हेमा हम सबकी तरह एक आम
लड़की थी, परंतु उसने बचपन से दुख ही देखे थे। सुख का
अनुभव भी नहीं था। हेमा बचपन में ही अपने पिता से किसी कारणवश दूर हो गई। वो अपनी
मम्मी के साथ नाना के घर रहती थी। उसके दो छोटे भाई थे- एक का नाम भोला था और
दूसरे का शिक्का। उसका नाम तो अरुण था पर प्यार से सब उसे शिक्का कहते थे। हेमा की
मम्मी स्कूल में खाना बनाती थी। खाना बनाने के साथ-साथ वह घर का तथा जानवरों का
पूरा काम करती थी। हेमा ने अपनी मम्मी को कभी आराम करते नहीं देखा था। हेमा की
मामी जी मानसिक रूप से कमज़ोर थी। इसलिए सारा काम हेमा की मां को करना पड़ता था।
हेमा ने जब से होश संभाला वो अपनी मां के साथ घर के तथा खेतों के काम में हाथ
बंटाने लगी। जब हेमा 7 साल की हुई तो उसके नाना ने उसका दाखिला गांव
के स्कूल में करवा दिया। स्कूल हेमा के घर से नजदीक में था इसलिए हेमा का ध्यान
स्कूल में कम घर में ज़्यादा रहता था।
उसे पढ़ाई के नाम से ही
चिढ़ थी। जब भी उसे मौक़ा मिलता घर भागने की कोशिश करती रहती। उसके स्कूल का काम
कभी पूरा नहीं होता था। जब भी टीचर पूछती कि हेमा गृहकार्य क्यों नहीं किया तो
उसका एक ही जवाब रहता कि कपड़े धो रही थी, बत्र्तन धो रही थी। जानवरों के लिए चारा लेने खेत पर गई थी आदि। अनगिनत बहाने
उसके पास तैनात रहते थे। कुछ समय तक ऐसा चलता रहा फिर एक दिन टीचर ने हेमा के नाना
को बुलाया और उनसे पूछा कि आप हेमा से काम क्यों करवाते हैं, अभी उसके खेलने-कूदने की उम्र है न कि चैका-चूल्हा संभालने
की।’ टीचर के मुंह से ऐसे वचन सुनकर उनका चेहरा सफेद
पड़ गया मानो उन्हें कुछ पता ही न हो। जब उन्होंने घर जाकर नानी की पूछा तो पता
चला कि नानी हेमा से जान-बूझकर काम करवाती हैं। नाना ने उन्हें बहुत डांटा तथा
हेमा को प्यार से समझाया कि स्कूल जाना अच्छी बात होती है, पढ़ने से व्यक्ति का जीवन अच्छा बनता है। हेमा ने मासूमियत
के साथ कहा, ‘नाना जी, मम्मी को अकेले काम कन्नो परैगो। जब मम्मी घर को, पौहेन को और स्कूल में खाना बनानो सब काम उन्हीं पै आ जाएगो, मम्मी तो वैसेऊ बहुत चिंता करती है।’ नाना के बहुत समझाने पर हेमा स्कूल जाने लगी।
एक दिन हेमा स्कूल नहीं आई।
टीचर के पूछने पर एक लड़की ने बताया कि वो अपने पापा के घर गई है। उसके पापा उसे
बुलाने आए थे इसलिए वो चली गई परंतु विमला बुआ, भोला और सिक्का यहीं हैं, वो नहीं गए। हेम
आठ महीने पापा के पास रही। जब वहां से लौटी तो एकदम गोल-मोल, क्यूट सी बहुत सुंदर लग रही थी। रोज़, एक से एक नए कपड़े पहनती थी। मैं, शीतू तथा कक्षा के और बच्चे हेमा से बहुत कम बोलते थे पर दो
दिन बाद जब वो स्कूल आई तो हम सबसे बहुत अच्छे से बोली। पहले बोलना तो दूर हम सबकी
तरफ़ देखती भी नहीं थी क्योंकि उसकी नानी का कहना था कि वो ब्राह्मण है और हम अन्य
जाति के। हम सबको इस बात का बेहद आश्चर्य था कि पहली बार हेमा ने अपनी नानी की कोई
