Thursday, 23 April 2015

मैं बना ड्राइवर

चार-पाँच साल की उम्र में अपने हमजोलियों को टायर को छड़ी से पीटते हुए देखा करता था। लेकिन कभी उस जगह से दूर नहीं जा सकता था जहां पर मुझे रोज सुबह से ही बैठा दिया जाता था। मेरे आसपास में सभी होते थे। बडे आदमी, औरतें, लड़कियां, लड़के और बच्चे भी मगर मैं फिर भी जैसे उन सब में अकेला ही रहता था। सुबह से ही मेरे बराबर बच्चो की भीड़ लग जाती थी। वो पूरी दोपहरी खेलते थे।
 
एक दिन मैंने सोचा कि एक बार मैं भी तो चला कर देखूँ कि टायर को कैसे चलाते हैं। उम्र के साथ टायर को छड़ी से पीटते हुए बड़ा हुआ और टायर इधर-उधर घुमाना सीखा। ग़ली के बच्चों के साथ अक्सर टायर घुमाता। एक दिन मैं और मेरे साथी जे ब्लॉक से लेकर अपनी ग़ली का चक्कर मारकर आ रहे थे कि मेरे भाई ने मुझे देख लिया और मेरे टायर को मुझसे काफी दूर एक नाली में फेंक दिया। मेरा मन बहुत उदास हो गया। मेरा भाई मुझे घर लेकर आया और मुझे बहुत मारा। मारते-मारते कहा, दोबारा टायर चलाता दिखा तो हाथ-पैर तोड़ दूँगा।“ और मुझे फिर से उसी दुकान पर लाकर बैठा दिया। मैं जब भी साइकिल के टायर को देखता तो जी करता की बस इन्हे लेकर दूर कहीं भाग जाऊ। मगर नहीं जा सकता था। जब मेरी पिटाई हुई तो उसी समय मैंने सोचा कि अगर फिर मैं साइकिल टायर से खेलूँगा तो मार पड़ेगी और दोस्त मज़ाक उड़ाएँगे।
 
मैं अपनी छत पर गया और देखा कि एक नया टायर और उसके पास छड़ी पड़ी है। टायर उठाया और छत पर घुमाने लगा। लेकिन टायर के लिए छत छोटी थी। वह दीवार पर टकराकर गिर जाता। मैं छुप-छुप कर टायर चलाता और जब जी भर जाता तो उसे फिर से छत पर फेंक देता। 

अगले दिन फिर से उतार कर इस नायाब खेल का मज़ा लेता।


कार्तिक



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