आंखो पर पड़ता चौंधा और चारों तरफ लहराती रंग-बिरंगी लाल, हरी, पीली लाईटें जो चकाचक साईनिंग मारते लहरिया पर्दे की घूंघट
की आड़ से तांका - झांकी कर रही थी। कभी लाल रंग की बदलती लाईटें चेहरे पर अपनी चमक छोड़ जाती, तो कभी हरे रंग की पड़ती रोशनी हर तरफ के नजारे को अपने में रंगती
हुई गुज़र
जाती। इसी तरह पल-पल बुझ-बुझाती ये लाईटें जिनकी बदलती रोशनी सभी को डीजे की ओर
खींचे चली जा रही थी। हर आते कदम इस तरह डीजे की ओर बढ़ने लगे थे कि मानो किसी के
जन्मदिन में नहीं बल्कि डान्स के जुनून को साथ लिए कोई शोह दिखाने आए हैं। किसी की इस्टोन से
जड़ी कंधे से सरकती साड़ी का पल्लू बारम्बार
खिसकते हुए डीजे पर लहरा रहा था तो कई तो नाचने में इस कदर मशरुफ हो चुके थे
कि उन्हें तो अपने खिसकते कपड़ों का ही ख्याल न था, ‘‘ ये
कुडि़यो का नशा प्यारे नशा सबसे नशीला है जिसे देखो वहीं यहाँ हुस्न की बारिश में गिला है, ये सबके नाम पर करते सभी हमराज लीला
है मैं करू तो शाला करेक्टर ढीला है, मै करुं तो शाला करेक्टर ढीला हैं”
जोरो से कानो में गूँजते “रेडी” के ये गाने जो सभी को खुदके
नशे में डुबोते जा रहे थे। खाने से हटती भीड़ बस डीजे की ओर
सिमटने लगी थी। टैन्ट ऐलोजिन की रोशनी से इस तरह जगमगा रहा था कि उसकी
चकाचोंध हर
तरफ अपना पहरा जमा रही थी। पूरे माहौल की सुगबुगाहट को बड़ाती तरह-तरह के
खानो की महक जो हर तरफ बहकती ही जा रही थी। जहां एक तरफ गर्मा-गर्म रिफाइन्ड में इठलाती
जलेबी की खुशबू सबको अपने बनने का न्यौता दे रही थी तो वहीं दूसरी ओर टन-टन पलटे
पर पड़ती करछी की आवाज टैन्ट के कोने में होने का संदेशा दे रही थी। खाना बनाने
वाले कारीगर भी हर आने-जाने वालो पर निगाहों की गश्त लगा रहे थे। लाईट की
जगमगाती रोशनी में चकमकाते लोगो के कपड़ो के चाँद-तारे और साईनिगं मारने लगे थे। दूर से निहारती मेरी निगाहें टैन्ट में
दाखिल होते हर शक्श को इतनी गहराई से देख रही थी कि नजरे उसी इंसान पर अटकी सी रह
जाती। रंग-बिरंगी पन्नियों से चिपटे हाथों में थमे सभी के गिफ्ट हर किसी के साथ खुदकी भी मौजूदगी का अहसास करवा रहे थे। खिंचा-तानी, मौज-मस्ती सभी कुछ डीजे पर इस्टाट हो
चुका था। ‘‘ऐ आ जाना, चल शर्म किस बात की, अरे अम्मा थोड़ी साइड तो हो, ओ जट यम ला पगला दीवाना, ओ रब्बा इतनी सी बात न जाना’’ ये तरह-तरह के चलते गाने जिनके शुरु होते के साथ ही सभी में बारम्बार
एक जोश सा भर आता और फिर इसके चलते के साथ सब शुरु हो जाते डीजे को घेरती लोगों की तदाद घटने की बजाए बल्कि और बड़ती
जा रही थी। नाचने का जुनून मानो सबके सिर पर चढ़ कर बोल रहा था। जैसे ही डीजे से
कोई भी नया गाना निकलता तभी मेरी बेचैनी शुरु हो जाती। कौन नाच रहा होगा? चल न छोड़ ये यहीं पर शुरु हो यहीं की यहीं
खत्म हो जाती टैन्ट के बीच में पसरी गोल टेबल पर बिछे फूलो वाले पेपर के उपर सजा
हुआ। निगाहों का आर्कषण बनता केक जिसकी छठी मंजिल बड़े अराम से उन मौज़ूद 500 लोगों को खुद मे बसाने के लिए बिल्कुल तैयार
थी। ऊपर ही
ऊपर मलाई की तरह चमकती सफेद क्रीम जिसने
लाल रंग से खुद को वंश के रुप में रंग रंगा था। वंश जिसका आज जन्मदिन
