लगभग सवा 8 का समय
हो रहा होगा। हर्षा मज़े से कमरे में कंबल औड़े टिक्की का मज़ा ले रही है। मम्मी खाना
बना रही है। हर्षा सोच रही थी अगर कुरकुरे होते तो मज़ा आ जाता। उसने झट से बिस्तर
का कपड़ा हटा कर उसमे पैसे टटोले पर पैसे नहीं मिले। वह कुछ पल के लिए सोचने लगी तभी
उसकी बहन शारदा ने नीचे से आवाज़ लगाई।
“हर्षा ओ हर्षा”
हर्षा कंबल को हटा
एक तरफ फेंक झट से जीने में आ गई।
शारदा बोली, “अरे
अम्मा तसले में आग जला रही है।“
अम्मा आग जलाते
हुये गाना गुनगुना रही है।
“कैकई तूने ज़ुलम
गुजारे वन में भेजे लक्ष्मण राम”
उनका गाना जैसे
जैसे आगे बड़ रहा है वैसे वैसे तसले की आग भी आसपास के माहौल में गर्मी बिखेर रही
है। अम्मा अपने गाने को लगातार गुनगुनाए जा रही है। अम्मा को अकेला बैठा देख पडोस
वाली रजवती अपना पतला उठाए उनके बगल में आ कर बैठ गई। अम्मा अपने गाने में इतना
मग्न है की राजवाती को अपने बगल में बैठने का एहसास भी नहीं हुआ। अम्मा का गाना
सुनकर राजवती भी उसे गुनगुनाने लगे। धीरे धीरे महफिल में और लोग शामिल होने लगे।
तभी गाना खत्म
होते ही राजवती बोली, “अम्मा लोहड़ी भी आने वाली है। इस बार गली में लोहड़ी मनाओगे?”
अम्मा ने कहा, “अरी आने
तो दे, तब की तब देखी जाएगी।“
रजवती उन्हे एक
नजर देखकर चुप हो गई।
उसे देखकर अम्मा
फिर से बोली, “अरे तू चुप क्यों हो गई? क्या मैंने कुछ गलत कह
दिया?”
राजवती बोली, “अम्मा
ऐसी बात नहीं है।“
अभी उनकी बात खत्म
भी नहीं हुई थी की इतने में नाईन आ गई और बोली, “मैंने अभी अभी काम खत्म किया है।
हाथ पैर एक दम ठंडे बर्फ जैसे हो रहे है।“
ये कहते हुये वो
राजवती को कान्धो से पकड़ कर, आगे की ओर धक्का देते हुये थोड़ी सी जगह बनाकर
बैठ गई और आग तापने लगी। थोड़ी देर के बाद में अम्मा बोली,
“अरी मैं तो भूल ही गई, खाली बैठी हु थोड़ा स्वाटर ही बुन
लूँ। अम्मा उठी और अंदर से ऊन और सिलाई उठा लाई और आकर अपनी जगह पर बैठ गई, स्वाटर बुनने लगी। बुनते हुये बोली, “अरी अभी थोड़ी
देर पहले राजवती ने कहा था की लोहड़ी मनाएगे पर पता नहीं मैं ऐसा क्या कह दिया की
तब से ये चुप और फुली बैठी है।“
नाईन बोली, “अरे मुझे
तो ध्यान ही नहीं रहा था की लोहड़ी भी आने वाली है। पर ये हमारा त्योहार नहीं है।
हमारा तो संकरात है।“
अम्मा बोली, “अरी
संकरात हो लोहड़ी, त्यौहार तो त्यौहार होते हैं। इन में सारी
गलियाँ और लोग खुशी मनाते है।“
ये सुन नाईन अम्मा
का मुंह ताकने लगी।
राजवती बोली, “मैं तो
त्यौहार की ही बात कर रही थी। तो अम्मा ने कह दिया की “देखेगे” और अब खुद ही
त्यौहारों की बातें कर रही है।“
अम्मा ने कहा, “त्यौहार
तो अच्छे लगते हैं। पर फिर भी बजट की भी तो बात है। अभी हाँ करूँ या ना करूँ। ऐसा
ठीक नहीं रहता।“
अभी राजवती कहने
लगी, “हाँ सही कह रही हो अम्मा। जब मैं दिल्ली में आई थी तो दूध सात रुपए किलो
मिलता था और अब दूध भी 19 रुपए का आधा किलो मिलता है। अब तो सुबह का नाश्ता ही 100
या 150 रुपए में होता है।“
तभी झट से नाईन
बोली, “100 का नोट यूं खुलता है और यूं गायब हो जाता है।“
राजवती बोली, “हाँ ये
तो तुम ठीक कह रही हो। हमारे गाँव में मूँगफली यूं ही मुट्ठी भर भर कर अनाज के
बदले में ले लिया करते थे। गाँव में भी अब तो बिना पैसे के हाथ भी नहीं रखने देते।
दिल्ली में तो और आग लगी है। यहाँ पर हर चीज के दाम आबे के ताबे मांगते है। त्यौहारों
में तो और भी महगाई बड़ जाती है।“
तभी अम्मा बोली, “हमारे
गाँव में खेतों से मक्का आती है और गाँव में भड़भूजे के यहाँ झोली भर भर कर ले आते
थे। आज गली में मक्का भुनने वाला आता है। मरा एक मुट्ठी मक्का भी 10 रुपए के देता
है।“
तभी राजवती हँसते
हुये बोली, “अम्मा वो मक्का नहीं है। वो तो पोपकोर्न है पोपकोर्न।“
अम्मा खिसियाते
हुये बोली, “मरे अंग्रेज़ चले गए ये अँग्रेजी छोड़ गए। और लोहड़ी में मक्का और मूँगफली
के दाम भी आसमान छु जाते हैं। अब क्या खरीदे और क्या खिलाये। ये तो अच्छा है की
गली में सभी पैसे मिलकर समान खरीद लेते हैं तो बच्चो को खाने को मिल भी जाता है।
वरना अकेले अकेले तो कोई कुछ भी नहीं खरीद पाएगा और त्यौहार भी नहीं मना पाएगा।“
ये कहते हुये
अम्मा ने एक लंबी सांस छोड़ी। तब तक तो आग भी बुझ चली है। नाईन एक तिनके से तसले
में बुझी राख को कुरेद रही है। जैसे उस राख़ से कोई चिंगारी ढूंढ रही हो जिससे
उन्हे कुछ गरमाई मिल जाए।
राजवती उठते हुये
बोली, “समय का पता ही नहीं चला। अभी तक स्नेहा के जीजा नहीं आए। ठंड काफी बड़ती
जा रही है।
अम्मा बोली, “तेरे लिए
ही तो बैठे थे। चलो अब कल बैठेगे”
इतना कहकर सभी
अपना अपना पतला उठा कर अपने अपने घर की तरफ चल दिये।
चेतना.....