Sunday 14 February 2016

एक रात जो गुजरी ही नहीं

मैं आज बहुत खुश थी। एक तो आज रविवार था और दूसरा हमारे पेपर भी खत्म हो चुके थे। मेरा अपने दोस्तों के साथ में पूरे दिन खेलने का विचार था। हर रोज की तरह आज भी अपने समय से उठ गई। पूरा कमरा अब भी अपनी ही नींद में खोया हुआ था। एक तरफ में मेरी बहन और दूसरी तरफ में मेरी माँ सपने में ना जाने कहाँ घूम रही थी। आसपास में कोई भी आवाज़ नहीं थी। हमारे यहाँ की सुबह हमेशा से ही बड़ी ही शांत रहती थी। सुबह – सुबह कोई आवाज़ नहीं होती। अगर कान कुछ दम लगाकर सुनना भी चाहे तो भी दूर कहीं से गाड़ियों की आवाज़े आती है लेकिन गली में तो लगता था की लोग रहते ही नहीं है। कहीं से कोई आवाज़ भी आ जाये तो भी लग रहा था की शहर जाग गया है हमारी मगर गली नहीं।

मैंने बिस्तर छोड़ दिया और बाहर निकलने के लिए तैयार होने लगी बिना कोई आवाज़ किए। क्योंकि मैं जानती थी की अगर कोई भी जाग गया तो मेरा बाहर जाना मुश्किल है। तैयार होने के बाद में मैंने खिड़की से बाहर झाँका तो अब भी अंधेरा ही था। मैं कमरे में ही बैठ गई और सोचने लगी की जैसे ही थोड़ा सा उजाला होगा और मैं माँ को बोलकर तुरंत ही नीचे उतर जाऊँगी। मुझे वहीं बैठे – बैठे आधे घंटे से ज्यादा हो चुका था। खिड़की के बाहर अब भी अंधेरा था और गली में अभी सन्नाटा छाया हुआ था। मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मैं परेशान होने लगी थी। अंदर कमरे में गई और घड़ी की तरफ में निगाह डाली। घड़ी में सुबह के आठ बज रहे थे। मैं भाग कर बाहर आई और खिड़की से फिर से बाहर झाँका। इस बार थोड़ा दूर तक नज़र डालने की पूरी कोशिश की और खिड़की पर लटक ही गई। लेकिन अब भी गुप अंधेरा था। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था। एक तो माँ ने बड़ी मुश्किलों से मुझे आज खेलने जाने के लिए पर्मिशन दी थी और आज ही ऐसी सुबह नसीब हो रही थी। मैं बाहर ही बैठी – बैठी सोचने लगी और खुद पर तो कभी भगवान पर गुस्सा करने लगी की भगवान भी कभी – कभी हम लड़कियों के उपर घरवालों की तरह से ही बैठ जाता है। फिर सोचा की क्या पता सर्दी का मौसम है तो उजाला थोड़ी देर से ही होगा। मैं एक बार फिर से वहीं बैठ गई। दस मिनट बैठने के बाद में मैंने एक बार और टाइम देखा। तो आठ बजकर दस मिनट हो चुके थे। मैं अब बहुत ही परेशान हो चुकी थी। मैंने माँ के तकिये के नीचे से फोन निकाला और उसमे टाइम देखने लगी। क्या पता हमारे घर की घड़ी ही खराब हो गई हो। मैंने फोन में टाइम देखा तो उसमे भी सुबह के आठ बज कर दस मिनट हो चुके थे। फोन को लेकर ही मैं बाहर वाले कमरे में आ गई और खिड़की से बाहर देखने लगी। उजाला अब भी नहीं हुआ था। गली भी शांत थी। बस, दूर से अब भी तेज निकलती गाड़ियों की आवाज़ ज़न्न से आती और गायब हो जाती। मैं माँ के पास में गई और माँ को हाथो से झिंझोरा, माँ अब भी नींद में थी। पापा थे नहीं वो रात की ड्यूटि करते है तो सुबह में आते है। लेकिन अभी तो वो भी नहीं आए थे।

