमियाने साइज का।’

सुनते ही दुकानदार पीछे मुड़ा और दादी को दुकान के अंदर आने को कहा। दादी अंदर चल दी। अंदर बीच में एक बहुत बड़ा सा काउंटर था जिसके साइड में एक के ऊपर एक अलग-अलग साइज के चमचमाते बक्से दिखाई दे रहे थे जिन पर नज़रें घूमाती हुई दादी एक-एक का जायज़ा ले रही थी। उनकी थिरकती नज़रें एक पल दुकानदार को निहारती तो दूसरे ही पल फिर गौर से बक्सों को देखती। देखते ही देखते उन्होंने हाथों को उठा दाईं ओर इशारा करते हुए कहा, ‘ओ भइया ज़रा ये दिखाइयो!’
‘कौन सा अम्मा जी?’ कहते हुए दुकानदार बोला।
‘अरे वो जिसकी कुंडी खुली है!’ कहकर फिर दादी ने उँगली उस ओर की।

दुकानदार ने अपने साथी के साथ उस बक्से को उतारा और उनके आगे रख दिया। बक्सा देखते ही दादी की आँखें चमक गई। उन्होंने उसे बड़े प्यार से छुआ और उसे बजाने लगी। टक-टक की निकलती आवाज़ ने दादी के मन को मोह लिया था पर अभी भी उन्हें पूरी तरह से संतुष्टी नहीं हुई थी। उन्होंने उसकी कुंडी खोली और अंदर से उसके तले को बजा कर देखा उसमें भी कोई कमी नहीं थी। इसी तरह वो उसे बजाते, ठोंकते और उस पर बैठते हुए उसकी खूबियाँ देख रही थी। दुकानदार भी दादी को आश्चर्य से देखता हुआ बोला, ‘अरे माँजी मजबूत माल है। ऐसा कहीं मिलेगा भी नहीं। एक पीस बचा है। वो भी आखिरी है। छोड़ दोगे तो पछताओगे!’
दादी भौंहे उचकाते हुए बोलीं, ‘ओ भइया, तू शांत बैठ! खिलौना कोई है जो यूँही उठाकर ले जाऊँ। चल ये तो बता दाम क्या है?’
‘बस सौ रुपया!’
‘क्या...’ सुनते ही दादी चैंक गई।
‘आ चल यही पचास रुपये में दिलवाती हूँ! कितने खरीदेगा?’
‘अरे माँजी कहीं ढूंढ़ लो इससे बढिया और सस्ता नहीं मिलेगा।’
‘रहने दे तू हमें चला रहा है’ कहकर दादी आगे बढ़ गई। पर उसने रोक कर कहा, ‘हाँ आखिरी बार पूछ रहा हूँ क्या दोगी?’
‘मैं तो पचास ही दूँगी। देना है तो दे, वरना कहीं और जाती हूँ’ बोलती हुई वो सीढ़ी से उतर गई लेकिन दुकानदार ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। वो अपने कॉलर को ठीक करते हुए बोला, ‘जाओ-जाओ अगर इससे सस्ता मिल जाए तो खड़े-खड़े फ्री में दूँगा!’
‘जा तूने दे दिया’ कहती हुई दादी मुँह मटका कर आगे निकल गई। कुछ दूर चल कर दादी को एक और दुकान मिली जिसमें वो मम्मी को लेकर फट से घुस गई और बाहर से आवाज़ लगाती हुई बोली, ‘ओ भइया, ज़रा बक्से तो दिखा! ऐसा-वैसा नहीं मजबूत सा दिखाइयो!’
‘दिखाता हूँ माँजी’ कहकर दुकानदार ने बड़ा सा लाल पर्दा हटाते हुए दादी को उस ओर इशारा दिया जहाँ ढेर सारे बक्से थे। दादी ने एक बक्सा उठाया और उसकी कुंड़ी खोलकर उसकी गहराई को देखने लगी जिसे देखने के लिए वो झुकी ही जा रही थी कि तभी उनकी नज़रें मम्मी पर जा टिकी। वो मम्मी से बोलीं, ‘अरी शकुन्तला खड़ी-खड़ी क्या देख रही है! चल मेरी मदद करवा’ कहकर उन्होंने बक्से को मम्मी की ओर खिसका दिया जिसे देखते ही मम्मी फटाक से बोली, ‘अम्मा अच्छा तो है आप इसे ही ले लो न!’
‘क्या ख़ाक अच्छा है, पटक कर देख कितना अच्छा है। बहू चीज़ों की चमक नहीं उसकी गुणवत्ता देखी जाती है’ कहकर दादी फिर दूसरे बक्से की ओर लपकी!

