मैंने पूछा, "पूरी दुनिया में हर कोई सब कुछ भूल रहा है, दुनिया को अगर ऐसे देखे तो?”
छत्तर भाई ने कहा, “मैं मेले मे काम करता था, 10 दिन का ये काम मेरे लिये इस तरह का होता की, मैं पूरे शहर से, इलाके से और अपने आसपास से मिल भी लेता और उनसे दूर भी रहता। ये 10 दिन मेरे लिये दिन के जैसे नहीं होते थे। ये लगता था की मेरे लिये सारा समय उल्टा चल रहा है।
कई लोग किसी को ढूंढते हुये आते तो उन्हे मैं मिल जाता और कुछ जो अपनो से खो जाते तो मैं मिल जाता। मेरा तो सबको मिल जाना तय ही रहता था। कभी मेरी ड्यूटी मेले के भीतर लगती थी तो कभी गेट पर, गेट पर मुझे मेरी ड्यूटी पसंद नहीं थी, वहाँ पर जबरदस्ती रिश्तेदारी निभानी होती थी। लम्बी लाइन से बचने के लिये लोग मुझे खोजते हुये आते और सही बताऊं तो कभी - कभी मैं उनसे छूपने के लिये अपने मुहँ पर कपड़ा लपेट लेता। मेरे लिये उस लाइन मे कोई भी तो पराया नहीं था। मुझे तो ये भी नहीं मालुम था की इस लम्बी लाइन मे लगे लोग मेरे इलाके के है या उससे बाहर के। मेला का हर दिन मेरे लिये ऐसा लगता था कि मेरा काम 10 से 12 दिनों का नहीं है बल्कि बहुत लम्बे समय से चल रहा है। 10 दिन पूरा महीना लगने लगते। रात मे बस बिजली की रोश्नियों मे लोग मुझे जरूर तलाशते थे वो भी जो मुझे जानते थे और वो भी जो मुझे जानना चाहते थे। और मैं मेले में खड़ा यही सोचता था की, मैं तो यहाँ पर खुले मे खड़ा हूँ और फिर मुझे लोग ढूंढ रहे हैं। कभी - कभी होता है ना, हम बस स्टेंड पर खड़े जिस गाडी का इंतजारे करते है वही नहीं मिलती। उसके अलावा सब कुछ मिलता है। वैसे ही यहाँ मेले की जिन्दगी है, जिसे ढूंढों वही नहीं मिलता बाकी सब मिलते हैं और जिससे खो जाना चाहो वही सबसे पहले मिलता है। मैं गेट से अन्दर की तरफ हमेशा खिसक आता था। क्योंकि मेले के अन्दर रेहडी वालो, खोका मार्किट वालो से मेरी दोस्ती थी, वहाँ पर खड़ा होकर मैं पूरे मेले के मजे लूट लिया करता था। एक बार की बात बताता हूँ मेरी ड्यूटी मेले की बीच जगह पर लगी, जहाँ पर जमीन पर बैठकर लोग दुकान लगाया करते थे। ये वे लोग थे जो मेले मे दुकान लगाने का कुछ नहीं देते थे। वहाँ पर एक नाम गोदने वाला बन्दा था। उसके यहाँ पर बहुत भीड़ लगी थी, सभी नाम गुदवा रहे थे कोई किसी का नाम तो कोई किसी का, कोई भगवान का तो कोई अपने पति। वहीं पर भीड़ थी सबसे ज्यादा। एक लड़का सबसे पीछे आया और जल्दी से अपना काम करवाना चाहता था। मगर कुछ शरमा रहा था। इतने मे उसने अपनी कमीज उतारी और सीने पर नाम गुदवाने लगा। उसकी पूरी कमर पर नाम गुदे हुये थे। ये गजनी फिल्म तो अब आई है। यहाँ मेले मे कई ऐसे लड़के देख चुका हूँ जो अपने शरीर पर नामो का रेला लेकर चलते हैं। 10 दिन तक चलने वाला मेला, ऐसे लोगों से मिलवा देता था। मगर 10 दिन बीत जाने के बाद मे लगता की ये फिर नहीं मिलेगे। मैं भी सोचता था की अपने हाथों पर कुछ गुदवा लूँ, कम से कम पहली बार लगे मेले का साल ही। पर जब सब लोग भूल जाते हैं तभी तो मिलने का मज़ा था है। हमारी ड्यूटी मेला लगने के बाद और मेला उतरने से पहले ही खत्म हो जाती थी। तो वो उतरता हुआ मैं कभी नहीं देख पाया। सही बताऊँ तो इस विराट के मैदान मे मैं जब मेला नहीं लगता तब जाता हूँ तो मुझे सच मे ये नहीं पता रहता कि कौनसी दुकान कहाँ पर लगी थी और मैं कहाँ खड़ा होता था।"
मैंने पूछा, "खुद को कब आपने खोया हुआ पाया?”
