Monday 7 October 2013

वो आई थी क्या

"अरे भाभी वो आई थी क्या?” घूंघराले बाल व बड़ी-बड़ी आंखों वाले उस लड़के की आवाज़ अभी गले से निकली ही थी कि अपने सारे काम को छोड़ भाभी ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा,"मत पूछो, बेचारी सुबह से कितने चक्कर लगा चुकी हैं कभी कपड़े प्रेस करवाने के बहाने, तो कभी मेरे बुलाने पर, अब तक 4बार आ चुकी है।" कहते हुए भाभी का चेहरा घूम गया और हिलती जुंबा कुछ पल उस लड़के के चेहरे पर खामोशी छोड़ गई जो ‘जे’ ब्लॉक तो कभी, ‘के’ ब्लॉक को ताड़ता हुआ दोबारा से उनकी ओर तांकने लगा। सिर से खिसकते अपने पल्लू को उठाते हुए उन्होने सिर पर रखा और फिर आँखों में आँखे डाल उससे बतियाने लगी। दोनों का यूं बतियाना दिल में एक ऐसा अहसास छोड़ने लगा था जिसका कोई अंत नही था।

"जरुर किसी लड़की की बात कर रहे होगें" मन में मचलते मेरे इस ख्याल ने अभी कुछ आगे जानना ही चाहा था कि अचानक उनके इशारो ने मुझे और गहराई में डुबो दिया। पलकों को उठाते हुए, प्रेस को साईड रख उनकी नजरें अपने ठीए के सामने पड़ते 4मंजिला बने उस टाईलों वाले मकान पर जा टिकी जिसकी बालकनी पर खड़ी कान पर फोन लगाए बतियाती वो लड़की ही शायद उनके बतियाने का विषय थी। कभी दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए बुदबुदाते, तो कभी हंसते हुए फिर से उसी ओर देखने लगते। दोनों की बातों को सुन पाना जितना मुश्किल था उतना ही उनके चेहरे पर उभरते भावों को देख बातचीत का मुद्दा जानना बेहद आसान। वो इस कदर आपस में खोए थे कि उन्हें अपने बगल में अष्टा-चक्कन खेलती उम्रदराज टोली तक का कोई अहसास न था। वाईट शर्ट व ब्लैक पैन्ट में खड़ा वो लड़का कान में हैन्डफ्री लगाए उनकी टेबल पर इस कदर झुका हुआ था कि जैसे अपने सालों के राज बता रहा हो। वो भी पूरी तरह से उसकी बातों के साथ बहने लगी थी। हाथ में थमी प्रेस अब हाथ में नहीं टेबल के साईड में रखी आराम फरमा रही थी। लोहे कि बिछी चारपाई पर रखे कपड़े जिनमें से कुछ सज-सवरकर करीने से तय दर तय लगे हुए थे, तो कुछ उन लाल, पीली गठरी में से झांकते हुए अपने निकलने का इंतजार कर रहे थे। जिनमें कुछ तो ऐसे भी शामिल थे जिन्हें शायद पानी की छींटे दे, मोड़कर रख वो भूल गई थी।



उनका पूरा ध्यान अपने काम पर से हट बात-चीत में बट गया था। दोनों की वार्तालाप पूरे उफान पर थी कि तभी सामने से आते 6साल के बच्चे को देख उन्होनें प्रेस उठाई और साईड में रखी बंधी हुई गठरी से एक हरी सी साड़ी खीचती हुई, उसे टेबल पर फैला प्रेस करने लगी। अचानक उनका अपनी बातचीत से कटते हुए प्रेस करना सिर्फ मेरे लिए ही नहीं खुद के करीब खड़े उस लड़के के लिए भी आश्चर्यचकित था जो समझ नहीं पाया कि इतना खोने के बावजूद भी उन्होने अचानक प्रेस करना क्यों शुरु कर दिया?

