Thursday, 23 April 2015

इलास्टिक के खेल

घर की चौखट पर बैठकर, गाल पर हाथ धर, मैं निहारती उन खेलते हुए बच्चों को जो गली में एक अनोखा ही खेल खेलते हुए नज़र आ रहे थे। उन्हें देखकर मेरी निग़ाहें उन्हीं पर टिक गई। दो बच्चे एक इलास्टिक को पैर में फँसाकर खड़े थे और दो जल्दी-जल्दी इलास्टिक को अपने पैरों तले दबाकर यहाँ से वहाँ कूद रहे थे। कभी इलास्टिक को पैर से उठाकर दूसरे छोर ले जाते तो कभी उस पर कूदते। उन्हें इस तरह खेलता देखकर मेरे मन में जिज्ञासा होती उस खेल से रूबरू होने की। थोड़ी देर बाद मैं उनके पास जा खड़ी हुई। जब भी मैं उनसे उस खेल के बारे में पूछने के लिए आगे बढ़ती कोई न कोई चीखता हुआ अपनी बारी लेने लगता और मैं हर बार वहीं खड़ी की खड़ी रह जाती। जब वो खेल को छोड़ सलाह करते तो मैं उनके बीच जाकर पूछती, ”ये कौन सा खेल है? आज तक ये खेल मैंने किसी को खेलते हुए नहीं देखा। क्या तुम मुझे यह खेल खेलना सिखाओगे?“ मेरी बातें सुनकर उनके बीच में से एक लड़की निकलकर आई और कहने लगी, ”हम तुम्हें अपने साथ खिला लेते पर इस वक़्त तो हम घर जा रहे हैं। कल जब हम खेलेंगे तो तुम्हें बुला लेंगे।“ “ठीक है

इतना कह मैं वहाँ से आ गई और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी। उस रात मैं इस बात को ज़ेहन में दबाकर सो गई। अगले दिन सुबह उठी। स्कूल गई। वहाँ भी यही सोचती रही कि आज मैं एक नया खेल खेलूँगी। यही ज़द्दोजहद पूरे दिन मेरे ज़ेहन में चलती रही। शाम को जब उन्होंने मुझे खेलने के लिए बुलाया तो मैं चुपचाप उनके बीच जा खड़ी हो गई। सभी अपने हाथों को आगे कर हानी पुगते। हमारे दो समूह बने। हमने टॉस किया। मेरी टीम बाजी देने लगी। मेरे साथी इलास्टिक को पैर में फँसा खड़े हो गए और मुझसे कहा, ”तुम इस सामने वाली सीढ़ी पर बैठकर इस खेल को सीख लो।मैं वहाँ बैठकर उन्हें खेलता हुआ देखने लगी पर मुझे कुछ समझ में आ रहा था। जब मेरी बारी आई तो मेरे दोनों हानी इलास्टिक पर कूदते हुए आगे चले गए लेकिन मेरे पैर तो इलास्टिक पर कूदने के लिए उठ ही नहीं रहे थे। हिम्मत करके मैं अपने पैरों को उठाका इलास्टिक पर कूदी। एक पैर इलास्टिक पर और एक पैर ज़मीन पर टिक गये और मैं आउट हो गई। मैं कई बार इसी तरह आउट होती रही। धीरे-धीरे मुझे खेलना आ गया। आज भी जब मैं इलास्टिक खेलती हूँ और कोई मुझसे उस खेल के बारे में पूछता है तो मेरी निग़ाहों के सामने उस दिन का मंज़र आ जाता है।



नेहा श्रीवास्तव

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