छत्तर भाई ने कहा, “आज कल मेरी ड्यूटी बीआरटी लाइन पर है, यहाँ पर मुझे कोई नहीं पहचानता, वो जो मेरे साथ काम करते हैं वो भी और जो सड़क से निकल रहा है वो भी। यहाँ पर तो आप आटोमेटिक खोये हुये हो और सही मायने मे ये बहुत अच्छा है, खोये हुये रहना, एक अलग से जीने को भी कहता है। जिसमें शर्म, किसी के पहचान लेने का डर नहीं होता, बैठो - उठों और खाओ पियो। वैसे कोई जानने वाला भी क्या रोक लेगा तुम्हे कुछ करने से। मगर किसी के कुछ पूछ लेने का जवाब नहीं देना चाहते तो क्या हो? मैं ट्रफिक के बीचों बीच होता हूँ, शुरू शुरू मे बहुत डर लगता था। ऐसा लगता था की जैसे अगर कोई ध्यान न देकर चल रहा होगा तो वो पहले मार ही देगा चाहे हल्की सी ही क्यों न लगे। मगर कुछ दिनों के बाद में सब कुछ अपने आप सख़्त होता गया। मैं खुद भी सख़्त हो गया। मैं इसी सड़क पर कई समय से काम कर रहा हूँ, जगह बदल जाती है, कभी सड़क के सीधे जाने वाले रोड़ पर होता हूँ तो कभी यू टर्न पर, कभी उल्टे हाथ की तरफ जाने वाले रोड़ पर होता हूँ तो कभी सीधे हाथ की तरफ, एक ही ये रोड़ हर साइड पर खड़े होने के बाद मे अलग लगता है। गाडियां सारी एक जैसी है जो पूरे सड़क पर भाग रही है, लेकिन कहीं पर कुछ कम जाती है तो कहीं पर कुछ ज्यादा। कोई लाइट छोटी कर रखी है तो कोई बड़ी। मैं जो चाहता हूँ वो हमेशा होगा ये तो मेरी भूल है पर मैं चाहता हूँ की सड़क के बीच मे रहूँ मगर फिर भी खोया हुआ रहूँ।मैं जब सड़क पर होता हूँ तो खोया रहता हूँ और जब मैं घर आता हूँ तब लगता है कि मैं उस छत्तर को खो आया जो सड़क पर खड़ा था। अच्छा नहीं लगता वहाँ से वापस आना। घर में आपको सभी प्यार बहुत करते हैं मगर उनका प्यार अपनी तरफ खींचता है, पकड़े रखता है। मैं विराट के मैदान मे पला बड़ा हूँ, वहीं पर मैं सब कुछ सीखा, कुश्ती, क्रिक्रेट और काम भी, गाड़ी चलाना भी पर आज तक उसको पहचान नहीं पाया हूँ, जब मुझे कोई नौकरी मिलती है वो विराट के मैदान से ही जुड़ी होती है और मैं फिर से उसमें एक अजांन आदमी तरह खड़ा हो जाता हूँ। ऐसा मेरे साथ मेरे घर मे कभी महसूस नहीं हुआ। घर काफी बार बदला, हर साल बदलता है लेकिन फिर भी लगता है कि मेरा है, मैं इसे जानता हूँ। परिवार वाले कभी - कभी खोये हुये लगते हैं लेकिन घर कभी नहीं लगता।
मैनें पूछा, “अपने को खो देना क्या है?”