बात नहीं मानी थी। हेमा जबसे अपने पापा के पास रहकर आई थी, वो बेहद समझदार हो गई थी। मैंने सुना था कि उसके पापा खुले
विचारों के व्यक्ति थे। वे जात-पात पर विश्वास नहीं करते थे। हेमा की पढ़ने में
रूचि देख हमारी कक्षाध्यापक श्रीमान अजय भी चकित व हैरान थे कि जिस हेमा को पढ़ाई
के नाम से चिढ़ थी उसे आज पढ़ने में इतनी रूचि देख मास्टर जी भी बहुत खुश थे
क्योंकि एक तरह से उनकी मेहनत रंग लाई थी।
कुछ समय बाद वार्षिक
परीक्षा थी। परीक्षा परिणाम सुनकर हम सब हैरान थे कि हेमा ने कक्षा में प्रथम
स्थान प्राप्त किया। हेमा बहुत खुश थी पर उसकी ये खुशी ज़्यादा देर तक न रही
क्योंकि उसकी नानी घर का काम न होने की वजह से आगबबूला हो रही थी। स्कूल से जब
हेमा घर की दहलीज़ पर कदम रखा ही था कि नानी ने डंडे से उसे बहुत मारा। हेमा ने
रो-रोकर घर का सारा काम किया। जब हेमा खेत पर चारा लेने जा रही थी तो मेरी दादी ने
बुलाया उसके घाव देखे। कुल 18 जगह हाथ-पैरों
पर उसके नील पड़े थे। दादी ने उसे हल्दी वाला दूध दिया। हेमा ने पहले तो मना किया
पर दादी के कहने पर बाद में दूध पी लिया। कुछ देर उसने घर पर आराम किया। मेरे चाचा
तो बैलगाड़ी पर चारा काट कर लाते थे। चाचा एक बार में इतनी चारी काट कर लाते थे कि
जानवर तीन छाक खाए। उस दिन भी चाचा चारी लाए, दादी के कहने पर चाचा ने एक गठरी चरी हेमा को दे दी। हेमा घर गई तो नानी ने खरी-खोटी
सुनाई, गालियां दी और सांझ को खाना तक नहीं दिया, बेचारी भूखी ही सो गई। दूसरे दिन स्कूल था। सरकारी स्कूल था
इसलिए हम सबको वहीं से खाना मिलता था। हेमा से आधी छुट्टी तक का इंतज़ार नहीं हो
रहा था पर जैसे-तैसे उसने अपनी भूख पर काबू किया। आधी छुट्टी हुई तो सभी बच्चे
हाॅल में पहुंच गए। उस दिन खाने में दाल-रोटी बनी थी। जब हम हाॅल में पहुंचे तो
देखा कि कम से कम तीन सौ बच्चे खाने की लाइन में लगे थे। पूरे हाल में शोर गूंज
रहा था। पहले मुझे दो, मुझे दो का शोर गूंज रहा था। शोर सुनकर अजय
मास्टर जी हाॅल में पहुंचे। मास्टर जी के पहुंचते ही सभी बच्चे शांत हो गए। मास्टर
जी मुझसे बोले, ‘जाओ जाकर खाना बनाने में ताई जी की मदद करो!’ उस वक़्त मैं ज़्यादा बढ़ी नहीं थी, सात-आठ साल की रही होंगी पर कहते है न कि जितनी छोटी उतनी
खोटी वही हिसाब मेरा भी था। पूरे स्कूल में मेरा रौब था। उस वक़्त स्कूल का
प्रत्येक बच्चा मेरी बात मानता था इसलिए नहीं कि मैं पढ़ने में अच्छी थी या कोई
मुझसे डरता था बल्कि इसलिए क्योंकि सब मेरे दादा जी की बहुत इज्ज़त करते थे और
मेरे दादा जी मुझे परेशान या उदास नहीं देख सकते हैं। वो बस मुझे खुश देखना चाहते
थे। ये बात गांव के सभी लोग जानते थे इसलिए मुझसे कभी कोई कुछ भी नहीं कहता था
इसलिए मास्टर जी ने मदद करने वाली बात मुझसे कही। मास्टर जी की बात अभी पूरी भी
