सन् 1975
सन् 1975 - शहर को फैलाया जा रहा था। ये दौर दिल्ली शहर के नक्शे को बदलने का था। उस नक्शे में 20 नए नाम जुड़े। मंगोल-पुरी, त्रिलोकपुरी, सुलतानपुरी, जहाँगीरपुरी, कल्याणपुरी, सुन्दरनगरी, नदनगरी, खिचड़ीपुर, शकुरपुर, खानपुर। ये सभी जे.जे कालोनी के नाम से जाने गए और उनमें से एक नाम था दक्षिणपुरी।
दक्षिणपुरी में दिल्ली के अलग-अलग कोनों से आए लोगों को बसाया गया। तालकटोरा गार्डन, मालवीय नगर, कोटला, हिमायूपुर, ग्रीन पार्क, कृष्णा नगर, बंगाली कलोनी, शहीद कैंप, गोविंद पुरी, बेग़म पुर और इन्द्रा कैंप। ऐसी ही कई जगहों से झुग्गियों को तोड़कर बसाया गया। इस जगह को अपने रहने लायक बनाने में लोगों ने काफी मेहनत की। इन जगहों से लोगों कि काफी यादें जुड़ी हैं। मगर सबसे ज्यादा दिलचस्प बात ये थी कि अक्सर टूटकर आने वाले लोगों के लिये नई जगह और काम की जगह के बीच की दूरी बेइंतिहा होती है। कई काम छूट जाते हैं, स्कूल छूट जाते हैं, नई जगह बसावट के दौरान पुरानी यादों के साथ पुरानी जमी यातायात और कमाई भी निगल जाती है। लेकिन यहां पर अपनी सुविधाओं के हिसाब से दक्षिणपुरी वे जगह थी जो काफी नज़दीक रही।
शहर जितना जगह बनाने को याद रखता है उतना ही जगह विस्थापित करने को भूल जाता है। जहाँ बनी बनाई किसी जगह को उजाड़ने में वक़्त नहीं लगता वहीं किसी नई जगह को बनाने व बसने में कई साल लग जाते हैं। 1973 के दौर में सरकार से ज़मीन लेना उतना कठीन नहीं था जितना आज के दौर में है। आज जितने सरकारी दस्तावेज़ों कि जरूरत व मांग कि जाती है उतना शायद उस समय में नहीं था। बस्तियों के लिये कागजातों का शहर नहीं था। कागजात खाने की चीजों, पानी स्कूल के लिये होते थे। लेकिन आज कागज़ातों का सफ़र जीवन के सफ़र से ज्यादा हो गया है। हर कागज़ात अपने साथ एक सवाल लिये चलता है जैसे इस बस्ती में कितने समय से रह रहे हो? कितने पुराने राशन-कार्ड? पहचान-पत्र कब बनवाये? उपभोग में आने वाली चीज़ों का बिल और कितनी बड़ी झुग्गी है। कई शर्तों के आधार पर प्लॉट दिये जाते हैं। सर्वे के दौरान ही सबको यह मालूम हो जाता की उन्हे कहाँ जाना है? और कब जाना है? विस्थापन के वक़्त मे जैसे-जैसे झूग्गी तोड़ी जा रही थी उसी वक़्त मे सरकारी ट्रक बाहर सबके समान लोड करके बसावट की जगहों पर ले जा रहे थे। हर किसी को अपना कुछ भी समान ले जाने की आजादी थी। पहले के वक़्त मे एक ट्रक मे 10 घरों का समान आ जाया करता था।
धर्मेन्द्र
दक्षिणपुरी में दिल्ली के अलग-अलग कोनों से आए लोगों को बसाया गया। तालकटोरा गार्डन, मालवीय नगर, कोटला, हिमायूपुर, ग्रीन पार्क, कृष्णा नगर, बंगाली कलोनी, शहीद कैंप, गोविंद पुरी, बेग़म पुर और इन्द्रा कैंप। ऐसी ही कई जगहों से झुग्गियों को तोड़कर बसाया गया। इस जगह को अपने रहने लायक बनाने में लोगों ने काफी मेहनत की। इन जगहों से लोगों कि काफी यादें जुड़ी हैं। मगर सबसे ज्यादा दिलचस्प बात ये थी कि अक्सर टूटकर आने वाले लोगों के लिये नई जगह और काम की जगह के बीच की दूरी बेइंतिहा होती है। कई काम छूट जाते हैं, स्कूल छूट जाते हैं, नई जगह बसावट के दौरान पुरानी यादों के साथ पुरानी जमी यातायात और कमाई भी निगल जाती है। लेकिन यहां पर अपनी सुविधाओं के हिसाब से दक्षिणपुरी वे जगह थी जो काफी नज़दीक रही।
शहर जितना जगह बनाने को याद रखता है उतना ही जगह विस्थापित करने को भूल जाता है। जहाँ बनी बनाई किसी जगह को उजाड़ने में वक़्त नहीं लगता वहीं किसी नई जगह को बनाने व बसने में कई साल लग जाते हैं। 1973 के दौर में सरकार से ज़मीन लेना उतना कठीन नहीं था जितना आज के दौर में है। आज जितने सरकारी दस्तावेज़ों कि जरूरत व मांग कि जाती है उतना शायद उस समय में नहीं था। बस्तियों के लिये कागजातों का शहर नहीं था। कागजात खाने की चीजों, पानी स्कूल के लिये होते थे। लेकिन आज कागज़ातों का सफ़र जीवन के सफ़र से ज्यादा हो गया है। हर कागज़ात अपने साथ एक सवाल लिये चलता है जैसे इस बस्ती में कितने समय से रह रहे हो? कितने पुराने राशन-कार्ड? पहचान-पत्र कब बनवाये? उपभोग में आने वाली चीज़ों का बिल और कितनी बड़ी झुग्गी है। कई शर्तों के आधार पर प्लॉट दिये जाते हैं। सर्वे के दौरान ही सबको यह मालूम हो जाता की उन्हे कहाँ जाना है? और कब जाना है? विस्थापन के वक़्त मे जैसे-जैसे झूग्गी तोड़ी जा रही थी उसी वक़्त मे सरकारी ट्रक बाहर सबके समान लोड करके बसावट की जगहों पर ले जा रहे थे। हर किसी को अपना कुछ भी समान ले जाने की आजादी थी। पहले के वक़्त मे एक ट्रक मे 10 घरों का समान आ जाया करता था।
धर्मेन्द्र
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