Wednesday 22 April 2015

बचपन और उसके खेल

गिट्टे जैसे खेल को सीखने और खेलने की तमन्ना तो मुझे शुरू से हो रही थी। जब गर्मी की छुट्टियों में लोग अपने घरों के सामने बैठ गिट्टे खेलते तो बड़ा मन करता उनके साथ खेलने का। एक दिन अपने इसी शौक को लिए मैं भी ग़ली के बच्चों के साथ चल दी गिट्टियाँ ढूँढ़ने। पाँच गिट्टियाँ लाकर अकेले ही शुरू कर दिया गिट्टियाँ उछालना। फर्श पर बिखेर जैसे ही हाथ में कैद गिट्टी को उछालती सभी इधर-उधर हो जातीं और मैं ज़मीन पर पड़ी गिट्टियों में से एक भी नहीं उठा पाती। धीरे-धीरे कोशिश कर उन्हें उठाना सीखा।

फिर कुछ दिनों बाद सहेलियों के साथ टिके खेलना सीखा। उन्होंने साथ टिके खेलना शुरू कर दिया। हम सभी अपनी एक सहेली के चबूतरे पर जाकर टिके खेलते। हर दिन स्कूल से आकर दोपहरी में भी चबूतरे पर अपना डेरा डाल देते। जब वो चबूतरा टूटा तब हमने दूसरे ठिकाने की तला शुरू की और अपनी एक सहेली की बालकनी में जाकर खेलना शुरू कर दिया। उनकी बालकनी में खेलना मुझे पसंद आने लगा क्योंकि वहाँ न आने-जाने वाले परेषान किया करते थे न ही सिकुड़कर बैठना पड़ता था। एक दिन दोपहरी में बालकनी में बैठकर खेल रहे थे, सोनम की मम्मी अंदर कमरे में सो रही थी। गिट्टियों के बजने की आवाज़ सुन उसकी मम्मी अंदर से उठकर आईं और गुस्से भरी आवाज़ में कहा, जब देखो गिट्टियाँ ही उछालती रहती हो कोई काम नहीं मिलता तुम्हें स्कूल का।, सभी सहेलियाँ डांट सुनकर शांत हो गई लेकिन वो अपनी मम्मी की डाँट को अनसुना कर अपने खेल में मगन रही। तभी उन्होंने सभी टिको को अपने हाथ में दबोचकर पार्क की और फेंक दिया। सभी सहेलियाँ वहाँ से उठकर चल दी और अगले दिन फिर नयी टिको ढूँढ़कर ग़ली के बाहर बनी बंद दुकान के चबूतरे पर खेलने का ठिकाना बना लिया।

हम वहाँ रोज खेला करते थे। जैसे हम सहेलियों के मिलने का कारण वही बन गया था। काश के गुज़रा वक्त एक बार फिर से लौट आता। काश के हमारी जिंदगी में रिवाइंड बटन होता .


गुड्डो


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