माँ उठी और ज़ोर से बोली – क्या है?
मैं माँ को देखती रही। वो फिर से बोली – अरे क्या है?
मैंने माँ से बोला – माँ आज उजाला क्यों नहीं हो रहा?
वो बोली – उजाला अपने वक्त पर होता है। चल सो जा।

इतना कहकर वो करवट बदल कर सो गई। मैंने फिर से माँ को झिंझोरा और बोली – माँ साढ़े आठ बज गए है मगर अब भी बाहर में अधेरा है।
माँ बोली – घड़ी खराब हो गई है, तेरे पापा से बोला था की सैल लेते आना मगर तेरा बाप सुनता कहाँ है मेरी।
मैंने कहा – अरे घड़ी तो सही है।
वो नींद में घड़ी की तरफ में देखते हुए बोली – कहाँ सही है?, सेकेंड की सुई तो चल ही नहीं रही।

उन्होने एक नज़र ही देखा था तो कहाँ से उन्हे सुई चलती हुई दिखाई देती। मैं बाहर वाले कमरे में गई। उजाला देखने की मेरी ललक मुझे पागल कर रही थी। उजाला तो नहीं हुआ था मगर आज तो गली में सब इस तरह से सो रहे थे की लगता था की किसी ने रात में पूरी गली में बेहोसी की दवाई छिड़क दी है और लोग बेहोश हैं। कोई आज उठ ही नहीं रहा था। मैं भाग कर नीचे गई। सोचा की रोहित के घर ही जाती हूँ, क्या पता वो ही जाग गया हो। मैं नीचे उतरी और आहिस्ता – आहिस्ता चलने लगी। गली में कोई लाइट नहीं थी। हमारी गली के लोग बाहर का बल्ब भी नहीं जलाते। इसके कारण कई बार गली में चोरी भी हुई है पर कोई मानता ही नहीं। सब बिजली बचाते हैं। मैं रोहित के घर के बाहर पहुंची। दरवाजा बंद था। मैंने आवाज़ लगाई। रोहित.... ओ... रोहित..., मगर किसी ने मेरी आवाज़ ही नहीं सुनी। मैंने फिर से रोहित को पुकारा। पर इस बार भी किसी ने नहीं सुना। मुझे डर लगने लगा था। गली शांत थी। मैंने दरवाजे पर हाथ मारा। अंदर से किसी उठने की आवाज़ आई। जैसे ही मैंने वो आवाज़ सुनी तब मेरी जान में जान आई। थोड़ी देर के बाद में दरवाजा खुला। सामने रोहित की मम्मी थी। उनकी आँखों में अब भी नींद सी थी। वो मुझे देखे बिना ही बोली – भैया, इतनी सुबह – सुबह मत आया करो।
मैंने उन्हे देखा और हंसने लगी। मैंने कहा – आंटी में हूँ शिवानी।
वो बोली – अरे शिवानी इतनी सुबह – सुबह क्या कर रही है? तू इतने अंधेरे में आ कैसे गई?
मैंने कहा – आंटी मुझे डर लग रहा है।
वो बोली – तू अंदर आ।

मैं अंदर गई और आंटी से बोली – आंटी ज़रा टाइम बताना की कितना हुआ है?
आंटी ने घड़ी की तरफ देखा और कहा – बेटा हमारी घड़ी तो खराब हो गई है।
मैंने कहा – आंटी आप अपने फोन में देखिये?

आंटी ने अपना फोन निकाला और देखा। वो फोन लेकर बाहर की तरफ में चली गई। दरवाजा खोला और वहीं पर बैठ गई। मैंने कहा – आंटी मुझे इस कारण तो डर लग रहा है।
लेकिन आंटी ने कहा – बेटा सर्दी है तो बादल हो रहे है इसलिए अंधेरा है।
मैंने कहा – आंटी तो रोहित को उठा दो। हमे तो आज खेलना है।
आंटी ने कहा – बेटा बादल हो रहे है तुम कहाँ खेलोगे। जाओ अपने घर में चले जाओ।

इतना कहकर उन्होने मुझे भेज दिया। लेकिन मैं घर नहीं जाना चाहती थी। मैं आशीष के घर की तरफ में चल दी। आशीष का घर गली के कोने पर है। मैंने आशीष को आवाज़ लगाई। कमरे में लाइट जली और आशीष बाहर आया। आकार बोला – तुझे पता है शिवानी क्या हुआ?
मैं चौंक कर बोली – हाँ बोल?


