"अरे बेटा, ऐसे ही बोलते है ये! इन्हें कुछ याद नहीं।" कहते हुए अपने दोनों हाथों से साड़ी के पल्लू को उठा सर पर रखती हुई वह बाबा की ओर निहारने लगी। जिनकी मोटी-मोटी आंखें और सिकुड़ती हुई सी सफेद भौंहे बिल्कुल स्थिर सी बस सामने ही उस हरी सी दीवार को देखे जा रही थी जिस पर पड़े ढेरों निशान और मटमैला सा रंग शायद उन्हें अपने और उनके सफ़र का अहसास करवा रहा था । फूले हुए होंठों के ऊपर से गुजरती सफेद मूंछे अपने अंदरुनी गुस्से को और तेजी से बयां कर रही थी जिसके साथ दिखाई पड़ता वो फूला हुआ चेहरा जो न जाने उनके गुस्से का कारण था या फिर अपनी खुद की उस तन्हाई का जिसे मैं पूरी तरह से तन्हा तो नहीं कह सकती क्योंकि उनकी उस तन्हाई में उनकी हमनवां भी शामिल है पर फिर भी इस दरमियां रिश्ते के बीच कुछ खामोशी है जिसे ये लफ़्ज बयां कर रहे थे। कोई मेरे पास नहीं बैठता, "क्यों मैं क्या अब इतना बुरा हो गया हूं जो मेरे ही बच्चों को मेरे पास आने से शर्म आने लगी है?”
"पूछो तो जरा इनसे क्या कमी है मुझमें?” एक ही सांस में बोलते हुए उनका पूरा शरीर हिल गया और हाथों में थमी लाठी को पैरों के बीच टिकाते हुए वह दोबारा से बोल उठे, "बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ा था इन्हें मैंने। मुझे गांव छोड़कर आ गए थे ये। दोपहर का वक्त था। मैं अपने घर के बाहर चारपाई डाले लेटा हुआ था। लेटे-लेटे आंख ऐसी लगी कि एक बजे का सोया हुआ सात बजे सोकर उठा। सीधा इन्हें आवाज़ मारी।"
चारपाई के बगल में सिकुड़कर बैठी हुई अपने हमराही की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "पर उस पल इनकी भी आवाज़ न आई। यह माहौल देख मैं थोड़ा घबरा गया क्योंकि अक्सर मेरे आवाज़ न मारते ही ये तुरंत ही निकलकर आ जाया करती थी पर उस दिन इनकी आवाज़ आई और न ही मेरे दोनों बड़े बेटे व बहु दिखाई दिए। खड़ा होता हुआ मैं पूरे कमरे में घूम आया पर कहीं पर भी कोई नहीं था। पता है क्यों?”
आंखों को घुमाते हुए मेरी ओर देखकर वो कुछ पल शांत हो गए। शायद इसलिए कि वो मेरे बोलने का इंतज़ार कर रहे थे। उनकी विनम्रमा सी आंखें मुझे ही ताड़ने लगी थी पर मैं तो खामोश सी बैठी हुई कुछ अजीब से ही ख्यालों में जी रही थी लेकिन उनका मेरी ओर ही देखे जाना मुझे अहसास करवा रहा था कि वह अब मुझसे सुनना चाहते है पर बातचीत नहीं सवाल!
‘क्यों’ जिज्ञासा को जगाते हुए मैंने पूछा।
"ये सारे मुझे गांव में अकेला छोड़कर दिल्ली भाग आए थे। दुःख इस बात का नहीं है कि ये क्यों आए, दुःख तो इस बात का है कि इन्होंने मुझे क्यों नहीं बताया।"
"अरे बेटी, इनकी यादस्त चली गई है। भूल गए है ये सब कुछ, हम तो चाली साल से यहां रह रहे है। भला इन्हें छोड़कर कहां जायेंगे। सब बीमारी का असर है, ये!” पीछे से बुड़बुड़ाती हुई अम्मा, उनकी हर एक बात के आगे अपनी ज़बान खोल बैठती। आंखों को मिचती हुई घुटनों पर हाथ टिकाए वो हर बार उनकी बीमारी का इज़हार किए जा रही थी। जैसे ही मेरा सवाल उन तक पहुंचता वैसे ही वो मेरे बतौर उन्हें समझाने लगती- "पूछ रही है कब आए थे, तुम यहां?”
