Wednesday, 9 October 2013

किरायेदार


सामने वाले घर की खिड़की पर न चाहकर भी ध्यान बार-बार जा रहा था। उस खिड़की से दिखाई देने वाले शीशे में झलकता मेरा अक्श, आज की हकीकत से रू--रू कराने की बेतोड़ कोशिश में था। तभी एक चेहरा उस शीशे के आगे आ खड़ा हुआ। उसकी घूरती आँखों ने पल भर के लिए कुछ खोजा फिर जैसे चुप्पी भरे अपमान को जाहिर करते हुए पलटकर खिड़की का परदा खिसका दिया।

वो छवि, वो हकीकत उस आइने के साथ मुझ से दूर हो गई। सोच फिर उसी इंतज़ार पर आ थमी। सिर रेलिंग पर टिक गया लेकिन ख्याल कुछ देर कहीं गली के छोर पर ही पसर गए। अब भीतर का अंधेरा सच में भीतर उतरने लगा था। अचानक बगल वाले मकान की चौथी मंजिल पर लुप से बल्ब जला और उसकी रोशनी का कतरा, घर की टूटी चादर से दीवार पर उतर आया। पलट कर आगे बढ़ी तो पाया, जिन्दगी के खुरदरे पलों से निकलकर कुछ नया था। कुछ अपना। सामने खड़ी दीवारें नयी दुनिया बसाने का न्यौता दे रही थी। नये कोने दोस्ती करने को उतावले थे। एक वो नयी आवाज़, वो भी शायद। एक सुकून गहराई तक उतर गया। रोशनी का वो कतरा यूंही दीवार झाँक रहा था। लग रहा था कुछ अपनी कहने और कुछ मेरी सुनने आया हो। एक पतली चंचल सी आवाज अचानक उस ओर से सुनाई दी, "काम इतना हो जाता है न आंटी, बस कोल्हू के बैल का तरह जुते रहो, न दिन को चैन है, न रात को आराम। माँ ठीक ही कहती थी कि जितनी मौज करनी है कर ले, दूसरे घर जाकर तो नानी याद आ जाएगी क्यूँ?”




अपनी हॅंसी में उसने अपने सामने की बालकनी में खड़ी एक महिला को शामिल कर लिया। वह हंसते हंसते पानी के कुछ घूंट गटागट गले से उतार गई। और गिलास को मुंडेर पर टिकाकर दीवार के सहारे खड़ी हो गई। लेकिन सामने से आती आवाज ने उसे फिर अपनी ओर खींच लिया,"अरी पूजा, तू तो फिर भी अकेली है, हमें देख, हम हैं बाल-बच्चे वाले। अभी काम ही क्या है तुझे। जब तुझे रो-झीक कर पुकराने वाले दो और आ जाएंगे, मज़ा तो तब आएगा" कहते हुए वो दोनों फिर से हॅंस पड़ी और अपने-अपने काम में मशरुफ हो गई।

गहराती रात ने अब मेरा भी घर रोशन कर दिया था और खाली होल्डर बल्ब की पीली रोशनी से चमक रहा था। इस आवाज की खामोशी के साथ सब कुछ बदल गया। मेरी उदासी भी और घर का सन्नाटा भी। सामान की उठाया धरी। दीवारों व अलमारियों की साफ-सफाई और कौन सी चीज़ कहाँ रखी जाए। इसी में रात बीत गई। थकान से सिर्फ हड्डियां ही नही सोच और उससे बंधे ख्याल भी टूट रहे थे। पुराना सफर अगर किनारे खड़ा होता तो शायद ये नया एपिसोड इतना जटिल न लगता। लेकिन ये पूरा साल शायद भागने का था जिसमें बिना किसी शिकायत हम भागते रहे। एक घर से दूसरे घर। दूसरे से तीसरे। कोई अपना था, कोई अपनों का तो कोई अपना होकर भी अपना नही। तो किसी को अपना समझना खतरे से खाली नहीं। मुश्किल से एक दिन बीता नहीं था यहां, लेकिन कुछ चुनिंदा चीज़ों के प्रति गुस्सा पालना मैनें शुरु कर दिया था। खासकर कान के परदे हिला देने वाली उस डोर बैल के प्रति। जिसके लिये मेरे पास सिर्फ नफरत ही थी। जिसके बजते ही रेलिंग पर दौड़ कर जी हुजूर कहना पड़ता और एक मोटी विशाल काया नीचे खड़ी दिखाई देती। साथ ही उसके साथ सुनाई देती एक आवाज,"बेटा, मोटर मैं एक ही बार चलाऊंगी। जो भरना हो भर लेना क्योंकि पानी का कोई भरोसा नहीं और हाँ, सीढियों में मीटर के पास मोटर का भी स्विच लगा है खुद ही चलाकर बंद कर देना।" ये नसीयत अब तक दो बार मिल चुकी थी लेकिन अगले दिन की शुरूआत भी इसी से होगी इसका अंदाज़ा नही था।