यह जानने की जिझासा और बड़ती की कि वो बच्चा ही बोल पड़ा,"आंटी साड़ी दे दो, मम्मी तैयार हो गई।" "रुक बेटा" कहती हुई वो फटाफट साड़ी को प्रेस करने लगी। उनके चेहरे पर उभरती मुस्कुराहट अभी कुछ पलों के लिए खामोशी में बदल गई थी पूरा का पूरा ध्यान साड़ी पर आ टिका था। जिसे जल्दी से प्रेस करते हुए तय कर उन्होनें उस बच्चे के हाथों में थमाई और फिर राहत के साथ उसी लड़के की ओर निहारने लगी जो शायद अभी और बतियाना चाहता था। लेकिन अपने बाएं हाथ पर बंधी घड़ी की ओर देखते हुए हल्की सी मुस्कुराहट छोड़ वह ‘के’ ब्लॉक की ओर निकल गया। उसका जाना जहां उन्हें खामोश छोड़ गया था वहीं अब वो गठरी का हर कपड़ा निकाल उस पर प्रेस करने लगी थी। लाल चुड़ियों से भरी कलाईयां उनके एक कपड़ा उठाकर उसे तेजी से झाड़ने पर पूरे माहौल में अपनी खनखनाहट छोड़ती हुई गूंज रही थी। मोटे-मोटे काजल से संवरी आंखे लगातार मटकती जा रही थी। लाल रंग की लिप्सिटिक में सने होठ जिन्हें कभी वह अंदर को सिमेट लेती तो कभी होठों से होठों को मिलाती हुई अपने ठीए की सिधाई में पड़ते ‘जे, के’ ब्लॉक की सड़क को निहारने लगती। धीरे-धीरे बुदबुदाते होठ शायद उस लड़के का गुस्सा उतार रहे थे। अब उनके पास से जा चुका था। उन्होनें सिर से खिसकते पल्लू को उठाते हुए गर्दन मटकाई और न जाने खुद में क्या बुड़बुड़ाने लगी? गुस्से से भरी उनकी आंखे कह रही थी-"हूं जब काम पड़ता हैं तो भाभी, भाभी कहकर दौड़े आते हैं और काम होते ही खिसक लेते हैं।" मुंह उठाकर मन ही मन अपनी भड़ास को निकालती हुई वह बिल्कुल उदास हो चुकी थी। उनके हाथों ने बेशक अब रफ़्तार थाम ली थी। पर तांका-झांकी लगातार चल रही थी। यहां-वहां चारपाई पर फैले कपड़े और साइड से झांकती गठरियां सबको उसकी सुदंरता में बदल दिया गया था। हर एक कपड़ा जो अब तक टेबल पर फैला हुआ था उस पर भी अब स्त्री हो चुकी थी।

तभी प्रेस को साइड रखते हुए उन्होने 5, 6 जोड़ी कपड़ों को हाथ में उठाया और आँखों के इशारे से बगल में खड़े अपने 6साल के बेटे रवि को दुकान का ध्यान रखने का इशारा करती हुई ‘जे’ ब्लॉक की उस सकंरी सी गली की ओर चल दी जिसे सभी लोग ‘घूमक्कड़’ गली कहते हैं, क्योंकि अक्सर ही वहां लड़को का गुट डेरा डाले खड़ा रहता है। उसी गुट के बीच से निकलती हुई वह गुजर रही थी कि तभी उसके नुक्कड़ पर खड़ी सफेद सी कार के साथ टेक लगाए खड़ा 5-6 लड़कों का गुट उन्हें देखते ही मचल उठा। जिनमें से एक की आवाज़ निकली-"अरे भाभी कब आएगी वो?” सुनते के साथ वो पीछे को मुड़ी और हंसती हुई पलटकर बोली-"लो, टोक दिया न, अच्छी खासी तुम्हारे ही काम के लिए जा रही थी, मचलो मत अभी होकर आती हूँ।" कहकर वो मुड़ती हुई अभी एक कदम आगे ही बड़ी थी कि हरा सा सूट पहने सामने से आती हुई लड़की को देखकर वो रुक गई और पीछे खड़े गुट की ओर कनखियों से देखती हुई बोली-"पता है, मैं कब से इंतजार कर रही हूं तुम्हारा?, लो, कपड़े देने के लिए।" भाभी मैं आ तो आ रही थी, पर मम्मी ने काम पर लगा दिया, लाओ अब तो मैं खुद ही ले जाउंगी। दोनों नन्द-भाभी गली के छोर पर खड़ी हंस रही थी। ‘चली जाएगी या मैं छुड़वाउं’ ये कहते हुए भाभी की गर्दन घूमी और पीछे देखने का बहाना करती हुई वह हॉफ निक्कर व ब्लू शर्ट में खड़े उस लड़के को देखने लगी जिसे शायद उनके द्वारा पूरी तरह से कंपनी दी जा रही थी। उसकी पलकें अभी तक झपकी नही थी। "मम्मी आ जाएगी, मैं जा रही हूं।" कहते के साथ अपने दुपट्टे को ठीक करती हुई आँखों को मटका वह निकल गई। जिसके जाते के साथ भाभी भी अब खुश हो कहती हुई अपने ठिए की ओर मुड़ गई। पर टोली की नजरे अभी भी उन पर टिकी थी। जिनकी जान-पहचान की तो कोई हद ही नहीं है। ठीए से बाहर कदम उतरते नहीं कि कई चेहरे हंसते हुए उनका स्वागत कर बैठते हैं। कोई अपनी चाहने वाली को देखने या उसके हाल चाल जानने के लिए, अपनी इस भाभी के पास दौड़ा आता है, तो कोई दिल की फरमाइशों के अनुसार उनसे किसी का हाथ मांगने की गुंजाइश कर बैठता है। हर एक दिल जिसे अपनी अंदरूनी बैताबी बांटनी होती है। वही दिल का हाल कहने चला आता है इनकी ओर। सभी की इच्छाओं को सुनकर उसे पूरा करने की होड़ में वो अपनी बातचीत को लगातार बनाए रखती है। हर नजर, हर चेहरा आज उन्हें बेहद करीबी से जानता है। उनकी काजल से संवरी हुई मटकती आंखे हर एक को अपने करीब तक घसीट ले आती है।

आरती

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