नहीं हो पाई थी कि मैं जल्दी से जाकर खाना बंटवाने लगी। मैंने एक थाली में खाना
परोसा और हेमा के पास पहुंचा दिया। उसी दिन से मेरी और हेमा की दोस्ती की शुरूआत
हुई। उस दिन के बाद हेमा अपनी अच्छी-बुरी यादें, सुख-दुख सब मेरे साथ बांटने लगी। हेमा की मां का तबादला भी हमारे स्कूल में हो
गया। अब वो हमारे स्कूल में खाना बनाती थी। हेमा और मैं, कभी-कभी उसकी मां की मदद कर दिया करते थे। हेमा मुझसे
दो-तीन साल बड़ी थी इसलिए उसे खाना बनाना आता था, मुझे खाना बनाना नहीं आता था।
मैं, शीतू और हेमा हम तीनों पक्की सहेली बन गई। हम तीनों जब तक
स्कूल में रहते, साथ खाते-पीते, साथ खेलते। देर-देर तक बातें करते। हेमा की नानी को ये तो पता था कि मैं उसकी
सहेली हूं पर ये नहीं पता था कि शीतू भी उसकी सहेली है। जब हेमा मेरे साथ नहीं
होती थी तभी मैं शीते से बात करती थी पर जब ये बात हेमा की मां को पता चली तो
उन्होंने हमारी दोस्ती को प्रोत्साहित किया। अब तो हमें किसी बात का डर ही नहीं
था। हम तीनों बहुत मस्ती करते थे। हम तीनों ने साथ में बहुत से खेल खेले जैसे
गिट्टे, कबड्डी, खो-खो, रस्सा टापना, गिल्ली-डंडा इत्यादि अनेकों खेल खेलें पर हमने कभी लड़कियों की तरह
गुड्डे-गुडिया से नहीं खेला, ज्यादातर लड़कों
वाले खेल खेलते थे। कड़ी टक्कर देते थे हम लड़को को। एक बार ये बात हेमा की नानी
को पता चल गई कि हम तीनों मंदिर के पास गिट्टे खेल रहे हैं। वह गुस्से में भागती
हुई आईं, वहीं हम सबके सामने हेमा को शीशम की डंडी से
पीटने लगी। उस वक़्त हम कुल ढाई सौ बच्चे होंगे। एक बच्चा भागकर हेमा की मां और
मास्टर जी को बुलाने गया। उन्हें आने में पता नहीं कितनी देर लगती, हम अपनी सहेली को इतनी देर पिटते देख नहीं सकते थे। मैंने
रिंकू और लालू से कहा तुम दोनों जाकर डोकरी से कैसेऊ करके डंडा छीन लाओ फिर तो हम
देख ही लेंगे। वो दोनों लंबे-लंबे थे इसलिए उन्होंने डोकरी के हाथ से डंडा छीन लिया, फिर क्या डोकरी तिलमिला गई। वो दोनों ठहरे छोटे डोकरी के
हाथों आने से रहे। उन्हें जा बात समझते देर न लगी कि जा सब मेरी करतूत है तब तक
मास्टर जी और हेमा की मां आ गई। हेमा सिसक रही थी। उसकी मां ने उसे जैसे-तैसे चुप
करवाया। मास्टर जी ने हेमा की नानी को बहुत समझाते हुए कहा अगर बच्चे साथ रहेंगे
तो खेलेंगे-कूदेंगे तो फिर येउनकी उम्र है खेलने-कूदने की पर नानी कुछ समझना नहीं
चाहती थी। वो वहां से घर के लिए चल दी और हम सब स्कूल में वापस चले गए। नानी ने
जाकर मेरे घर, शीतू, लालू, रिंकू के घर जाकर शिकायत लगा दी। मेरा सारा
गुस्सा मेरी दादी पर निकाल दिया। मेरी दादी को उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई। जब हम
सब अपने-अपने घर पहुंचे तो मेरी मम्मी ने पहली बार मुझ पर हाथ उठाया था। तीन-चार
थप्पड़ मार दिए और बहुत डांटा और कहा कोई ज़रूरत ना हेमा के साथ रहने की। अब मैंने