छत्तर भाई ने कहा, “दुनिया बनाना है, ये मैं नहीं कहता मेरी बीवी कहती है - तब मुझे पता चलता है। वो बहुत किताब पढ़ती है, जब घर लौटता हूँ तो वो किताब पढ़ रही होती और जब वो घर मे नहीं होती तो किताब जमीन पर इस तरह रखी होगी की देखते ही लग जायेगा की अभी किताब पढ़कर गई है कहीं। उसको मैंने पूछा था ये कि तुझे लगता है कि तू किताब पढ़कर इन घरेलू झमेलो से दूर हो जाती है? तब उसने कहा था की मैं किताब इन झमेलो से दूर होने के लिये नहीं पढ़ती हूँ मैं तो ऐसा माहौल चाहती हूँ अपने पास में जो मुझे अपने मे लगाये रखे, इसलिये ये मैं खुद से बना लेती हूँ। किसी चीज़ से लगाव रखना बाकी चीज़ों से काटता नहीं है वो तो एक और चीज़ एड कर देता है। वो अपनी इस बनाई हुई दुनिया में लीन रहती है, जो सिर्फ उसके अकेले के लिये नहीं है, उसकी बहन भी इसमे शामिल हो जाती है। जब वो नई नई आई तो उसको देखने के लिये सब आये, वो कमरे मे बैठी हुई थी, अपने समान को दिखा रही थी, पहले तो सब उसे देखते और उसकी खूबसूरती की सब तारीफ करते। पूरे कमरे मे काफी औरते थी। पहले उसे देखती फिर समानों पर निगाह डालती, उसके समान को खोलकर सभी देख रही थी। फिर उसका छोटा बैग खोला तो उसमे कुछ किताबे थी, उसकी डायरियाँ की तो सभी चौंक गई, कहने लगी किताबे भी लाई है। बस यही बात सबकी जुबान पर चिपक गई, क्या - क्या समान लाई है बहू हुआ तो सबसे पहले तो किताबों का जिक्र होता। सब कहते, बहुत समान लाई है बहू और पता है किताबे भी लाई है। पढ़ती होगी, टीचर होगी, पढ़ाती होगी न जाने क्या क्या बोलते गई। लेकिन उसने ऐसा समा बना दिया यहाँ कि सब उसमें घूस गये। फिर तो हमारे घर के बाकी सभी किताबों को देखने लगे। मैं भी देख रहा था।"
मैंने पूछा, “आप अपनी इस दुनिया में, एक और दुनिया बनाना चाहें तो वो किस तरह की होगी?