था वो ज्यादा बड़ा नही शायद एक साल का हुआ था। जो कभी एक हाथ से दूसरे हाथ तो कभी
दूसरे से तीसरे हाथ तक पहुंचता हुआ लोगों की गोदी में झूल रहा था। जैसे ही कोई दूसरा उसे गोदी में उठाता
तभी वह उसे एक अजीब से चिड़-चिडे भाव के साथ देखता हुआ पहुँच जाता। उसका रोजाना खिलखिलाने वाला
चेहरा आज इतनी भीड़ को देख एक चिड़-चिड़ा सा भाव उत्पन्न कर रहा था।
कुछ गर्मी तो कुछ अपनी क्रीम रंग की जड़ी हुई
शेरवानी से परेशान हो वो रुआसा हो गया था। तभी एका-एक सारे मस्तीले गानो को पछाड़ता
हुआ ये जुनून भरा गाना केक कटने का अहसास कराता हुआ गुजर गया। तालियो को पीटने की
गड़गड़ाहट कानों में गूंजने लगी, ‘‘हैप्पी बर्थडे टू यू-हैप्पी बर्थडे टू
यू’’ कहते हुए सभी अपने गिफ़्टों को आगे कर उस मलाई वाले सफेद केक को
लेने लगे जिसकी क्रीम को देख सभी पागल हुए जा रहे थे। खाना भी शुरु हो चुका था।
खाने की फैलती खुशबू को सूंघकर मेरे पेट में चुहे, बिल्ली दौड़ रहे थे। मन तो कर रहा था कि बस अभी उठूँ और सीधा टैन्ट में जाकर खाना
खाने लगूँ।
पर ये भला कैसे हो सकता था?
क्योंकि जन्मदिन वालो से तो हमारा तनक
भर का भी कोई रिश्ता न था।
कुछ पत्तल ले गोल-गप्पे वाले की ओर लपके जा रहे
थे। तो कुछ दही-बल्ले से लेकर पापड़ तक सारा खाना अपनी थाली में परोसवाते जा रहे
थे। खाने पर भीड़ इतनी हो चुकी थी कि कदम जमाने की भी जगह नही थी। सभी अपनी ही पेट
पूजन में लगे थे, ‘‘भाई
खिलईयों, नही बिना चटनी की दो टिक्की लगा दे, ये क्या चीली कवाब है, भाई नोनवेज दियो, बेटा थोड़े छोले डाल दे, सलाद कहाँ हैं।
हर पल गूँजती ये ढेरो आवाजे़ जिसने कुछ को तो इतना
शर्मिला बना दिया था कि वो तो खुद को ही संवारने में जुटे थे। खासकर जामनी रंग की
साड़ी पहने बारम्बार रुमाल से आँखों के काजल को पोछती एक अम्मा जो इतनी बुर्जूर्ग
होते हुए भी सबके बीच शोह पीस बनी हुई घूम रही थी। जैसे ही उसका जरा सा
पल्लू भी खिसकता तभी सीधी सी खड़ी हो वहीं पर साड़ी को पीनप करने लगती। कहने के
लिए हाथों में खाना थमा था पर तब भी हर एक टुक के खाते ही अपने मुहॅं पर रुमाल
फेरने लगती। पूरा बदन ज्वैलरी से इस कदर लदा हुआ था कि मानो अपने साथ सारी दुकान
ही समेट कर ले आई हो।
मेरी निगाहें तो पार्क के उस मंजर को निहार रही
थी। जिसने आज पूरे पार्क का रुख ही बदल डाला था। रोशनी में खिलखिलाता पार्क खूब हॅंसता
खेलता दिखाई पड़ रहा था गेट के साथ पार्क के कोने में बना एक छोटा सा घर जिसका
दायरा आज आगे टैंकर तक नही बल्कि सिर्फ ग्रील तक ही सीमित था। रोजाना सर को ढक
देने वाली तिरपाल की बंधी छत आज सीमटी हुई परिवार वालो के उस आशियाने यानी उस चरपाई के नीचे रखी थी। हर
दिन अंधेरे के पैर पसारते ही बांध दी जाने वाली वो चारदीवारी भी शायद बंधने की राह
में चारपाई के नीचे से आँखें फाड़े तो रही थी। और सो जाने का पैगाम देते वो बिस्तर जो वक्त से
पहले ही बिछने लगते थे। वह भी मानो आज अपने कानो को चौंका कर डीजे से निकलते गानो को सुन रहे थे। सच आज पूरे घर का महौल बिल्कुल बदल चुका था।
अंधेरा निकलते ही घर को कोठरी बना देने वाले वो सभी लोग आज बड़ी बेफीक्री से बैठे