उन्हें बोलने के लिए लगातार निहारे जा रही थी। चश्मे के अंदर से झांकती छोटी-छोटी आंखों को कभी मेरी ओर मटका कर अपनी ताकत का अहसास करवाती, तो कभी हाथों का चलता इशारा उन्हें अपने हमसफ़र को उनकी यादों में ढकेलने पर मजबूर कर देता।
"अभी बताया तो था 50 साल की उम्र में आया था मैं यहां! वो भी अपने इस परिवार की खोज में। धोखा दिया था इन्होंने मुझे, वो तो ईष्वर की कृपा है जो मैं यहां चला आया। प्रेम है मुझे अपने इस परिवार से, पर अब किसी को मेरी परवाह नहीं। कोई नहीं बैठता मेरे पास!”
हर पल उठता उनका ये सवाल मुझे खामोशी में डूबोता जा रहा था। मेरे खुद के लिए ये समझना मुश्किल था कि मैं उन्हें क्या जवाब दूं जहां ये पेचीदा सवाल मेरी चुप्पी बन गया था। वहीं बाबा की कुर्सी के साथ टेक लगाए बैठी अम्मा आंखों को झुकाती हुई सर पर हाथ टिकाए उनके बोलने के साथ खुद खामोशी में डूबने लगी थी।
उनका बोलना शायद अम्मा के लिए बेहद आरामदायक था क्योंकि अक्सर अपने इन हमसफ़र की खामोशी उन्हें बेहर परेशान करती है। वो नहीं चाहती कि बाबा खामोश, बिल्कुल चुप रहे। हमारे बीच पनपती खामोशी से पहले ही वह उसे तोड़ चुकी थी।
"बेटी किताब भी लिखी है इन्होंने। पूछो इनसे।" अचानक से मुझे छूते उनके इस सवाल ने मेरी जिज्ञासा को बढ़ा दिया।
"किताब... कौन सी?” आश्चर्य के साथ कहते हुए मैं बाबा की ओर निहारने लगी। मेरी ललक को देख शायद वो ही नहीं अंदर किचन में काम कर रही हेमा दीदी भी उत्तेजना से भर चुकी थी। दरअसल हेमा कोई और नहीं उनकी सबसे बड़ी पोती है, जो अपने काम को छोड़ मुस्कुराती हुई अंदर से बाहर निकली और मेरे हाथ में एक लाल रंग की किताब थमाते हुए बोली, "ये हमारे दादा की है।"
"अच्छा" कहते हुए मैंने बड़ी हैरानी के साथ उस क्रीम कलर की किताब की ओर देखा जिसमें ऊपर नीले रंग से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था ‘कुषवाहा वंश परिचय’ और बीच में बना राम-लक्ष्मण व घोड़े का चित्र जिसे देखकर तो लग रहा था कि जरूर इसमें रामायण की गाथा होगी। ये सोचते हुए पलकें झपकी तो और गहरे अक्षरों में लिखा हुआ पाया ‘राधे श्याम कुषवाहा’ यानी उनका नाम। यह सब पढ़कर मैं बड़ी हैरानी के साथ उस किताब को ही देखे जा रही थी जिसे लिखने वाला मेरे सामने ही है। ये सोचकर मेरे लिए अपने कानों पर विश्वास करना थोड़ा ही नहीं काफी मुश्किल था!
आरती
"पूछो तो जरा इनसे क्या कमी है मुझमें?” एक ही सांस में बोलते हुए उनका पूरा शरीर हिल गया और हाथों में थमी लाठी को पैरों के बीच टिकाते हुए वह दोबारा से बोल उठे, "बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ा था इन्हें मैंने। मुझे गांव छोड़कर आ गए थे ये। दोपहर का वक्त था। मैं अपने घर के बाहर चारपाई डाले लेटा हुआ था। लेटे-लेटे आंख ऐसी लगी कि एक बजे का सोया हुआ सात बजे सोकर उठा। सीधा इन्हें आवाज़ मारी।"
चारपाई के बगल में सिकुड़कर बैठी हुई अपने हमराही की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "पर उस पल इनकी भी आवाज़ न आई। यह माहौल देख मैं थोड़ा घबरा गया क्योंकि अक्सर मेरे आवाज़ न मारते ही ये तुरंत ही निकलकर आ जाया करती थी पर उस दिन इनकी आवाज़ आई और न ही मेरे दोनों बड़े बेटे व बहु दिखाई दिए। खड़ा होता हुआ मैं पूरे कमरे में घूम आया पर कहीं पर भी कोई नहीं था। पता है क्यों?”
आंखों को घुमाते हुए मेरी ओर देखकर वो कुछ पल शांत हो गए। शायद इसलिए कि वो मेरे बोलने का इंतज़ार कर रहे थे। उनकी विनम्रमा सी आंखें मुझे ही ताड़ने लगी थी पर मैं तो खामोश सी बैठी हुई कुछ अजीब से ही ख्यालों में जी रही थी लेकिन उनका मेरी ओर ही देखे जाना मुझे अहसास करवा रहा था कि वह अब मुझसे सुनना चाहते है पर बातचीत नहीं सवाल!