छत्तर भाई ने कहा, “मैं सर्वे के लिये पानीपत गया हुआ था। वहाँ पर हमें रात का सर्वे करना था गाड़ियों का, हमारा ठिकाना सड़क के किनारे पर किया गया था। वही पर टेंट लगाकर हमें रखा गया था। बहुत कड़ाके की सर्दी थी, हम सभी जागे रहते थे। ऐसा लगता था की हम फोजी जिन्दगी जी रहे हैं, पूरे इलाके को दूर से देखना मगर बहुत गहरे ढंग ( शार्प तरीके ) से देखना। कोई पूरी सड़क पर घूमता था, तो कोई पुलीस वाले की केप पहनकर रात मे सफर करने वालो के लिये कुछ और बन जाता था, कोई पास की जगह में घूमकर कुछ मांग लाता था तो कोई दुकान वालो को रात मे दुकान लगाने का न्यौता दे आता था। पूरी रात मे लगता था की सुबह हो ही ना, रात में हवा, सड़क और वहाँ का सन्नाटा कभी परेशान नहीं करता था वे तो जगाता था, सोने ही नहीं देता था, लगता था की सो गये तो बहुत कुछ गंवा देगें। हर रात दो लोगों की ड्यूटी लगती थी जागने की मगर सब जागते थे। जहाँ पर ये नहीं मालूम था कि दिल्ली मे क्या हो रहा होगा, कौन किससे लड़ रहा होगा, कौन घर से भाग गया होगा, एक महीना बस, लगता था सभी को एक और महीना मिल जाये। और लौटने के बाद मे लगता था की एक और महीना मिल जाये बस, मैं मेले में भी ऐसे ही दुआ मांगा करता था कि बस, 10 दिन और मिल जाये। ये होना चाहिये, भले ही दिन मिल जाये मगर वहाँ पर किसी बात का डर ना हो। सिर्फ लड़का पार्टी के ही या आदमियों के लिये नहीं उसमें सभी होने चाहिये, हाँ, मेरी बीवी भी। मैं तो अक्सर सोचता था की एक ग्रुप ऐसा बन जाना चाहिये जो हर तीन महीने के बाद में एक महीना बाहर जाये और किसी जगह पर रहकर आये। ऐसे ही सड़क पर अपना डेरा डाले और आसपास की जगहों से सब कुछ लाये मगर वापस आ जाये।"
मैंने पूछा, “अपनी बनाई हुई दुनिया मे कब लगता है कि मैं अकेला नहीं हूँ बल्कि अनगिनत रूप हैं मेरे?”
छत्तर भाई ने कहा, “मैंने बहुत नौकरियां बदली है, कहलो की जगहें भी बदली हैं। हर जगह पर नया काम और नई पहचान मिल ही जाती है। वहाँ पर सभी किसी वक़्त मे एक समान हो जाते हैं। सब कुछ चाहते हैं, पर किसी को पता नहीं होता की क्या? सब कहते हैं "अबे घर ही तो जाना है रूकजा आराम से चला जाइयों, जल्दी क्या है?” इसी बात मे सब आसानी से रूक जाते हैं। लगता है जैसे कोई भी घर नहीं जाना चाहता। उसी जगह पर बहुत देर तक बैठे रहते हैं कुछ भी बातें करते हैं, कोई कहीं की बताता है, कोई कहीं जाने की बस सभी लगे रहते हैं। मैं भी उन्ही के बीच मे बैठ जाता हूँ। कुछ नहीं करता, ना बोलता, बस सुनता रहता हूँ, कभी लगता है कि मैं यहाँ पर आसानी से बोल सकता हूँ और कभी लगता है कि ये लोग अपने बारे मे कहाँ बोलते हैं जो मैं अपने बारे मे बोलूं। या मैं क्या बोलू की उलझन मे रहता हूं। वो लोग मुझे देखते रहते हैं, कभी उकसाते हैं तो कभी नहीं। कभी हाथ पकड़कर खींच ही लेते हैं। मुझे लगता है कि मैं उनके बीच का ही एक हिस्सा हूँ। हमारी बातें एक समान सुनाई देती हैं, कोई दर्द या दुखी होने को बोलना यहाँ पर उसका मजाक बनवाने के जैसा है। बड़ी - बड़ी बातें करते हैं सब। कोई किसी की मदद शायद नहीं कर पाये लेकिन बातें करने मे उसका खुश कर देते हैं। ये सब बातें मुझे दुखी कर देती हैं क्योंकि मैं इनमे घूलाना नहीं चाहता, क्योंकि भइया हमारा काम तो डेलीवेज़ पर काम करने का है। कभी यहाँ तो कभी वहाँ पर, ऐसे मौके मिलना आसान नहीं होता। बीआरटी को, उसमे काम करने वालों को लोग गाली देते हैं, कोई नहीं लेकिन कभी रात मे देखना, मस्त हो जाता है पूरा रोड़। लगता है जैसे साला सच्ची का फोरनकंट्री है। अपनी ही जगह को भूल जाओंगे। लोग निकलते हैं इसे देखने के लिये, तब लगता है कि मैं अकेला दिवाना नहीं हूँ। बहुत लोग हैं।"
लख्मी