आशीष ने कहा – तुझे पता है शिवानी, आज तो सुबह ही नहीं हो रही। भाई मुझे तो बहुत डर लग रहा है। रात को दादी भी बोल रही थी की दुनिया खत्म होने वाली है।
मैंने कहा – हाँ, वही तो मैं कह रही हूँ। देखियों आज तो दिन ही नहीं निकल रहा और सब सो रहे हैं। मुझे तो कल से फिर मम्मी घर में ही बंद करके रख देगी।
आशीष ने कहा – पता है, कल पापा न्यूज़ देख रहे थे। चारों तरफ में लड़ाई चल रही है। तो दादी ने कहा की सब इंसान आपस में लड़ रहे है तो भगवान अब दुनिया खत्म कर देगा।
मैंने कहा – मुझे तो बस एक रविवार का दिन मिलता है खेलने के लिए आज भी उजाला नहीं हो रहा।
आशीष ने बौखला का कहा – अरे पागल तुझे खेलने के पड़ी है यहाँ पर दुनिया खत्म होने वाली है।
मैंने कहा – तू तो हमेशा खेलता रहता है न, तभी बोल रहा है। मुझे तो खेलने को नहीं मिलता। घर के काम करने पड़ते हैं। आज के दिन मम्मी घर पर रहती है तो मुझे खेलने को मिल जाता है। चल अब खेलने चलते हैं।
आशीष ने कहा – पर इतने अंधेरे में तू क्या खेलेगी?
मैंने कहा – अरे पागल, हम छुपन-छुपाई खेलेंगे।
आशीष ने कहा – पर कहाँ पर खेलेगी? और क्या हम दोनों ही खेलगे?
मैंने उसे मनाते हुये कहा – हम रोहित के घर चलते है, उसे भी उठा लेते हैं।

तभी आशीष की मम्मी की आवाज़ आई। मम्मी की आवाज़ सुनकर आशीष भी खिड़की से दूर हो गया मगर कमरे की लाइट जली छोड़ दी। मैं भी उसकी मम्मी की आवाज़ सुनकर थोड़ा अंधेरे में तो छुप गई। मम्मी ने फिर से आवाज़ लगाई मगर आशीष कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर के बाद में वो नीचे आ गया। मगर वो बहुत डर रहा था। हम दोनों ने रोहित को भी उठाया। उसकी मम्मी तो जाग ही रही थी। हम उसके कमरे में गए और उसे उठा लाय। हम अब पार्क की तरफ में चल दिये। पार्क की लाइट तो हमेशा खराब ही रहती है तो पार्क में भी अंधेरा ही था। हम पार्क में जाने से एक बार तो डर रहे थे की कहीं किसी गोबर या गड्ढे में पैर पर गया तो गड़बड़ हो जाएगी। लेकिन हमने तो आज ठान ही लिया था की खेलना है तो खेलना ही है। हम डरते-डरते पार्क में घुस गए। पार्क से काफी सारे लोगों और बच्चो की आवाज़ें आ रही थी। लेकिन वो दिखाई नहीं दे रहे थे। जो लोग मोबाइल लेकर बैठे थे उसकी रोशनी में थोड़ा बहुत ही दिख रहा था। पार्क में ऐसा महसूस हो रहा था की लोग बहुत खुश है की आज अंधेरा ही है। जो लोग सो रहे थे वो खुश थे की आज नींद पूरी होगी और जो पार्क में थे उन्हे आज ज्यादा देर बैठने को मिल रहा था वो भी अकेले में।



हम खेलने लगे। सबसे पहले मेरी ही डेन थी। वो दोनों छुप गए और मैं उन्हे ढूँढने लगी। आज ऐसा लग रहा था की मानो हम गली में ही खेल रहे है जैसे हम लाइट के जाने के बाद खेलते है। मैंने कैसे न कैसे रोहित को तो ढूंढ ही लिया था की अचानक से बहुत सारे लोगों का शोर सुनाई दिया।