थे।
रात के 11 बजे अब कहीं जाकर घर में खाना बन रहा
था और सब्जी भी बिल्कुल अभी ही कटनी शुरु हुई थी क्योंकि हर दिन घर के अंधेरे में
खो जाने वाले मिर्च-मसालो के डिब्बे आज निगाहों के आगे ही थे सभी लोग आज इतने
निश्चिंत थे की आज उसका फूल-फूल लुत्फ उठाया जा रहा था। तिरपाल भी इतनी तेजी से
टिम-टिमा रही थी कि हर एक छोटे से छोटे कोने में रोशनी की महक फैल चुकी थी। सब अपनी-अपनी
मस्ती में चूर थे। पूरे घर से लेकर परिवार तक के सभी लोगो के लिए ये एक बहुत बड़ी
खुशी थी जिसने आज हमारा रुटीन ही बदल कर रख दिया था। न दिल में कोई डर नाम का
परछावा था और नही इस खुले आसमान को चारदीवारी में कैद कर देने की कोई झंझट। बस
मस्ती में चूर जहां मेरी दोनो बहने चहचहाती रोशनी को देखकर मजे से खाना बनाने में लगी थी वहीं पापा भी
बड़ी-बड़ी टांगे फैलाकर सो रहे थे और मै चुपचाप मजे से ग्रील के साथ लगी
अपनी टेबल पर बैठी टैन्ट के अंदर न मौज़ूद होते हुए भी उस बीच खुदको महसुस कर
रही थी। दिल को छुती गानो की आवाज मुझे खुद के नशे में इस कदर डूबो चुकी थी कि मैं खूब सजी-संवरी अपने आपको टैन्ट में
देखने लगी थी। कभी केक खाते हुए तो कभी डीजे पर नाचते हुए सोच-सोच कर भी मुझे इतनी
हॅंसी आ रही थी कि जिस जन्मदिन वालो के साथ हमारा कोई नाता ही नही है, तो मै भला वहाँ मौज़ूद कैसे हो सकती हूँ? सच, इस
खिलखिलाते मंजर ने हमारा रुटीन ही बदल डाला था। जहां हर दिन अंधेरा दिखते ही पूरा परिवार
टेबल पर पसरा दिखाई पड़ता था। आज वहीं किसी को सोने का ख्याल ही नही था। आज तो
मानो हमारे साथ-साथ हमारा घर भी अपनी मस्ती में चूर था। वो भी रोजाना की रोजाना
होने वाली खिंचा-तानी से बिल्कुल निश्चिंत बैठा था। हकीकत में आज रात इतनी रंगीन
लगने लगी थी कि जी तो कर रहा था इस मस्तीली रात को मैं अपने दिल की जंजीरो से जकड़ कर रख लूँ। डीजे पर चलते हर तरह के गाने मुझे इतना
बहला रहे थे कि हर चलता गाना दिल से जुड़ने लगा था। कहने के लिए जन्मदिन वालो से
हमारा कोई नाता नही था पर तब भी हम उसमे शरीक हो टैन्ट के सारे मजे लूट रहे थे।
जिदंगी की ये पहली रात जिसे बस कैद कर लेने का
जी कर रहा था। डर दिलो-दिमाग से इस कदर नामेट हो चुका था कि बिल्कुल बेफीक्र के
साथ हम तीनो बहने पापा को साथ लिए बिना ही आज अंदर अंधेरे में बैठे किसी हॉल में बैठकर गाने सुनने की तरह उस अनुभव
को जी रहे थे। मन ताक कर रहा था कि काश ये रात कभी जिदंगी में भी खत्म न हो वो
नींद जिसके लिए कभी मैं हर दिन जल्दी से आने की प्रार्थना किया करती थी
पर वहीं आज आती हुई नींद को मैं उड़ा देना चाहती थी। हर तरफ की
जगमगाहट, चलता-फिरता रोड़ और चारों ओर की चहल-पहल को देख दिल में आज डर
नाम का कोई शब्द भी न था। हर रात अंधेरा छाते ही दिल में पनपने वाला डर
जो आज मुझे छोड़कर न जाने किस ओर अपना आसरा बना चुका था। न दिल में डर नाम का कोई
पैगाम था और नही भूत-प्रेत वाला कोई भय बस सब पर नशा छाया हुआ था तो सिर्फ इस रात
का जिसने सभी कुछ बदल डाला था।
आरती अग्रवाल
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