सुन लिया ना कि तू हेमा के साथ रहती है तो देख लियो तेरी खैर नहीं। मैं थोड़ी देर
तक रोती रही। घर से बाहर खेलने नहीं गई। रात को दूध पीकर ही सो गई। खाना भी नहीं
खाया। दोपहर को स्कूल से आने के बाद जो खाना खाया सो उसके बाद मार खानी पड़ी। एक
गिलास दूध से क्या होता है पर गुस्से में खाना नहीं खाया। सुबह उठकर नहाने के लिए
नल पर गई मम्मी ने नल चला दिया और मैंने जल्दी से नहाया, नहाने के बाद चाय पी, नाश्ता किया। फिर तैयार होने के बाद स्कूल गई तो पता चला कि हम पांचों ही कल
पिटे थे और लालू, रिंकू, हेमा को उनकी मम्मी ने खाना दिया नहीं। मैंने और शीतू ने खाया नहीं, उस दिन स्कूल में आलू-पूरी बनी थी। मास्टर जी से हमने कह
दिया कि सबसे पहले खाना हम पांचों को दिलवाना क्योंकि हमारी पिटाई आपकी वजह से हुई
है। मास्टर जी हंसकर बोले, मेरी वजह से कैसे! मैंने कहा कि मास्टर जी अगर
आप जल्दी आ जाते तो ये सब नहीं होता। अच्छा जी, हम सब एक साथ बोल पड़े। मास्टर जी बोले, मैंने कहा था न कि अम्मा जी की छड़ी छीन लो मास्टर जी ने हंसते हुए कहा कि
अच्छा ये बताओ कि तुम्हारी पिटाई कैसे हुई। लालू बोला, उस खुसड़ बुढि़या ने जाकर हमारे घरों में चुगली कर दी तो
पिटना तो था ही। मास्टर जी ने हम पांचों की खाना दिलवाया और अपने सामने बिठाकर
खिलाया। ऐसे ही धीरे-धीरे पांच साल बीत गए हेमा की जि़ंदगी में कोई सुधार नहीं
आया। मैं दिल्ली चली आई। हेमा वहीं पढ़ती रही। शीतू अपनी दीदी के घर उझयानी पढ़ने
चली गई। हम तीनों अलग-अलग हो गए। ग्रीष्मावकाश में हम तीनों गांव में मिलते थे।
आठवीं की परीक्षा के बाद हेमा के नाना ने उसका स्कूल छुड़ा दिया। शीतू भी गांव
वापस आ गई क्योंकि गांव में भी अब इंटर काॅलेज बन गया था। शीतू ने उसी स्कूल में
दाखिला ले लिया इस बार मैंने और शीतू ने नौंवी की परीक्षा में सफलता प्राप्त की।
ग्रीष्मावकाश शुरू हुए मैं जब गांव पहुंची तो पता चला कि हेमा की शादी हो गई। ये
सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि अभी हेमा सिर्फ़ सोलह साल की थी। मैं अब कुछ कर
भी नहीं सकती थी दूसरे दिन मैं और शीतू मास्टर जी से मिलने स्कूल गए। मैंने मास्टर
जी से पूछा कि आपने हेमा की शादी क्यों नहीं रोकी! आपको पता था कि यह ब्याह कानून
के खिलाफ़ है। मास्टर जी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि बेटा लड़का बहुत
अच्छा है, वो हेमा को सदैव खुश रखेगा। मास्टर जी की बात पर
भरोसा करने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था। कुछ दिनों बाद मैं वापस दिल्ली आ
गई। जब दोबारा गांव जाना हुआ तो पता चला कि हेमा सच में बहुत खुश है अपनी जिं़दगी
में। उसने कभी हार नहीं मानी, कभी टूटी नहीं, दुख से घबराई नहीं बल्कि दुख को अपना मित्र बना लिया।
... शीतल
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