गर्मियों का समय था। एक दिन मैं सो रहा था, बिजली जा चुकी थी और पसीना शरीर से छूट रहा था। उठकर मुँह हाथ धोया
और बाहर पार्क में गया। देखा वहाँ कोई नहीं था। बाहर आया तो सारे साथी चिब्बियाँ
ढूँढ़ रहे थे। मैंने पूछा,
”क्या कर रहे हो“? उन्होंने कहा, ”अब चिब्बियों के दिन आ गए है।“ चिब्बियों
के दिन मतलब? तो उनमे से एक ने कहा,
“गर्मियों में कोल्ड ड्रिंक ज्यादा पीते है लोग, तो उनकी
चिब्बियाँ बेकार हो जाती हैं।“
“तो” मैंने पूछा।
वो बोला, “अरे उसी से तो हम खेलेगे।“
कुछ समय तो मेरे समझ में ही
नहीं आया की भला चिब्बियों से कोई कैसे खेल सकता है। लेकिन हमारे यहाँ पर कोई भी चीज
बेकार नहीं मानी जाती। हर किसी का कोई न कोई खेल हम बना लेते हैं। लेकिन उसके लिए
हमारा बच्चा बनना जरूरी होता है। जैसे – सिगरेट की खाली डिब्बियों के ताश बना कर खेलना, इमली की गुठलियों से खेलना, साइकिल का पुराना पड़ा टायर।
हर चीज का एक खेल बना कर समय के तेजी से बीतने को हम थोड़ा सा रोक लेते हैं।
तो बस, मैं
भी अपने साथियों के साथ चिब्बियाँ ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पहाड़ी पहुँच गया। वहाँ हमने
चिब्बियाँ ढूँढ़ी, जेबों में भरी और चल दिए पार्क की तरफ़।
पार्क में पहुँचते ही झट से चिब्बियाँ ठोंकी, पोल
(गड्ढा ) खोदी और उसकी कुछ दूरी पर दो लाइनें खींच दी, चलने-तकने की और शुरू किया खेल। हम चार साथी थे - कुलदीप, सौरभ, रोहित। ये हमने तका ( अपने – अपने नंबर के लिए ) और मैं दूत ( दूसरा नंबर
) बन गया और
कुल्दीप मोल ( पहला नंबर ) वैसे हम चार-चार खेल रहे थे। कुल्दीप की तीन आ
गई और तीन का डंड होता है। हमने उससे एक भरवाई, अब
17 चिब्बियाँ हो गई। मैंने चली तो मेरी बारह पोल में आ गई चिब्बियाँ तभी वो भी
मैंने मारकर जीत ली। पार्क में मैं सबसे अच्छा खेला और सबसे जीता। बाहर से पन्नी लाया
और सारी चिब्बियाँ भरी और घर चला गया। वो सारी चिब्बियाँ मैं अपने घरवालों से
छिपाकर रखता था। एक दिन मेरी बड़ी बहन ने चिब्बियाँ देख ली और घर के बाहर वाले गटर
में फेंक दी। उस दिन मेरा चेहरा गुस्से और मायूसी से भरा हुआ था। इतनी मेहनत से
मैंने ये चिब्बियाँ जीती और मेरी बहन ने फेंक दी। अब किसी को खेलता देखता हूँ तो
वो दिन याद आ जाते है। आज जब भी वो खेल खेलना चाहता हूँ। लेकिन चिब्बियाँ ढूँढ़ने का मन भी नहीं करता
। बच्चे दे देते है उन्हें लगता है कि ये अपना हानी (साथी) बना लेगा इसके पास अभी
तक चिब्बियाँ है। इस खेल को छोड़ने का मन नहीं करता।
अनिकेत
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