Tuesday 17 March 2015

वो कमरा


ऊपर चादर गिरी हुई है। सामने दो स्लेब हैं। स्लेब के नीचे फ्रीज़ रखने की जगह है और आगे तरफ टेबल रखी हुई है। उसी के साइड में शोह-केस रहे हैं। एक उसके बगल में नीचे गिरा हुआ है। एक नीले रंग का कमरे का दरवाजा और दूसरा ज़ीने का दरवाजा बाहर वाले बरामदे मे कूलर रखने के जगह है। बाहर एक कट्टा रखा हुआ है। बाहर की तरफ ज़ीने का दरवाजा है। ज़ीने के दरवाजे के ऊपर लकड़ियाँ पड़ी हुई हैं। अब तो उस कमरे की कोई बात ही नहीं करता। धूल मिट्टी ही वहाँ पर पड़ी रहती है और हवा के चलने से वही बस वहाँ पर घूमती रहती है। अब तो वो दरवाजा धूल और मिट्टी की ही रखवाली करता है। अब तो ऐसा भी लगने लगा है की वो कमरा पुराना हो गया है। वहाँ मेरी बुआ रहती थी। अब तो यहाँ से कहीं और शिफ्ट हो गई हैं। उस कमरे में सुबह होते ही चहल-पहल भी नहीं होती। शाम को बुआ गाने चला कर खुशियों के गीत गाती रहती थी और हम सारे बच्चे वहाँ पर जाकर खूब मज़े किया करते थे। पर अब बुआ के जाने के बाद कमरा बिलकुल खामोश हो गया है। सुबह की किरण उस कमरे में पड़ती तो वो कमरा खिल उठता। मगर रात होते हिम कमरा खामोशी में खो जाता है। अब तो वहाँ पर कोई भी नहीं जाता। खामोशी के साथ उस जगह की सभी चीजें सिमट सी गई हैं। उस कमरे को जब भी देखती हूँ तो यादें ताज़ा हो जाती हैं।

कशिश

No comments:

Post a Comment