‘क्यों’ जिज्ञासा को जगाते हुए मैंने पूछा।
"ये सारे मुझे गांव में अकेला छोड़कर दिल्ली भाग आए थे। दुःख इस बात का नहीं है कि ये क्यों आए, दुःख तो इस बात का है कि इन्होंने मुझे क्यों नहीं बताया।"
"अरे बेटी, इनकी यादस्त चली गई है। भूल गए है ये सब कुछ, हम तो चाली साल से यहां रह रहे है। भला इन्हें छोड़कर कहां जायेंगे। सब बीमारी का असर है, ये!” पीछे से बुड़बुड़ाती हुई अम्मा, उनकी हर एक बात के आगे अपनी ज़बान खोल बैठती। आंखों को मिचती हुई घुटनों पर हाथ टिकाए वो हर बार उनकी बीमारी का इज़हार किए जा रही थी। जैसे ही मेरा सवाल उन तक पहुंचता वैसे ही वो मेरे बतौर उन्हें समझाने लगती- "पूछ रही है कब आए थे, तुम यहां?”
उन्हें बोलने के लिए लगातार निहारे जा रही थी। चश्मे के अंदर से झांकती छोटी-छोटी आंखों को कभी मेरी ओर मटका कर अपनी ताकत का अहसास करवाती, तो कभी हाथों का चलता इशारा उन्हें अपने हमसफ़र को उनकी यादों में ढकेलने पर मजबूर कर देता।
"अभी बताया तो था 50 साल की उम्र में आया था मैं यहां! वो भी अपने इस परिवार की खोज में। धोखा दिया था इन्होंने मुझे, वो तो ईष्वर की कृपा है जो मैं यहां चला आया। प्रेम है मुझे अपने इस परिवार से, पर अब किसी को मेरी परवाह नहीं। कोई नहीं बैठता मेरे पास!”
हर पल उठता उनका ये सवाल मुझे खामोशी में डूबोता जा रहा था। मेरे खुद के लिए ये समझना मुश्किल था कि मैं उन्हें क्या जवाब दूं जहां ये पेचीदा सवाल मेरी चुप्पी बन गया था। वहीं बाबा की कुर्सी के साथ टेक लगाए बैठी अम्मा आंखों को झुकाती हुई सर पर हाथ टिकाए उनके बोलने के साथ खुद खामोशी में डूबने लगी थी।
उनका बोलना शायद अम्मा के लिए बेहद आरामदायक था क्योंकि अक्सर अपने इन हमसफ़र की खामोशी उन्हें बेहर परेशान करती है। वो नहीं चाहती कि बाबा खामोश, बिल्कुल चुप रहे। हमारे बीच पनपती खामोशी से पहले ही वह उसे तोड़ चुकी थी।
"बेटी किताब भी लिखी है इन्होंने। पूछो इनसे।" अचानक से मुझे छूते उनके इस सवाल ने मेरी जिज्ञासा को बढ़ा दिया।
"किताब... कौन सी?” आश्चर्य के साथ कहते हुए मैं बाबा की ओर निहारने लगी। मेरी ललक को देख शायद वो ही नहीं अंदर किचन में काम कर रही हेमा दीदी भी उत्तेजना से भर चुकी थी। दरअसल हेमा कोई और नहीं उनकी सबसे बड़ी पोती है, जो अपने काम को छोड़ मुस्कुराती हुई अंदर से बाहर निकली और मेरे हाथ में एक लाल रंग की किताब थमाते हुए बोली, "ये हमारे दादा की है।"
"अच्छा" कहते हुए मैंने बड़ी हैरानी के साथ उस क्रीम कलर की किताब की ओर देखा जिसमें ऊपर नीले रंग से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था ‘कुषवाहा वंश परिचय’ और बीच में बना राम-लक्ष्मण व घोड़े का चित्र जिसे देखकर तो लग रहा था कि जरूर इसमें रामायण की गाथा होगी। ये सोचते हुए पलकें झपकी तो और गहरे अक्षरों में लिखा हुआ पाया ‘राधे श्याम कुषवाहा’ यानी उनका नाम। यह सब पढ़कर मैं बड़ी हैरानी के साथ उस किताब को ही देखे जा रही थी जिसे लिखने वाला मेरे सामने ही है। ये सोचकर मेरे लिए अपने कानों पर विश्वास करना थोड़ा ही नहीं काफी मुश्किल था!
आरती
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