अब तो वो एक-एक करके सारे बक्से छानती जा रही थी। कोई हल्का मिलता, कोई महंगा मिलता तो कोई छोटा। आखिर घंटो तक देख लेने के बावजूद भी जब दादी को कोई बक्सा पसंद नहीं आया तो दुकानदार ने उन्हें बेसमेंट में ले जाकर और ख़ूब सारे बक्से दिखाए जिनमें पहली नज़र में देखते ही दादी को एक बक्सा बहुत पसंद आया। वह मुस्कुरा कर बोली, ‘ला भइया तू जल्दी से ये दिखा दे!’ ‘माल तो अच्छा है’ मम्मी के कान में फुसफुसाते हुए दादी ने कहा और फिर उसे देखने लगी। बक्से की लंबाई, चैड़ाई, मोटाई सभी कुछ अच्छा था।
‘ये है न बढिया चीज़’ कहते हुए दादी ने पूछा, ‘अरे दाम क्या है ये तो बता!’
‘जी दो सौ रुपये’ कहकर दुकानदार बक्से की ओर झुका।
‘क्या लूट मार मचा रखी है? सौ रुपए की चीज़ नहीं और दो सौ रुपये माँग रहा है। ऐसा क्या खास है इसमें?’ कहते हुए दादी लड़ने लगी।
‘अरे अम्मा लेना है तो ले, दिमाग खराब न कर!’ कहते हुए उसने बक्सा अपनी ओर खिसका लिया था लेकिन तभी पता नहीं क्या हुआ अचानक उसका मूड बदल गया और वह बोला, ‘मेरी माँ गुस्सा मत हो, ला सौ रुपए दे दे। तुझसे क्या कमाई करूँगा।’ सुनते ही दादी फूली न समाई और तुरंत बटुए से सौ रुपए का करारा-करारा नोट निकालते हुए उसके हाथ में थमा दिया। बक्से को मम्मी के सर पर रखते हुए चलने लगी।
‘देखा ऐसे खरीदते है चीज़’ कहती हुई वो बार-बार बक्से को देखें जा रही थी। उनकी चमकती आँखें खुशी के मारे दमक रही थी। वह कभी तेज़ चलती तो कभी मम्मी को पीछे देख धीरे-धीरे चलने लगती। चलते-चलते जैसे ही गली के छोर तक पहुँचे, दादी तुरंत चुन्नी से अपना मुँह पोंछती हुई बोली, ‘ला बहु तू थक गई होगी!’ कहकर उन्होंने बक्सा ले अपने सर पर धर लिया और मटकती हुई गली में घुसी। उनके घुसने के साथ ही बक्से की चमचमाहट ने गली में चाँदी सी चमक छोड़ दी थी जिसकी और आकर्षित होते लोगों ने दादी को देखा तो तुरन्त बोल उठे, ‘अरे वाह, बक्सा तो धाँसू है। कितने का खरीद लिया?’ पूछते ही दादी टशन के साथ अपनी मोटी-मोटी आँखें मटकाते हुए बोली, ‘दो सौ रुपये का!’
‘क्या कुछ मंहगा नहीं ले आई’ पलट कर जवाब आया। जिस पर मुस्कुराते हुए दादी ने कहा, ‘अरे क्या करती कुछ ज़्यादा ही जरूरत थी पर तू दाम पर मत जा, चीज़ को देख। छाँट कर लाई हूँ। छाँटकर।’ कहते हुए उन्होंने बक्सा खोला और सभी गौर से देखने लगे।
‘अरे वाह नथिया मान गए इसकी चादर तो काफी मोटी है।’
‘बक्सा भी तो बड़ा है।’
सभी दादी के बक्से की तारीफ़ कर रहे थे जिसे सुनती हुई वह फूली नहीं समा रही थी।
‘अब तो नथिया इसमें पैसे जोड़ा करेगी’ खड़े होते हुए मैया अम्मा ने कहा और सभी ठहाके मार हँसने लगे। दादी भी घर में घुस गई। घर में कोई भी न था। उन्होंने उस पल न पानी पिया, न बैठी। तुरन्त अपने कपड़े निकाल उसमें सँभाल कर रख दिए। अब तो दादी को जब भी कोई कुछ देता वो तुरन्त अपने बक्से में सहेज कर रख देती। कुछ दिनों बाद अपनी पहली पगार मिलने पर पापा ने दादी को एक साड़ी तोहफ़े में दी जिसे देखकर दादी बहुत खुश हुई। खुश होकर उन्होंने पापा को सौ रुपए दिए।

दादी ने अपना सारा समान उस बक्से में सँभाल कर रख दिया। दादी उस दिन अपने बक्से को लेकर बहुत खुश थी। ऐसा लगता था जैसे दादी ने अपने जीवन की सारी कहानियों को उस बक्से में संभालकर रख दिया हो। अब वो जब चाहती उसमें से एक याद निकालती और हम सबको सुना देती। यादों से लदाभरा वो बक्सा आज भी वैसा का वैसा ही दिखता है। 

रीतिका

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