कोई बाहर मत निकलना
देखो, आज के दिन कुछ भी हो सकता है
अरे मेरा बेटा कहाँ है?’
भगवान हमसे कोई गलती हुई है तो हमे माफ करदे।

ना जाने कौन – कौन क्या – क्या बोल रहा था। लगता था की अब कुछ लोग डरना शुरू हुये हैं। पार्क में भी भगदड़ मच गई थी। हमे बहुत डर लगने लगा था। हम भी पार्क से भागना चाहते थे मगर अभी आशीष नहीं मिला था। हम दोनों ने उसे आवाज़ें मारी और उसे ढूंढा पर आशीष का कुछ पता नहीं था। हम आवाज़ें मारते गए। लगातार। पर वो कुछ नहीं बोल रहा था। लोगों का शोर और बढ़ता जा रहा था। कोई बोल रहा था – सब मंदिर चलो। तो कोई बोल रहा था – अरे घटा के कारण उजाला नहीं हुआ है डरो मत। पर जैसे कोई उस आदमी की बात नहीं मान रहा था। हमने आशीष को फिर से ज़ोरों से आवाज़ मारी। आशीष ..... ओ.... आशीष पर वो था की कुछ बोल ही नहीं रहा था।

रोहित बोला – शिवानी हम उसके घर चलते है कहीं वो डर के मारे घर तो नहीं चला गया।
मैंने कहा – नहीं वो अकेला आ तो नहीं पा रहा था तो अकेला जाता कैसे? वो यहीं होगा चल उसे ढूंढते हैं।

हम फिर से उसे ढूँढने लगे। अब हमने हर एक चीज को और कोने को हाथ लगा – लगाकर देखना शुरू किया। बाहर लोगों का शोर बढ़ता जा रहा था। हम भगवान से दुआ करने लगे की चाहे सवेरा मत कर मगर आशीष को मिलवा दे। इतने में रोहित की आवाज़ आई, वो चिल्लाया – शिवानी यहाँ आ जल्दी।

मैं बुरी तरह से डर गई। मै आवाज़ मारती हुई जब वहाँ पर पहुंची तो मुझे बहुत गुस्सा आया। आशीष तो पार्क की बेंच पर आराम से सो रहा था। हमने उसके सोते हुये ही गालों पर एक चांटा मारा। वो रोते हुये उठा। बोला – क्या हुआ? सवेरा हो गया?    

मैंने कहा – सवेरा तो हो गया लोग जाग गए है मगर अंधेरा तो अब भी है।


वो मेरी ओर भोचककेपन से देखने लगा। कि तभी बड़ी ज़ोरों का शोर हुआ। आसमान फटने वाला है। किसने ने ज़ोरों से चिल्लाया। भागों कि आवाज़ें पीछे – पीछे आने लगी। कोई पार्क में चिल्लाता हुआ आया। मेरा बेटा कहाँ गया?’ हमे लगा कि ये आशीष कि मम्मी है। हम उनको ढूँढने लगे। हम पार्क से बाहर नहीं जाना चाहते थे। हम अखाड़े कि तरफ में चल दिये। हमे लगा कि वहाँ पर तो लोग होगे जिनके पास में हम थोड़ी देर रुक कर अपने घरवालों का इंतज़ार कर सकते हैं। हम तीनों ही डरे हुये थे। हम वहाँ पर भागे। वहाँ पर कुछ लोगों ने आग जलायी हुई थी और सभी वहीं पर बैठ कर बाते कर रहे थे। वहाँ पर जाकर हमने देखा कि लोग तो आपस में बड़े ही आराम से बातें कर रहे है। किसी में कोई फिक्र नहीं दिख रही है। वो लोग एक दूसरे को अब क्या होगा कि कहानी बता रहे थे। हम भी वहीं बैठ गए। पार्क के बाहर शोर था और पार्क के अंदर सुकून। 

प्राची

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