आज
उनकी कुर्सी खाली थी। टेबल पर काली तनी वाला वो थैला भी नही था। न ही उसके नीचे एक तरफ किसी की स्लीपर रखी थी। उनकी मेज
दूसरी टीचरों के सामान से घिरती जा रही थी मानों वो चीजें उनके न होने के अहसास को
जैसे दबा रही हों। पर दूसरों का सामान हटते ही फिर उनकी टेबल उनका इंतज़ार शुरु कर
देती। उनकी कुर्सी थोड़ा हिल कर दरवाजे पर उनकी राह ताकती और
फिर एक लंबे इंतज़ार के साथ जैसे सभी शांत हो जाते। अमरजीत मैडम सोच रही थी कि आज
आते ही किसी ने उनका कंधा थपथपाकर “और बढि़या” नही पूछा न ही प्रार्थना की घंटी के समय
किसी को अपनी धुन में चुस्त कदमों से मैदान की तरफ बढ़ता पाया गया। यहाँ तक की स्टाफरुम
के ओवन में रखे टिफिनों में आज वो चमकता हुआ स्टील का डिब्बा भी शामिल नही हुआ। जो लंच के समय पूरी मेज पर घूमता और बंटता था।
आज बहुत
कुछ नही हुआ क्योंकि आज वो नही थी। स्टाफरुम की गपशप और चहल-पहल में एक शख़्स की
कमी थी। मिसिज़ कांता। जिनका होना बेशक किसी चर्चा या महफिल का
हिस्सा न बने, लेकिन उनसे जुड़ी चीज़े हमेशा उनके होने में शामिल रहती
हैं। कभी-कभी तो लगता है वो स्कूल की उन बुनियादी चीज़ों की तरह हैं, जिन्हे यदि हटा दिया जाए या उनकी जगह बदल दी जाए तो
नज़रे उन्हे फौरन खोजने लगती हैं। ठीक वैसे ही मिसिज़ कांता किसी शोर में नहीं, किसी जि़क्र में नहीं, लेकिन सभी की तलाश में शामिल थी।
पिछले 18 सालों से जुड़ी एक कडी़ जैसे टूटने को थी। एक पहलू धुंधला पड़ रहा था। पर रह-रहका एक अहसास जिंदा हो रहा था। जिसमें न अफसोस था। न वापिस लौटने की गुंजाइश। बस एक कसक थी। जो जब पुष्पा मैडम की आँखों में उतर आती, तो वो दोनो हथेलियां आपस में सहलाते हुए अपनी कुर्सी से थोड़ा उठकर कहती, “हाँ” भई, चलो शशिकांता जी का आराम का समय भी आ गया, अब वो भी घर में बिज़ी हो जाऊँगी” और फिर अपनी बात का विषय बदल देतीं। वो इतनी शांत थी, लेकिन उनकी यादों में उतना ही शोर। उनसे छुपने, उनसे भागने के लिए ही सही, लेकिन बच्चे उन्हे स्कूल की गलियों में
अब भी खोज रहे थे। मानो किसी ने सोचा ही न हो कि वो भी जा सकती हैं या चली गई हैं।
दरवाजे की हल्की झिरी से, उनकी खाली कुर्सी को देखकर बच्चे वापिस लौट आते, “हाँ” नही आई मैडम, सच में नही आई”
और बतियाते हुए अपनी क्लासों में चल देते। कोई काम न करने पर पिटने के उस खौफ से
आज़ाद हो गया था, तो किसी की आँखों में उनके न आने पर वाकई एक कमी का अहसास था और हर कोने
की हवा उनके जि़क्र में लेकिन अपना एक अंदाज़ लिए हुए थी। कोई कहता, “और चल बढि़या है मैडम चली गईं, वरना पक्की शामत थी” तो कोई ये सोच रहा था कि उनके जाने से गणित की किताबें
फिर से नीरस हो गई हैं। सब कुछ होते हुए भी कितना खाली था वो कोना,
“हाँ” खड़ी होकर मैडम प्रार्थना के समय कनखियों से बाकी
टीचरों का निहारती थी। सभी का आपसी पहनावे पर बतियाना, किसी के सूट की तारीफ कर देना, तो किसी के शॉल की कढ़ाई को उंगली से छूकर भौंहें उचकाते हुए कहना,