सुबह के 6 बजे आसमान भी कुछ धुंधला सा था। जैसे मेरी ही तरह किसी ने जर्बदस्ती आधी नींद से जगाया हो। इतनी सुबह बिस्तर से निकलना ही कौन चाहता था लेकिन अचानक ज़ोर से बैल बजी और सारी सुस्ती एक झटके में दूर। दौडकर कदम रेलिंग पर पहुंचे, "बेटा जी, मोटर नहीं चलाई न! देखा इसीलिए मैनें कहा था। चल अब जल्दी कर चलादे वरना पानी चला जाएगा।"

मैनें भागकर मोटर चलाई और हांफते हुऐ ऊपर पहुंची। कुछ पल बालकनी पर खड़ी सुबह की ताज़गी को आँखों में समेटने लगी। ये तो तय कर चुकी थी आज सामने नहीं देखना है लेकिन सुबह की चहलपहल में बदलता वो घर अपनी ओर देखने के लिए उकसा रहा था। डांट-झपट कर नज़र को नीचे गली की ओर बांधे रखा। पर नहीं मानी छूटकर सामने लपक ही पड़ी। रेलिंग के पास मुंह में ब्रश लिए बिखरी जुल्फो को हाथ से समेटता हुआ कोई खड़ा था। कोई क्या? वही जिसके शीशें में खुदको देख लेना जिसे शायद पसंद नहीं आया था। बडा सा गोल चेहरा हटटी -कटटी सेहत। उम्र तकरीबन 17-18 थी उसकी। वह इसी तरफ देख रही थी। घूरते हुए गुस्से से। पता नहीं क्यों? लेकिन शायद ये उसका स्वागत का अदांज था। यकायक नज़र हटाकर उसने साइड वाले मकान की तरफ देखना शुरू कर दिया।

"पूजा दीदी क्या हाल हैं? बस सब बढ़िया?”
"नींद खुल गई तेरी?”

ये वही रात वाली पूजा थी। जो अपनी रेलिंग पर खड़ी चाय की चुस्कियों के साथ नीचे झांक रही थी।

"अरे पागल जाग तो गई लेकिन अपने नए पड़ोसियों से मिली कि नहीं, देख तेरे सामने ही तो हैं" कहते हुए उसने मेरी ओर देखा और हॅंसने लगी। "कल ही आए हो न आप, क्या नाम है?

वो बोली, "मैं पूजा हूँ, समझ लो आज से दोस्त हूँ आपकी" एक पल में वह काफी कुछ कह गई। और मैं बुत बनी उसे देखती रही। सामने खड़ी लड़की मुंह फुलाते हुए अंदर चली गई लेकिन मैं और पूजा काफी देर बातें करते रहे।तब तक जब तक जान-पहचान से निकलकर दोस्ती ने जड़ न पकड़ ली। अब तो ये दौर चलता ही रहता था। एक नयी दुनिया का हम हिस्सा बन चुके थे। पूजा दीदी की दोस्ती के अलावा आसपास कई रिश्ते भी कायम हो गए थे। जब भी मम्मी छत पर कपड़े सुखाने जाती। उनसे बतियाना शुरू कर देती। फिर उनकी बाते भी तो ऐसी थी कि सुनने का समां खुद ही बंध जाता था।

वो बोली, "आंटी जी, आप यकीन नहीं मानोगे, मैं ऐसी बिल्कुल न थी जैसा आप आज देख रहे मुझे। मैंने अब तक अपने घर में पानी का गिलास भी न उठाया था‌, सारे भाई मज़ाक बनाते थे मेरा, कि पूजा तूने तो संभाल लिया ससुपाल का चूल्हा-चौका। जब सास डंडे बरसाएगी न तब पता चलेगा।18 की हो गई थी लेकिन तब तक भी माँ पकाती थी और मैं सिर्फ खाती थी। पर आज जब इतना काम करते हुए माँ-बाप देखते हैं तो रोने लगते हैं। बड़े अच्छे रिश्ते आए थे मेरे लिए पर मैंने अपनी मर्जी चलाई। इमसतिलए कोई ज्यादा आता-जाता नहीं है यहाँ।"

उनकी बातें मम्मी नीचे आकर हमें बताती। कुछ दिनों बाद पता चला कि पूजा ने भागकर शादी की है और पिछले कुछ महीनों से ही यहाँ अपने पति के साथ किराये पर रह रही है। ये सुनकर मैंने कुछ नहीं सोचा लेकिन हाँ, उनके पति को देखने की उत्सुकता दिल में ज़रुर जागी।

एक दिन मैं छत पर खड़ी उनसे बात कर रही थी कि तभी वही अल्हड़ लड़की भी अपनी छत पर आ गई। हम कुछ खामोशी से उसे देखने लगे। कुछ देर बाद उसने पूजा को पुकारते हुए कहा, "लगता है दीदी कुछ नए दोस्तों के आने से हमें भूल गए हो आप”,"हाँ, हाँ हो सकता है शायद" कहते हुए उन्होनें फिर से अपनी बातें शुरु कर दी। गुस्से से बौखलाई हुई सी वह वापिस नीचे चली गई। जब-जब उससे सामना होता, न जाने क्यों वह चिड़चिड़ी सी दिखाई देती। सभी की नज़रों में वह बातूनी थी। रेलिंग पर खड़ी दिन भर चिल्लाती रहती। पर जब इस तरफ देखती तो हमेशा कोई ताना मार देती। हमारे दिन किसी को समझते हुए तो किसी से उलझते हुए यूँ ही कट रहे थे। लेकिन जिसे समझा है वो भी उलझा हुआ है। इसकी मुझे खबर नहीं थी।

एक दिन छत पर खड़ी जब मैं चने चबा रही थी। पूजा के घर से आती कुछ आवाजे सुनाई दी,"मैंने कितनी बार कहा है आपसे कि ऐसे लोगों के मुँह नहीं लगते। अब जाइए वरना देर हो जाएगी" शायद अपने पति से बात कर रही थी वह। उनके थमते ही कोई बाहर निकला। उनके पति ही होंगे। देखने के लिए मैं थोड़ा आगे बढ़ी। देखा तो लूंगी पहने, सफेद बालों वाला एक बूढ़ा सा व्यक्ति था। जो सीढ़ीयों से नीचे उतर गया। देखकर आँखें फटी रह गई। 21 साल की जवान लड़की का प्रेमी ये है। सोचने की ताकत नहीं थी मुझमें। शायद कोई धोखा हुआ है। पूजा की सारी बातें कानों में गूंजने लगी। कई दिन लग गए ये जानने में कि वह उनका पति ही था। या कोई और। लेकिन आखिर में वही सच निकला जिसे पचा पाना थोड़ा मुश्किल था। लेकिन कुछ दिन के लिये जैसे बात कहीं दब गई।

काफी दिन हो गए थे पूजा से बात किए। मैं अपने कामों में इतना उलझ गई थी कि टाईम ही नहीं मिलता था। लेकिन एक दिन जब मैं बाहर से लौटी तो देखा, गली में काफी भीड़ थी वो भी पूजा के घर के नीचे। गालियों की बरसात सी हो रही थी। पूजा की मकान मालकिन, पूजा का पति सभी थे वहाँ।

"अरे लक्ष्मण तो इसके पहले ही दिखते थे। काम कुछ था नही। दिन भर फोन पर लगी रहती थी। फाँस लिया न बेचारे को। उजाड़ दिया किसी का घर"

लोगों की बातें थमने का नाम नहीं ले रही थी। झगड़ा दिन भर चला। ठीक से समझ नहीं आया लेकिन सुनने में आया कि पूजा का अपने नीचे वाले किरायेदार से चक्कर चल रहा था। एक बच्चे का बाप अपनी बीवी होते हुए इसके पीछे पागल था। बात खुली तो झगड़ा तो होना ही था। सभी हैरान थे। कुछ दिनों बाद दोनों ही किरायेदार खाली करके चले गए। पड़ोस से कुछ आवाजें। कुछ चेहरे गायब हो गए। मैं तो अभी तक पूजा की प्रेम कहानी को ही समझने में लगी थी कि आखिर उसका हीरो था कौन? इस घटना को काफी टाईम हो गया था। एक शाम मैं फिर से उसी अधूरी सी बालकानी पर खड़ी हुई सामने वाले मकान में देख रही थी। तभी सामने खड़ी उस अल्हड़ लड़की को मुस्कुराता हुआ देखकर कुछ अटपटा सा लगा। मैंने नज़र फेर ली। लेकिन वो देखती रही। फिर बड़े खुशमिज़ाज़ी से बोली, "कल छुट्टी है क्या स्कूल की?”
मैंने "" में गर्दन हिला दी।
"शुक्रिया, आपने बता दिया। वरना मैं तो कल घर बैठने वाली थी। अच्छा आप हो तो हमारे ही स्कूल में लेकिन कौन सी क्लास में पढ़ते हो? वैसे पूनम मैडम को जानते हो क्या?"

वह बोलती जा रही थी और उसके हर सवाल पर मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी। वह सारी आवाज़ें मेरे कानों में आ रही थी लेकिन मैं किन्ही और ही आवाज़ों को सुनने के लिये हर रोज अपनी इसी अधूरी सी बालकनी में आती हूँ। आज भी कोई फिर से नया किरायेदार आया है। अब तो लगता है जैसे ही कोई नया किरायेदार यहां आता है तो अपने साथ में ढेरों राज और बहुतेरियां कहानियां भी ले आता है। आवाज़ें अब फिर से चालू होगीं।



टीना

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