“वाह” बड़ा सुंदर काम है आपके शॉल पर” इन सबके बीच भी शायद ही शशिकांता मैडम कभी कोई जुमला
ढॅूंढती नज़र आई हों, उनके चेहरे पर तो सिर्फ सुबह की ताज़गी नज़र आती थी, और लिप्सटिक से चमकते हुए होंठो पर एक बड़ी सी प्यारी
मुस्कान, जिसे किसी से बात शुरु करने के लिए किसी खास बिंदु की
ज़रुरत नही थी। जब भी उनकी तरफ सहारे के लिए कोई हाथ बढ़ता, वो पहले ही कह देती, “अपने लिए मैं अकेली
ही काफी हूँ” और वाकई, ये बात वो ही नहीं, उनका लिबास भी कहता था क्योंकि न तो उसके कंधे पर रखे
साड़ी के पल्लू को संभलने के लिए कभी पिन की ज़रुरत पड़ी, न ही कभी उनके कंधों ने पर्स की मजबूत तनियों को अपना
गुलाम समझा।
वो तो हमेशा उनके बाएँ हाथ के सहारे से उनकी बगल में दबा रहता, मानों उनके दिल के बहुत करीब हो। आज वो नजारा नही था जो
लम्बी कतारों में बैठे बच्चों को आपस में बातें करने के लिए उकसाता था। सबकी
नज़रें एक-दूसरे में नयापन ढूंढती, पर मिसिज़ कांता उस रोज़ वाले अंदाज में
ही हर बच्चे की ज़ुबान पर छाई रहतीं। उनकी साड़ी की तारीफ कोई करे या न करे, लेकिन उनका पहनावा उन साथियों से ज़रुर जुड़ता, जो उनकी हरी साड़ी देख हरी मिर्ची, यानी आज मैडम गुस्से में हैं, आज पक्का मारेंगी, गुलाबी साड़ी, गुलाब का फूल कहकर खिलखिलाते। कभी कोई उनकी तारीफ में
कुछ कह देता तो वो घूरकर गुस्से भरी अदा से डांट कर कह देती,
“चुप रहो, अपना काम करो” और कुछ बड़बड़ाती हुई सी चली जाती। वो छेड़छाड़, वो नोकझोंक भी आज नही थी। बस था तो एक खालीपन और सहलाकर गुज़र जाने वाली उनकी यादें, जिनके साथ कोई हॅंस रहा था। कोई हैरान हो रहा था। तो कोई उन्हे अपने बीच शामिल कर रहा था। उनकी रिटायरमेंट
की पार्टी वाले दिन स्कूल में जो खुशबू थी। वो जैसे अभी तक यहीं समायी थी। लाइब्रेरी के सामने वाले आँगन में बैठे हलवाई, कढ़ाई से उठता हुआ धुआँ और हवा के साथ
बहती पकवानों की खुशबू, स्कूल के एक हिस्से में जश्न का माहौल था, तो दूसरे में अनुशासन बनाए रखने की शर्त। उस आखिरी दिन
सभी उनसे मिलना चाहते थे, लेकिन शायद पहली बार वो एक भीड़ में शामिल थीं। टीचरों से घिरी उनके बीच खास होने के अहसास को जी रही थी। उनका सफर हम सभी के साथ था, लेकिन उनके सफर का आखिरी दिन सिर्फ कुछ लोगों के लिए। पर
छुटटी के समय जब दरवाजे की जाली से उन्हे उस पार खड़ा देखा था। उनके चेहरे पर वही मुस्कुराहट थी मानो भीड़ न होती तो वो पास चली आती। क्योंकि उनके
खयालों में सबके लिए जगह थी।
मेन गेट के सामने वाली दीवार पर लगे बोर्ड को वो
अकेली खड़ी होकर अक्सर गौर से देखती रहती थीं एक दिन पूछने पर बोली,
“मैं रोज़ स्कूल में आते वक्त इसे पढ़ती हूँ, इस पर जो लिखा है
वो मुझे अपनी जिंदगी में रचा-बसा लगता है कि यदि आपके जीवन में सच्चाई है तो उसका
असर दूसरों पर ज़रुर पड़ेगा” कहते हुए एक गहरी सांस छोड़कर वो आगे
चली गई।
टीना नेगी
टीना नेगी
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